रात भर रमा देवी अनवरत ध्यान करती रहीं. इस संसार का विधाता उन्हें इस परेशानी से निपटने का कोई-न-कोई मार्ग अवश्य बताएगा. पांच घंटों के पश्चात् जब रमा देवी ने अपनी आंखें खोलीं तो उनकी वृद्ध आंखें चमक रही थीं. उन्हें अपनी परेशानी का हल मिल गया था. अब जब तक वो जीवित हैं, कमज़ोर नहीं पड़ेंगी. प्यास लगने के कारण जब गला बुरी तरह सूखने लगा तो रमा देवी की नींद खुल गई.
उन्होंने कई महिलाओं को रोज़गार दिया. अरुणा एक बहन और सखी की भांति उसकी पथप्रदर्शक बन गई. रमा के सरल व्यवहार के सभी लोग कायल थे. जब भी किसी को उसकी सहायता की ज़रूरत होती तो वो फ़ौरन आगे बढ़कर मदद करती. अपनी तरह दुखी महिलाओं के दुख-दर्द को दूर करने के साथ वो उन्हें आत्मनिर्भर बनाने में भी पूरी मदद देती. पचास साल की होते-होते उसका स्वयं का मकान भी बन गया, जिसका नाम उसने शारदा देवी के नाम पर ‘मां शारदा निवास’, रखा था. जिस तरह शारदा देवी इंसानियत के धर्म को मानती थीं, उसी तरह रमा भी मानवता के धर्म को ही सर्वोपरी समझती थीं. यही कारण था कि उसके दरवाज़े से कोई भी खाली हाथ वापस न लौटता.
लावारिस बच्चों के रहने और पढ़ाई के लिए उसने अरुणा की मदद से एक बालघर की स्थापना की, जिसमें अनाथ बच्चों को आश्रय दिया गया. रमा का आशीर्वाद पाकर सब ख़शी-ख़ुशी लौटते. रमा ने दूसरों के जीवन में रंग भरने का काम शुरू किया, जिससे उसकी दुनिया भी सुनहरी आभा से भर गई. संघर्ष और पीड़ा का कोई धर्म, कोई मजहब नहीं होता, क्योंकि वो साझी होती हैं. एक कम पढ़ी-लिखी स्त्री ने अपने जीवन की हर क्षण मिटती संजीवनी से दूसरों के जीवन में नवप्रकाश की किरणों का मार्ग खोल दिया. उनके मानवता के प्रति समर्पण के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, जिसकी राशि से रमा ने गरीब बच्चों के लिए हायर सेकेंडरी स्कूल की स्थापना की, जिसमें गरीब बच्चों को निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी.
एक दिन अजय ने रमा को ख़बर दी कि उसके बेटे की शादी हो चुकी है. सुनकर रमा को थोड़ा सदमा तो लगा, क्योंकि वो मां थी और हर मां की तरह अपने बेटे के सिर पर सजे सेहरे में बेटे के मस्तक को चूमना चाहती है. पर दूसरे ही क्षण वो एकदम सामान्य हो गई. अब उसका परिवार बहुत विस्तृत हो चुका था, जिसके हर सदस्य का ध्यान रखना उसका पहला कर्त्तव्य था. कुछ दिनों के बाद जब नीरज के विवाह के प्रस्ताव आए तो नीरज ने लड़की पसंद करने का हक़ अपनी बुआ को दिया. उस समय रमा को लगा कि केवल जन्म देने से ही रिश्ते नहीं बनते, बल्कि वो प्यार एवं स्नेह से बनते हैं. उस दिन से उसके हृदय में जो दिनेश की याद थी, वो भी हमेशा के लिए मिट गई. एक सुंदर-सुशील कन्या से नीरज का विवाह बड़ी धूमधाम से किया था रमा ने.
रमा ने अपना सारा धन ज़रूरतमंदों पर ख़र्च किया. वो ख़ुद तो खादी के सादे वस्त्र ही पहनती थी. कभी रुपयों की आवश्यकता उसे महसूस ही नहीं हुई. एक दिन रमा को पता चला कि उसकी प्रतिष्ठा का अनुचित फ़ायदा उसके पति और बेटे द्वारा उठाया जा रहा है. काम करवाने के नाम पर वो दोनों लोगों से धन ऐंठ रहे थे. बीस वर्षों से उसने जो ईमानदारी का परचम लहराया था, आज उस पर उसके पति-बेटे ने कालिमा लगा दी थी. यह सब वो कतई बर्दाश्त नहीं करेगी. जिन्होंने उसे मझधार में अकेले थपेड़े खाने के लिए छोड़ दिया और कभी मुड़कर भी नहीं देखा, उन्हें आज उसके नाम की आवश्यकता क्यों आ पड़ी.
नहीं, अब मैं और सहन नहीं करूंगी, जिन लोगों से मेरा कोई रिश्ता ही नहीं है, उन्हें मैं आगे नहीं बढ़ने दूंगी. मन-ही-मन रमा देवी ने निश्चय किया.
रात भर रमा देवी अनवरत ध्यान करती रहीं. इस संसार का विधाता उन्हें इस परेशानी से निपटने का कोई-न-कोई मार्ग अवश्य बताएगा. पांच घंटों के पश्चात् जब रमा देवी ने अपनी आंखें खोलीं तो उनकी वृद्ध आंखें चमक रही थीं. उन्हें अपनी परेशानी का हल मिल गया था. अब जब तक वो जीवित हैं, कमज़ोर नहीं पड़ेंगी. प्यास लगने के कारण जब गला बुरी तरह सूखने लगा तो रमा देवी की नींद खुल गई. घड़ी की ओर देखा तो सुबह के पांच बज रहे थे. नित्य की भांति उन्होंने उठकर पौधों को पानी दिया, फिर स्नान करके पूजा-अर्चना करने चली गईं. फिर बालघर जाकर बच्चों को देखा. बच्चों को कार्यक्रम में आने का कहकर घर लौट आयीं. सात बज चुके थे और अरुणा उनका इंतज़ार कर रही थी.
दोनों ने मिलकर कार्यक्रम पर चर्चा की. फिर भविष्य की योजनाओं पर विचार-विमर्श हुआ. रमा देवी अपनी वसीयत करना चाहती थीं तो अरुणा ने अच्छे वकील से सलाह लेने को कहा. कुछ देर बाद उन्होंने अरुणा को आयोजन स्थल पर कार्यों का निरीक्षण करने के लिए भेज दिया. ठीक साढ़े दस बजे रमा देवी पार्क में जा पहुंची. उनको देखते ही सारे लोग खड़े होकर उनका अभिवादन करने लगे. वो भी सबका हालचाल पूछ रही थीं. श्वेत वस्त्रों में रमा देवी का मुख-मंडल ईश्वरीय आभा से आलोकित हो रहा था.
अरुणा ने पूछा, “ये श्वेत परिधान क्यों?” रमा देवी उत्तर देने ही वाली थीं कि इतने में पंडित जी भी आ गए. आयोजन स्थल पर एक मंच भी बना हुआ था, जिस पर हवन कुण्ड बना हुआ था. रमा देवी ने पंडित जी का हाथ जोड़कर अभिवादन किया और मंच पर जाने की प्रार्थना की. पंडित जी ने जाकर अपना स्थान ग्रहण कर लिया.
शशिभूषण और दिनेश भी आकर एक जगह बैठ गए. पंडित जी जब पूजा आरंभ करने लगे तो रमा देवी अचानक खड़ी हो गईं और उन्होंने अपनी बात कहनी शुरू की, “सर्वप्रथम तो मैं आप सबकी बहुत आभारी हूं कि आप सबने अपने क़ीमती समय में से मेरे लिए व़क़्त निकाला. इस आयोजन को लेकर सबमें भ्रम की स्थिति व्याप्त है, पर मैं सही बात आप लोगों से कहना चाहती हूं. आज न तो मेरा जन्मदिन है और न ही किसी भवन का उद्घाटन और न ही मेरी प्रतिष्ठा का प्रदर्शन- मेरा जो कुछ भी है, वो तो सब आप लोगों का ही है. अब मेरे लिए मानवता से बढ़कर कोई चीज़ नहीं है, लेकिन कुछ भूली-बिसरी यादों ने मेरे जीवन में उथल-पुथल मचा दी है, जिसके कारण मुझे बहुत ही वेदना हो रही है. आज इस वेदना का मैं अंत कर रही हूं, जिसके साक्षी आप सब आज बनेंगे. ऐसे रिश्तों का विसर्जन करने के लिए पितृपक्ष से अच्छा अवसर कहां हो सकता है. आज मैं अपने पति और बेटे के रिश्ते का तर्पण करती हूं.” इतना कहकर रमा देवी पूजा में भाग लेने लगीं और उपस्थित जनसमुदाय उनकी प्रशंसा करने लगा.
जैसे ही पूजा समाप्त हुई, सब लोग भोजन का आनंद लेने लगे, सिवाए दो लोगों के जो पैर पीटते हुए और रमा देवी को कोसते हुए आयोजन स्थल से बाहर चले गए. आज रमा देवी बेमानी रिश्तों के बोझ से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पा चुकी थीं. उनकी आज़ादी के क्षणों में उनकी ख़ुशी बांटने के लिए अरुणा उनके साथ थी.
– दीपाली शुक्ला
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