“आपने मुझ पर भरोसा नहीं किया न...” रोहित की सांस भी धौंकनी-सी चल रही थी. गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी थी. मैं दरवाज़े के दोनों हैंडल पकड़े खड़ी थी. रोहित साथ चलने लगा था. “नंदिताजी, आपकी वो मैं धरती तू आकाश वाली कविता पढ़ी और वो हाहाकार भी. आपकी लेखनी में धार है.” गाड़ी की गति बढ़ चुकी थी. मेरी सांस की धौंकनी भी अभी थमी नहीं थी, रोहित बोले जा रहा था, “आपकी वो कहानी... कांधा और वो मैं भई रे कुंती... आपसे बहुत बात करना चाहता था. आपने फोन नहीं उठाया. सुबह से इस प्लेटफॉर्म पर घूम रहा हूं.''
इसी बीच शीतांशु का फोन भी आया और उसके बाद फिर से फोन बजा. रोहित का ही था. मैंने इस बार भी फोन नहीं उठाया, बस स्क्रीन को देखती रही. ट्रेन चलने में 15 मिनट का समय था. पर ये कोच के दरवाज़े क्यों नहीं खुले. मुझे झल्लाहट होने लगी. आधा घंटा पहले तो खुल जाते हैं... रोहित के अंतिम मिस कॉल को देखकर सोचा कि पिछले 48 घंटों से वो फोन कर रहा है, अब उसे कह देती हूं कि मैं जा रही हूं. मैंने रोहित को फोन किया, “रोहित! मैं जा रही हूं. ट्रेन चलने में 15 मिनट हैं.” उधर से रोहित घबराहट में पूछ रहा था, “लेकिन आप हैं कहां?”
“आप कहां हैं?” मैंने ज़रा व्यंग्यात्मक शैली में प्रत्युत्तर किया.
“आपके ए कोच के सामने...” रोहित बोल रहा था.
मैंने प्लेटफॉर्म पर नज़र घुमाई, तो मुझे कोई दिखाई नहीं दिया.
“आपका रिज़र्वेशन सुपरफास्ट में है या रणकपुर एक्सप्रेस में?”
“क्या मतलब?” अब चौंकने की बारी मेरी थी.
“मैं आपकी सीट के सामने खड़ा हूं. प्लेटफॉर्म नं. 4 पर.” तो क्या मेरे शहर के लिए आज के दिन दो गाड़ियां जाती हैं... मैंने तो गाड़ी नं. मिलाया ही नहीं था. मैंने पास खड़े यात्री से पूछा, तो उसने बताया कि यह गाड़ी तो एक घंटा बाद जाएगी. इससे पहले 4 नं. प्लेटफॉर्म से सुपरफास्ट जाएगी. गाड़ी छूटने में स़िर्फ 5 मिनट हैं... फोन रखा. बैग कंधे पर टांगा. वैभव का हाथ कसकर पकड़ा और सबवे की तरफ़ दौड़ लगा दी. मुझे अपनी मूर्खता पर अफ़सोस हो रहा था.
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मैं भाग रही थी कि सबवे में सामने से रोहित पसीने में लथपथ भागता आ रहा था. वो मुझे ढूंढ़ते हुए दूसरे प्लेटफॉर्म पर जा रहा था. मैं प्लेटफॉर्म की सीढ़ियां चढ़ते हुए सोच रही थी कि रोहित यहीं था. यही गाड़ी है, कोच ए... भागते-भागते ठेलेवालों से मैं पूछ रही थी. हां... हां... आगे... बीच में... इतने में ही पीछे से मेरे सूटकेस को किसी ने पकड़ लिया. मुड़कर देखा वो रोहित था. “हां यही कोच है. सीट नं. 9. जल्दी चढ़िए. टाइम हो गया है.” पहले वैभव को चढ़ाया, फिर ख़ुद चढ़ी. रोहित ने सूटकेस अंदर डाला. मैंने दरवाज़े पर खड़े होकर पीछे देखा. गार्ड हरी झंडी दे रहा था. गाड़ी सीटी दे चुकी थी. मैं हांफ रही थी और रोहित भी हांफ रहा था.
“आपने मुझ पर भरोसा नहीं किया न...” रोहित की सांस भी धौंकनी-सी चल रही थी. गाड़ी प्लेटफॉर्म छोड़ने लगी थी. मैं दरवाज़े के दोनों हैंडल पकड़े खड़ी थी. रोहित साथ चलने लगा था. “नंदिताजी, आपकी वो मैं धरती तू आकाश वाली कविता पढ़ी और वो हाहाकार भी. आपकी लेखनी में धार है.” गाड़ी की गति बढ़ चुकी थी. मेरी सांस की धौंकनी भी अभी थमी नहीं थी, रोहित बोले जा रहा था, “आपकी वो कहानी... कांधा और वो मैं भई रे कुंती... आपसे बहुत बात करना चाहता था. आपने फोन नहीं उठाया. सुबह से इस प्लेटफॉर्म पर घूम रहा हूं. अरे हां! ये वैभव के लिए...” उसने एक चॉकलेट का पैकेट मेरी ओर बढ़ा दिया. रोहित गाड़ी के साथ चल रहा था. गाड़ी की बढ़ती गति को देखकर मैंने उसे पीछे हटने का
इशारा किया. मैंने अलविदा के अंदाज़ में अपना हाथ हिलाया, तो रोहित का मिलाने को आतुर हाथ बहुत दूर रह गया था. मेरी आंखें नम हो आई थीं. मेरा मन बुदबुदा रहा था, “पाठक बहुत अच्छे होते हैं.” प्लेटफॉर्म छूट चुका था. आज मेरा दर्प की झिल्ली में लिपटा मन झिल्ली फाड़कर बाहर आ चुका था, जो यह कहने को फड़फड़ा रहा था- “रोहित! तुम कब आओगे?”
संगीता सेठी
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