“तुम आसपास कोई डांस स्कूल क्यों नहीं देख लेतीं? मैं नेट पर सर्च करुं तुम्हारे लिए?” पति ने बड़े ही प्यार से गले में बांहें डालकर अपनी तरफ़ से इनकार का फ़रमान सुना दिया था. कहते हैं औरत के आंसू वो दिव्यास्त्र हैं, जो पुरुष पर विफल होने की संभावनाएं न्यूनतम होती हैं. अब मेरी आंखों में प्रचुरता के साथ उपलब्ध इस अस्त्र ने अपना प्रयास आरंभ किया.
अगले दिन वहां का प्रॉस्पेक्टस मेरे सामने था, मगर उसे मुझको पकड़ाते समय पति के चेहरे पर नकार के भाव स्पष्ट थे.
“वहां का कोई सीधा रूट नहीं है. यहां से पहले ऑटो, फिर मेट्रो, फिर क़रीब तीन किलोमीटर का ऐसा ‘स्ट्रेच’ है, जो न केवल सुनसान है, बल्कि उस पर कोई भी सवारी बड़ी मुश्किल से मिलती है.”
“तुम आसपास कोई डांस स्कूल क्यों नहीं देख लेतीं? मैं नेट पर सर्च करुं तुम्हारे लिए?” पति ने बड़े ही प्यार से गले में बांहें डालकर अपनी तरफ़ से इनकार का फ़रमान सुना दिया था. कहते हैं औरत के आंसू वो दिव्यास्त्र हैं, जो पुरुष पर विफल होने की संभावनाएं न्यूनतम होती हैं. अब मेरी आंखों में प्रचुरता के साथ उपलब्ध इस अस्त्र ने अपना प्रयास आरंभ किया.
“मैंने आठ साल डांस सीखा है. इतने कार्यक्रम किए हैं. मैं क्या सीखूंगी आसपास?” दो मोटे-मोटे आंसुओं और रुंधे गले के साथ मैंने बात आगे बढ़ाई.
“इतनी महिलाएं रोज़ अकेले निकलती हैं…”
मगर युद्ध में सामनेवाले की क्षमता को कभी कम करके नहीं आंकना चाहिए. दिव्यास्त्र पुरुष के पास भी होते हैं- स्त्री के रूप की प्रशंसा का दिव्यास्त्र. उन्होंने इसी दिव्यास्त्र के साथ मेरी बात काट दी, “निकलती होंगी, मगर वे सब मेरी बीवी की तरह सुंदर, मासूम और नाज़ुक नहीं होती होंगी. उनके पति की जान उनमें नहीं बसती होगी.” पति के दिव्यास्त्र मुझे धराशाई कर चुके थे. इसके बाद लड़ाई का, तो सवाल ही नहीं उठता था और प्यार से समझाने का तो यही परिणाम निकलना था जो निकला था.
“मुझे लगता है कि हमने फैमिली प्लानिंग को कुछ ज़्यादा ही लंबा खींच दिया है और यही तुम्हारी उदासी का कारण है. अब तुम मुझे एक प्यारी-सी नन्हीं परी दे दो. देखो वो इतना नाच नचाएगी कि तुम्हें डांस की कमी खलनी ख़ुद ही बंद हो जाएगी.” कुछ दिन लगातार मुझे दुखी देखने के बाद पति ने बड़े प्यार से झगड़े का रुख मोड़ दिया था.
फिर मेरी ज़िंदगी में वो सुनहरा पल आया, जो हर औरत के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पल होता है. डॉक्टर ने मेरी अस्मिता का प्रतिबिंब मेरे सामने पहले पति के हाथों में दिया. मेरी बेटी. उसे पकड़ने के दो सेकंड के अंदर पति ने मुझे वापस कर दिया.
“इसका तो गला ही मुड़ जाएगा मुझसे. कितनी प्यारी, लेकिन कितनी कोमल है मेरी परी. एकदम गुलाब की पंखुड़ी की तरह.” उनकी आंखों में ख़ुशी के आंसू आ गए थे. वे बहुत देर तक उसे गोद में उठाने की कोशिश में विह्वल रहे, पर हिम्मत न कर सके.
उनकी ये दशा देखकर किसी को हंसी आ जाती, पर मेरे दिल में तूफ़ान उमड़ पड़ा. इतनी चिंता? इतनी केयर? इतनी सुरक्षा? तो क्या ये भी मेरी तरह सभीता बनेगी? नहीं!!! उस दिन अपनी बेटी को गोद में उठाकर मैंने ख़ुद से एक वादा किया कि मैं उसे सभीता नहीं बनने दूंगी.
मगर पति के स्नेहिल संरक्षण ने मेरे इस संकल्प को कभी पुष्ट नहीं होने दिया.
पर एक दिन कुछ ऐसा घट गया कि वो झंझावात फिर से यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया. समाचारों की एक सुर्खी जिसने सारे हिन्दुस्तान को झिंझोड़ कर रख दिया था, उससे मेरा मन कैसे सुरक्षित रहता. सारे न्यूज़ चैनल, समाचार-पत्र और बुद्धिजीवी समस्या रूपी सागर के मंथन में लग गए. समाचार शुरू होते ही वो यक्ष प्रश्न फिर मेरी आंखों के सामने खड़ा हो जाता. सीने पर रखी शिला आंसुओं में पिघल कर बहने लगती. क्या लड़कियां अब पुरुष के साथ भी सुरक्षित नहीं हैं? क्या करें हम? अपनी नाज़ों से पाली परी को पंख देकर ऐसी मर्मांतक मौत पाने का ख़तरा उठाएं या उसकी प्रतिभाओं की मर्मांतक मौत स्वीकार करने का? ऐसे ही एक दिन मेरी आंखों से बहती अश्रुधार को देखकर पति ने चैनल बदल दिया. मेरा मनपसंद चैनल, डिस्कवरी लगा दिया कि मेरा मूड शायद ठीक हो जाए. ‘सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ चल रहा था, मेरा मनपसंद कार्यक्रम.
एक शेर ने हिरन पर झपट्टा मारा, मगर हिरन ने भागने की बजाय अपने सींग तेज़ी से आगे बढ़ा दिए. तीन बार उसने वही प्रक्रिया दोहराई और फिर शेर पलट कर भाग गया. मेरी चेतना में कुछ कौंध-सा गया. देखा तो नहीं, पर कुछ ऐसा ही पहले भी सुना है शायद. दिमाग़ पर ज़ोर डाला, तो दादी के वाक्य रह-रह कर कानों में गूंजने लगे ‘डर कर बैठने का विकल्प ही नहीं था मेरे पास…’ ‘रोज़ सड़कों और विभिन्न वाहनों में दुर्घटनाएं होती हैं, पर उनके डर से कोई घर में थोड़े ही बैठ जाता है…’ ‘समाधान जूझने से निकलते हैं भागने से नहीं…’ ‘कैसे-कैसे अत्याचार सहे क्रांतिकारियों ने पर घुटने नहीं टेके, हिम्मत नहीं हारी…’ ‘आज़ादी बिना जोखिम उठाने की क़ीमत चुकाए नहीं मिलती…’
तभी फोन की घंटी बज उठी. अवि अंकल का फोन था. नव वर्ष का प्रथम दिवस था, पर हमेशा की तरह उन्होंने बधाई दी, तो मैं रो पड़ी. वो तुरंत मेरे मन की बात समझ गए.
“बेटा, किसी विद्वान की उक्ति है -‘साधारण लोग घटनाओं में उलझ कर रह जाते हैं, कुछ लोग कारणों पर विचार कर पाते हैं, उससे कम समाधानों पर, मगर बिरले ही होते हैं, जिन्हें दुर्घटना का क्षोभ समाधानों पर अमल कर पाने के लिए प्रेरित कर पाता है. अगर कोई घटना विह्वल करती है, तो उसके समाधान पर अपने स्तर पर काम शुरू कर देना ही श्रेष्ठतम कर्तव्य है.”
मेरे निराश मन ने तो जैसे इतने दिनों के सागर मंथन से निकला अमृत प्राप्त कर लिया था. ‘बहादुर एक बार मरता है और कायर हज़ार बार.’ समस्या गंभीर है और समाधान कठिन और धुंधले पर इतना तय है कि समाधान बिना जूझे नहीं निकलेंगे.और जूझ की शुरुआत बिना मन से डर निकाले नहीं हो सकती.
ये वाद-विवाद का विषय है और रहेगा कि मेरे और मेरी प्रतिभाओं के पूर्ण प्रस्फुटन के बीच वो लड़के थे या मेरे और मेरे परिवार के मन में बसा उनका डर. पर इतना तय था कि एक साधारण नागरिक के रूप में मैं उन्हें नहीं हटा सकती थी, हटा सकती थी तो केवल अपने डर को.
एक बार मन में दृढ़ता की नमी आई, तो संकल्प-शक्ति की सूखी बेल लहलहाने लगी. कुछ ही दिनों में मैंने क्रमिक रूपरेखा बना ली थी कि मुझे क्या करना है.
“मुझे स्कूटी ख़रीदनी है.” मैंने कुछ इतने दृढ़ स्वर में कहा कि पति अचकचा गए.
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मेरे मूड में आजकल आए परिवर्तन को देखते हुए उन्होंने प्रतिवाद नहीं किया, पर उसे सड़क पर चलाने के लिए जो हिम्मत चाहिए थी वो कोई ख़रीद कर नहीं दे सकता था. वो मुझे ख़ुद जुटानी थी. पहले दिन तो सोसायटी के गेट से निकलते ही ऐसे हाथ-पांव फूले कि चौकीदार को पैसे देकर स्कूटी वापस स्टैंड पर रखने के लिए कहना पड़ा. डर का ये आलम कि मैं रास्ते पर चल रही होती, तो मुझे लगता कि पीछे से आ रहा हर वाहन मुझे रौंदने का इरादा रखता है. रास्तों का सामान्य ज्ञान ऐसा कि उलझी हुई सड़कों में गंतव्य की दिशा मुझे केबीसी यानी कौन बनेगा करोड़पति के सात करोड़ के सवाल से भी कठिन लगती. वापस घर आकर मैं रो पड़ी. मुझे उस परी की कहानी याद आई, जिसके पंख चोरी हो गए थे. बरसों बाद जब मिले, तो उसे पता चला कि वो उड़ना भूल गई है. मैं जी भर कर रोई, पर दूसरे दिन फिर कोशिश की, फिर, फिर और फिर…
अगला भाग कल इसी समय यानी ३ बजे पढ़ें…
भावना प्रकाश
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