कहानी- सभीता से निर्भया तक 8 (Story Series- Sabhita Se Nirbhaya Tak 8)

“ये चोट तुम्हारी गुरु है इस चोट ने तुम्हें सिखाया कि गिर कर कैसे उठा जाता है. इस चोट ने तुम्हें सिखाया कि दर्द में दूसरी मंज़िल तक कैसे चढ़ा जाता है. थोड़ा ध्यान दोगी, तो ये चोटें ही तुम्हें सिखाएंगी कि कैसे सावधानी से दौड़ा जाता है. कैसे ख़ुद को चोट से बचाया जा सकता है.”

 

अपनी इस मुहिम से मैंने ये सीखा कि यदि इंसान ठान ले, तो कुछ भी नामुमकिन नहीं है. बेटी के स्कूल और पति के ऑफिस जाने के बाद मैं स्कूटी लेकर निकल पड़ती. आसपास की गलियों में रास्ते पहचानने का संकल्प लेकर. समय के साथ पदोन्नति होते-होते पति ऐसे पद पर पहुंच गए थे कि कार्यालय की बढ़ी हुई ज़िम्मेदारियों के कारण घर की ओर ध्यान स्वतः ही कम हो गया था. ऐसे में उन्हें मेरा ये शौक लाभप्रद लगा और वे मुझे बाहर के काम सौंपने लगे.
तभी एक दिन फिर वही दुर्घटना, नहीं इस बार घटना घटी. तीन लड़कों के ज़िगज़ैग बाइक चलाने से मैं लड़खड़ा कर गिर पड़ी. उन तीनों ने बाइक रोक दी और मेरी ओर बढ़े. मेरे मन में जैसे कुछ जम-सा गया. सारी ख़ुशियां होने के बावजूद जिस दुर्भाग्य ने मेरे जीवन को रीता कर रखा है, क्या वो कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा? मैं जैसे जमी हुई सी सोच रही थी कि उनमें से दो मेरी स्कूटी की ओर बढ़ गए और एक मेरी ओर. पिघलते अंगारों जैसे मन में जैसे बारिश की बौछार पड़ी, जब एक सभ्य हाथ मेरी ओर बढ़ा.
“सॉरी मैंम! ग़लती हमारी थी. आपको चोट तो नही आई?” मैने देखा बाकी दोनों लड़के मिलकर मेरी स्कूटी का टेढ़ा हो गया हैंडिल ठीक कर रहे थे. इस बार शारीरिक चोट कई गुनी थी और अपनी ओर बढ़ने वाला हाथ सौम्य. लेकिन मैं ख़ुद ही उठी और स्कूटी पर बैठी.
“अगर आप स्कूटी न चला पाएं, तो रिक्शा कर लीजिए. हम आपकी स्कूटी घर पहुंचा देंगे.” वे बोले. “मैं ठीक हूं, धन्यवाद.” कहकर मैं उस भयंकर दर्द में स्वयं घर आई. पापा की जुनूनी परी के सिर पर इस बार डांस या पत्रकारिता का नहीं, केवल अपने डर को हराने का जुनून था और ईश्वर भी इसमें मेरी सहायता कर रहा था. मुझे ये बता कर कि दुनिया में अच्छे लोग भी हैं.
जल्द ही घूमते-फिरते मैंने तीन जगहें खोज निकाली. पहली दो जगहें मेरे लिए थीं. एक डांस का हॉबी स्कूल, जहां एक अध्यापिका का स्थान रिक्त था. एक स्वयंसेवी संस्था, जहां साधनहीन बच्चों को शिक्षा और संस्कार दिए जाते थे, ताकि वे अपराधी न बनें. इनके लिए पति के मना करने का सवाल ही नहीं उठता था, मैं जानती थी. तीसरा था कराटे स्कूल, जहां मुझे बेटी को डालना था. ये सबसे कठिन मोर्चा था, जिसके लिए मैं कमर कस के तैयार हो गई.
मेरी बेटी का पढ़ाई प्रेम अक्सर लोगों की ईर्ष्या का कारण रहता था. किसी भी विषय में पूर्ण से आधा अंक भी कम न हो जाने के जुनून ने उसके मन में खेलों के लिए चाव कभी पैदा नहीं होने दिया. दिमाग़ थका, तो मनोरंजन के लिए टीवी या कम्प्यूटर थे ही. मैं उसे कई बार बाहर जाकर खेलने के लिए प्रेरित कर चुकी थी, पर कोई असर नहीं हुआ था.
अभी कुछ समय पहले ही मैंने उसे ज़बर्दस्ती खेल के मैदान में भेजने का क्रम बनाया था. कुछ दिन में उसे खेलने में आनंद आने ही लगा था कि एक दिन सीढ़ियों से उसके ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी. घबरा कर दरवाज़ा खोला, तो देखा छिले घुटने और हथेली के साथ रोते हुए आ रही है. चोट बहुत छोटी भी नहीं थी और बड़ी भी नहीं, मगर मैंने अपने आपको आगे बढ़ कर उसे बांहों में समेटने से रोक लिया. “बाथरूम में डिटॉल और गरम पानी है. चोट को रगड़ -रग़ड़ कर धो.” मेरे शुष्क व्यवहार पर हतप्रभ रह गई मेरी बेटी.

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“मैं अपने आप तो चोट नहीं ही धोऊंगी.” उसने रोते-रोते कहा.
“सोच लो इंफेक्शन हो गया, तो कई गुना दर्द होगा.” मेरी बेदिली पर मुझे भला-बुरा कहते हुए उसने चोट धोकर दवाई लगाई ही थी कि पति ऑफिस से आ गए. अब तो रुदन चरम सीमा पर पहुंचना ही था. रूठी हुई निगाहों से मेरी ओर देखते हुए आंसुओं में भीगा स्वर था, “पापा, मम्मी से कह दो कि कल से मैं खेलने नहीं जाऊंगी. क्या मिलता है खेलकर? ये चोट?”
“इस चोट को कुछ मत कहना.” मेरी आवाज़ की सख़्ती देखकर वे दोनों हैरान रह गए.
“ये चोट तुम्हारी गुरु है इस चोट ने तुम्हें सिखाया कि गिर कर कैसे उठा जाता है. इस चोट ने तुम्हें सिखाया कि दर्द में दूसरी मंज़िल तक कैसे चढ़ा जाता है. थोड़ा ध्यान दोगी, तो ये चोटें ही तुम्हें सिखाएंगी कि कैसे सावधानी से दौड़ा जाता है. कैसे ख़ुद को चोट से बचाया जा सकता है.” फिर मैंने उसे बांहों में ले लिया.” बेटा, मम्मी तुमको बहुत प्यार करती है, मगर हर जगह वो तुम्हारे साथ नहीं हो सकती है और जहां वो तुम्हारे साथ नहीं है, वहां तुम इन चोटों से लड़कर जीत सको, इसीलिए मम्मी ने तुम्हें ख़ुद चोट धोने को कहा.”
खेलकूद उसकी नियमित दिनचर्या का हिस्सा बन गए, तो मैंने कराटे का राग छेड़ दिया. हंगामा तो होना ही था. पति की झुंझलाहट तय थी, “तुम्हें हो क्या गया है? लोग परेशान रहते हैं कि उनके बच्चे पढ़ते नहीं और तुम हो कि बेटी के किताबी कीड़ा होने से परेशान हो. अभी तुमने उसकी ज़बर्दस्ती एक घंटा खेलने की आदत डलवाई है. वो इसी से परेशान है और तुम अब ये कराटे क्लास.समय कहां है उसके पास?”
बेटी भी ग़ुस्सा गई, “मां, मुझे नहीं पसंद कराटे-वराटे.”
“ठीक है, तो नवीं कक्षा से लगने वाले ऐडवेंचर कैंप में जाने की ज़िद मत करना.” मैं भी उसकी मां थी, उसकी नस पकड़ना जानती थी.
“उसके लिए अभी से तैयारी?” बेटी ने चकित होकर पूछा, तो मेरा स्वर दार्शनिक हो गया, “जैसे सालाना परीक्षा में प्रथम आने के लिए पहले दिन से तैयारी ज़रूरी है, ये भी वैसे ही ज़रूरी है, बेटा.” बेटी तो मान गई, पर बाद में अकेले में पति ने मुद्दे को वाद-विवाद का रूप दे दिया.
“तुम्हें क्या लगता है कि कराटे सीख लेने से लड़की लड़के से जीत सकती है? क्या लड़के कराटे नहीं सीख सकते?”
“नहीं, मगर हर जगह लड़की को कुचलने के लिए लड़के नहीं बैठे होते. वो तो कहीं-कहीं होते हैं, पर हर जगह जो लड़की के साथ रहता है, वो है कुचले जाने का डर. लड़की शारीरिक ताकत में लड़कों से नहीं जीत सकती, मगर उस डर से ज़रूर जीत सकती है. और हमें उसे हर वो ट्रेनिंग देनी होगी, जिससे वो उस डर से जीत सके, निर्भय होकर जी सके. कराटे उनमें से एक है.”
उसके बाद से शारीरिक और मानसिक रूप से सशक्त बनने की मेरी और मेरी बेटी की सम्मिलित मुहिम को कभी विराम न लगा.
आख़िर वो दिन भी आ पहुंचा, जिसके लालच में बेटी ने कराटे क्लास ज्वाइन किए थे.
ऐडवेंचर कैम्प का फार्म हमारे सामने था और मुझे बेटी से किया वादा निभाना था. पूरा पढ़ने के बाद पति ने हस्ताक्षर करने से साफ़ मना कर दिया और शुरू हुआ शायद शादी के बाद का पहला युद्ध.
कुछ देर बात शांति से चली फिर झल्लाहट आ ही गई इनकी आवाज़ में.
“ओ हो! तुम कैसे बच्ची के साथ बच्ची बन गई हो? देखती नहीं समाचारों में कि लडकियां कितनी असुरक्षित हैं? इतनी कच्ची उम्र की लड़की को कैसे ऐसी जगह कैम्प में भेजा जा सकता है? तुमने आंकड़े सुने नहीं? हर आठ मिनट पर एक…
“सुने हैं.” मैंने बात बीच में ही काट दी. मेरी आवाज़ में सख़्ती भी थी और वेदना भी.
“हर आठ मिनट पर एक बलात्कार हो रहा है. ये आंकड़े तो बना लिए गए, पर हर एक मिनट पर आठ लड़कियां उस बलात्कार के डर से अपना वजूद, अपनी अस्मिता, अपनी आज़ादी, अपनी संतुष्टि, अपनी ख़ुशी, अपनी इच्छा से पिंजरे में क़ैद कर लेती हैं, उनके आंकड़े कौन गिनाएगा? उनकी तो कोई गिनती ही नहीं है.
हर कुछ मिनट पर एक दुर्घटना घट रही है. हाइवे, ट्रेन, हवाई जहाज कुछ भी तो सुरक्षित नहीं है. पर क्या हमने यात्रा करना छोड़ दिया? नहीं न? फिर क्यों और कब तक? कब तक हम सभीता बन कर जिएंगे? कब तक हम रोज़ मरेंगे? कब तक?.. ” और मैं फफक-फफक कर रो पड़ी. पति ने मेरा ये रूप पहली बार देखा था. वो समझ नहीं पा रहे थे कि मुझे हुआ क्या है.
आख़िर दो दिनों के अनवरत प्रयत्न के बाद मां-बेटी ने मिलकर इनको मना ही लिया था.

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कार कैम्प पहुंची, तो मेरी विचार श्रृंखला को ब्रेक लगा. दिल में आशंकाओं का समंदर हिलोरे ले रहा था. उसकी धड़कन मुझे ढोल-नगाड़ों की तरह सुनाई दे रही थी. उसके अध्यापक बाहर ही थे. वो तुरंत हमें बेटी के पास ले गए. हम धड़कते दिल से बेटी के कमरे में गए और एक ही दृश्य को दो लोगों ने दो नज़रिए से देखा. इन्होंने देखा कि उसके एक हाथ और एक पैर में प्लास्टर बंधा है. एक हाथ में पट्टी और चेहरे पर कुछ खरोंचे हैं. मैंने देखा कि रॉकिंग संगीत बज रहा था. बच्चे उसकी धुन पर नाच रहे थे और मेरी बेटी एक हाथ और एक पैर से ताल दे रही थी. उसके चेहरे पर उल्लास था.
“पेन किलर असर कर गई है. मेरा दर्द ख़त्म हो गया है और मेरे मम्मी-पापा भी आ गए हैं, इसलिए म्यूज़िक बंद करो और अपना-अपना काम शुरू करो.” बेटी के आदेशात्मक स्वर पर बच्चे नाटकीय अंदाज़ में सिर झुका कर बोले, “जो हुक्म निडर परी.” पति बेटी को गले से लगा कर रो पड़े. बेटी गर्वपूर्वक बताने लगी कि उसे चोट कैसे लगी. वो सबसे आगे थी. एक बड़ा-सा पत्थर था…
मैंने देखा कि उसके प्लास्टर पर रंग-बिरंगे अक्षरों में लिखा था, ‘निडर परी’… मेरी आंखों में भी आंसू छलक आए, पर ये आंसू ख़ुशी के थे, संतोष के थे, जैसे मुझे मेरी वर्षों की तपस्या का फल मिल गया हो. जैसे जिस खिलौने को पाने के लिए मैं जीवनभर तरसती रही, उसे मैंने अपने बच्चे को ख़रीद कर दे दिया हो.

भावना प्रकाश

 

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