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कहानी- प्रतिरूप तुम्हारा (Story- Pratirup Tumahara)

मां! जीवन के कुछ अनुभव अकथनीय और अवर्णनीय होते हैं. बताते समय शब्द ढूंढ़ने पड़ते हैं. एक स्त्री ही स्त्री की पीड़ा समझ सकती है. एक दिन मैं बहुत विकल थी. हर स्त्री ईश्‍वर प्रदत्त जिस प्राकृतिक धर्म से दो-चार होती है न, मैं उसी दशा में बिस्तर पर निश्‍चेष्ट पड़ी थी. चादर में दाग़ लग गया था. प्रिया के अलावा घर में दूसरा कोई नहीं था. न चाहते हुए भी मुझे लाचार होकर एक प्राकृतिक सत्य असमय अपनी बेटी को बताना पड़ा. वो चुप थी, आंखों में था अपार कौतूहल… हाथ यंत्रवत् वही कर रहे थे, जो मैं कह रही थी. वो सहसा गंभीर हो उठी थी, मानो बचपन की देहरी लांघ किशोरावस्था में पांव धर दिया हो.

बारह वर्ष से भी अधिक हो गए तुम्हें इस धरा से विदा हुए… पर क्षण मात्र को भी तुम मेरे हृदय से, मेरी स्मृति से दूर नहीं हुई हो. आज भी सामने की दीवार पर लगी तुम्हारी बड़ी-सी तस्वीर ममता के एहसास से भर देती है. बड़ी-बड़ी ममतामयी हंसती आंखें मानो आज भी अंक में समेटने हेतु बांहें पसार कर बुलाती हैं. तुम्हें हमेशा महसूस करती रही हूं… और सच बताऊं… पिछले तीन महीनों से तुम्हें प्रत्यक्ष देख भी रही हूं.
आज महीनों बाद पूरे घर में धीमी चाल से घूम रही हूं. कभी खिड़की पर खड़ी होकर सड़क पर तेज़ी से भागती दुनिया को देख रही हूं, तो कभी घर का हर कमरा, अपना रसोईघर, पूजाघर, ड्रॉइंगरूम, बच्चों का कमरा देख-देखकर हर्षित हो रही हूं.
काश! तुम होती, तो देखती, महीनों से अपार कष्ट झेला है मैंने. ईश्‍वर किसी शत्रु को भी ऐसी पीड़ा न दे. किसी भी विकट परिस्थिति में हार न माननेवाली तुम्हारी इस बेटी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वो एक दिन इस तरह लाचार और विवश हो जाएगी कि एक ग्लास पानी के लिए भी दूसरों का मुंह देखना पड़ेगा. जीवन की तेज़ गति के साथ ताल से ताल मिलाकर चलता इंसान मन में कई स्वप्न, कई उम्मीदें, कल की आशाएं और इंद्रधनुषी विचार समेटे गतिमान रहता है, पर सहसा नियति एक तुरुप चाल चलती है और जीवन एक संकरे दुर्गम मोड़ पर पंगु की भांति ठिठक-सा जाता है.
जीवन के इसी दुष्कर और पीड़ा से पाषाण बना देनेवाले मोड़ पर मैंने कई भीषण दिन-रात गुज़ारे हैं मां! जड़ होकर निश्‍चेष्ट… स्पंदनरहित भाव से, पर मेरी मुट्ठी में मोती की तरह कुछ अलौकिक, मधुर संवेदनाओं से ओतप्रोत क्षण आज भी बंद हैं. मुट्ठी खोलकर हथेली निहारती हूं, तो आत्मिक आनंद की ऐसी अनुभूति होती है, जो अनिर्वचनीय है. काश! तुम होती, तो मैं अपनी इस विलक्षण अनुभूति को तुमसे बांटती, जिसके दो रूप हैं, एक अपार कष्टकारी, तो दूसरा स्नेहिल समर्पण और आह्लाद से भरा.
आजीवन उस कठिन क्षण को भुला नहीं पाऊंगी, जब कमर और पीठ के तीव्र असहनीय दर्द ने पीड़ा से दोहरा बना डाला था. डॉक्टर को दिखाने पर पता चला कि मैं ‘स्लिप डिस्क’ जैसी बीमारी के घेरे में फंस चुकी हूं. जब डॉक्टर ने कहा कि मुझे तीन महीने तक बिस्तर पर सीधा लेटना होगा, करवट बदलना भी मेरी व्यथा को दोगुना कर सकता है और आराम किए बिना न तो दवा कारगर सिद्ध होगी, न ही अन्य कोई विकल्प, तो मेरे सिर पर मानो आसमान टूट पड़ा था. हे ईश्‍वर! अब क्या होगा? मैं बिस्तर पकड़ लूंगी, तो मेरा घर-परिवार कैसे चलेगा? पर दर्द की तेज़ धार ने बिस्तर पकड़ने पर मजबूर कर ही दिया.
फिर शुरू हुई नई-नई यंत्रणाओं की न शृंखलाएं, दवाएं, इंजेक्शन, सेंक, तरह-तरह के अंग्रेज़ी-स्वदेशी उपाय, पीड़ा और अवसाद के घने कोहरे से भरा कठिनतम समय.
थोड़ा-सा कंपन भी रोम-रोम कंपा देता था. प्रत्यक्ष अनुभव किया है मां! अगर पलभर को भी हिलना असंभव प्रतीत होता है, तो व्यक्ति कितनी दारुण नारकीय यंत्रणाएं भोगने पर विवश हो जाता है.
कहते हैं, बुरे समय में अपनी छाया भी साथ छोड़ देती है, पर मेरे कठिनतम समय में वो छाया की तरह मेरे साथ लगी रही. बिस्तर पर लगभग मृतप्राय पड़ी, निर्निमेष दृष्टि से छत को निहारती यदि मैं गहरे अंतर्दाह से जूझ रही थी, तो मेरी वेदना को महसूस करके वो भी विकल हो रही थी. उसकी भोली आंखों और मासूम चेहरे पर मेरी पीड़ा स्पष्ट प्रतिबिंबित होती दिखती थी.
“बस, एक कौर और खा लो, तुम्हें मेरी क़सम!” कहकर मनुहार से खाना खिलाने वाली, मेरे नहीं खाने पर तुम्हारी तरह मीठी झिड़कियां देकर झूठा क्रोध दिखानेवाली और सारी दवाएं एकदम समय पर देनेवाली तुम्हारी बारह वर्ष की नातिन प्रिया कितनी समझदार हो गई थी, तुम्हें ये कैसे बताऊं?
ये निर्विवाद सत्य है कि जब मनुष्य किसी संकट में फंसा हो या किसी दुष्कर पीड़ा से जूझ रहा हो, तो उसे अपनी मां बहुत याद आती है. मुझे भी तुम बहुत याद आती थी मां! गर्दन उठाने या हिलाने में भी मैं पीड़ा से दोहरी हो जाती थी. ऐसे में कटोरे में रोटी-दूध, दाल-रोटी या चावल-दाल मसलकर प्रेम और धैर्य से एक-एक चम्मच मेरे मुंह में डालती, तौलिया भिगोकर मेरा शरीर पोंछती वो अचानक तुम्हारे रूप में ढल जाती. रात में मेरी बगल में सोई मेरी बेटी मेरी एक धीमी-सी पुकार पर या करवट बदलते समय दर्द के कारण निकली आह पर चौंक कर उठ जाती थी.
“क्या हुआ मां? बहुत दर्द हो रहा है क्या? दवाई पीठ पर मल दूं… पापा को उठाऊं? पानी लाऊं क्या?” कई प्रश्‍न उसके नन्हें अधरों से चिंता का रूप धर फूट पड़ते, तो मेरा मौन रुदन मुझे भीतर तक आहत कर जाता. मुझे आश्‍चर्य होता, कहां गई इसकी गाढ़ी निद्रा, जो बार-बार पुकारने और झकझोरने पर भी नहीं टूटती थी.
बिस्तर पर निश्‍चेष्ट पड़ी रहने की दुष्कर लाचारी में मेरी स्मृति में केवल तुम ही थी मां. मेरी मर्मांतक वेदना का पारावार न था, क्योंकि बाज़ार में उपलब्ध नित्यक्रिया के निमित्त तैयार उपकरण, जो बिस्तर पर ही उपयोग किए जाते हैं, मेरे लिए एक आवश्यकता बन गए थे. तुम होती, तो तुम्हारा रोम-रोम कांप उठता मां! उस क्षण भी मेरी बेटी के मुख पर विषाद, घृणा या चिढ़ की वक्र रेखाएं नहीं, अपार धैर्य और सेवा भावना का ही साम्राज्य रहता था. जिस तरह कोई चंदन और फूलों से भरा थाल उठाता है, वैसे ही वो शांत चित्त से एक योग्य परिचारिका की तरह दिन-रात में कई बार ‘बेड पैन’ उठाकर फेंक दिया करती थी. ऐसी कठिन सेवा केवल जन्मदात्री मां ही कर सकती है या फिर कोखजयी बिटिया… दूसरा कोई नहीं.
कहने को तो ससुराल में भरा-पूरा परिवार है मेरा, पर इस कठिन समय में सबने मुंह मोड़ लिया. किसी न किसी व्यस्तता का बहाना बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया. हां, सैकड़ों आश्‍वासन और उपाय ज़रूर सुझा दिए. तुम्हीं कहती थी न, कठिन समय में रुपया ही मित्र बनकर मदद करता है, यही हुआ. घर का काम और खाना बनाने के लिए नौकरानी रख ली गई और मेरी सेवा के लिए प्राणार्पण के साथ तुम्हारी नातिन थी न.
मां! जीवन के कुछ अनुभव अकथनीय और अवर्णनीय होते हैं. बताते समय शब्द ढूंढ़ने पड़ते हैं. एक स्त्री ही स्त्री की पीड़ा समझ सकती है. एक दिन मैं बहुत विकल थी. हर स्त्री ईश्‍वर प्रदत्त जिस प्राकृतिक धर्म से दो-चार होती है न, मैं उसी दशा में बिस्तर पर निश्‍चेष्ट पड़ी थी. चादर में दाग़ लग गया था. प्रिया के अलावा घर में दूसरा कोई नहीं था. न चाहते हुए भी मुझे लाचार होकर एक प्राकृतिक सत्य असमय अपनी बेटी को बताना पड़ा. वो चुप थी, आंखों में था अपार कौतूहल… हाथ यंत्रवत् वही कर रहे थे, जो मैं कह रही थी. वो सहसा गंभीर हो उठी थी, मानो बचपन की देहरी लांघ किशोरावस्था में पांव धर दिया हो.
तुम मेरी पीड़ा का अनुमान लगा सकती मां, अगर तुम होती. तुम्हारी बहुत याद आती थी मां! बहुत! जब तक मैं ख़ुद बाथरूम जाने लायक नहीं हो गई, वो पिता के लाख समझाने पर भी स्कूल नहीं गई. धीरे-धीरे मेरा दर्द घटने लगा था. फिर भी कई ऐसे दर्द थे, जो चुभते रहते थे, जैसे अपना पराश्रित होना. जब प्रिया स्कूल और उसके पापा ऑफ़िस जाते, तो बाहर से ताला लगाकर जाते, टेबल पर दवा-पानी, ज़रूरत की अन्य चीज़ें प्रिया सहेजकर जाती और तब, जब डाकिया कोई चिट्ठी या पत्रिका डाल जाता और मैं बिस्तर पर लेटी, तब तक प्रतीक्षा में रहती, जब तक कि कोई आकर, ताला खोलकर उठा कर दे नहीं देता था.
कई बार जब मैं गहरी सोच में डूब जाती, तब तुम बहुत याद आती… मधुमेह और उच्च रक्तचाप के कारण तुम प्रायः बीमार ही रहती थीं. आंगन में फिसलकर गिर जाना एक बहाना हो गया था मृत्युद्वार तक जाने का. दिन-रात असह्य पीड़ा से कराहती तुम्हारी सेवा मैं पूरे जतन से करती थी, पर मेरे भीतर की खिन्नता और थकान कभी-कभी मेरी वाणी से फूट ही पड़ते थे. कई बार मैं तुम्हें झिड़क देती थी, ज़ोर से डांट देती थी. मन में कोई दुर्भावना न होते हुए भी अप्रसन्न होकर की गई सेवा व्यर्थ हो जाती है, इस महत्वपूर्ण बात को मैं अब जान पाई हूं. प्रिया का धैर्य, उसकी मुस्कान, प्रसन्न भाव से की गई सेवा के आगे ख़ुद को प्रायश्‍चित के योग्य समझने लगी हूं. तुम्हारी कही एक बात बार-बार मन में कौंध रही है कि सेवा का अंत प्रीति में होता है और प्रेम का ही क्रियात्मक रूप प्रसन्न भाव से की गई सेवा है.
ये प्रिया की तपस्या का ही फल था, जो मैं दीपावली के दिन स्वयं उठकर लड़खड़ाती हुई ही सही, पूजा का दीप प्रज्ज्वलित कर पाई. “मां! देख रही हो, तुम ख़ुद चलकर आई हो. मैं कहती थी न, तुम ठीक हो जाओगी.” प्रिया की ख़ुशी का पारावार नहीं था. उस क्षण जब उसे गले लगाया था न, तब भी तुम मुझे बहुत याद आई. ऐसा लगा जैसे मैंने उसे नहीं, उसने तुम्हारा रूप धरकर मुझे कलेजे से लगाया हो. आज एक बात बार-बार याद आ रही है. दो बेटियों के बाद परिवार पूरा समझकर हम पति-पत्नी तो ख़ुश थे, संतुष्ट थे, पर हमें परिवार और समाज की अनचाही सहानुभूति और सीख से दो-चार होना ही पड़ता था. मेरी बड़ी ननद व्यंग्य से हंसती. एक श्‍लोक बार-बार दोहराया करती थी, “सा नारी धर्मभागिनी या नारी पुत्रिणी भवेत्।” न पूछने पर भी अर्थ बताना मानो अपना दायित्व
समझती थीं.
“दुलहिन! पुत्रवती नारी ही धर्मभागिनी हो सकती है, अन्यथा उसका जीवन बेकार है. अरे! बेटा ही तो ‘पुन’ नामक भीषण नरक से माता-पिता का उद्धार करता है. शास्त्रों की व्याख्या नहीं सुनी कभी? पुनात् त्रायते सः पुत्रः, दो बेटियों पर ऑपरेशन करवा लिया! मूर्ख कहीं की.”
पहले मैं उनकी बातें हंसकर झेल जाती थी. पर इस बार जब मिलने आएंगी न, तब पूछूंगी, मृत्यु के बाद मिलने वाले स्वर्ग या नरक की तो केवल कल्पना ही की जा सकती है, पर इस धरती पर कई नरक होते हैं. उन्हीं में से एक है, बिस्तर पर लाचार मृतप्राय पड़े होने पर उपस्थित हुआ भीषण नरक… जो सहन करनेवाले की आत्मा को तीखी आरी की तरह काटता है. क्या इस नरक से एक बेटा उबार सकता था मुझे? वेदना का वो कठिन काल अब बीत चुका है, पर मेरी आत्मा ने कई अमूल्य, अलौकिक सत्यों का साक्षात्कार किया है. प्रार्थना एक कल्पवृक्ष है, ये उसी समय जाना. मैं मन ही मन ईश्‍वर को पुकारती रहती, मुझे इस पीड़ा को सहने की शक्ति दो प्रभु! और मेरे रोम-रोम में आशा का संचार हो उठता. अकेलापन, मौन, स्थिरता कितनी बड़ी शक्तियां हैं, ये भी उन्हीं पलों में अनुभव किया. जीवन की दौड़ में तो मैं अपना स्वत्व न जाने कहां खोती चली जा रही थी.
मां! सच कहती हूं, इन्हीं दुष्कर क्षणों में जीवनसाथी का सहयोग, समर्पण और प्रेम भी विराट स्वरूप में अनुभव किया. एक ग्लास पानी के लिए भी मुझे ही पुकारनेवाले मेरे पति ने कई बार खाना बनाकर मनुहारपूर्वक मुझे खिलाया है. उन टेढ़ी-मेढ़ी रोटियों का अद्भुत स्वाद क्या कभी भुला सकूंगी? “मैं हूं न!” उनके इन तीन शब्दों ने सदा मेरी आत्मा को झंकृत किया है. तुम्हारी कही एक और बात सही साबित हुई कि पीड़ा के पलों में प्रकृति का गुप्त वरदान छिपा होता है. वैसे प्रकृति का सबसे अनमोल वरदान है, बिटिया. मैंने भी तो अपनी बेटी की मदद से एक कठिन युद्ध जीता है.
अब चमड़े का भारी बेल्ट कमर में बांधकर चलने का अभ्यास हो चुका है. फिज़ियोथेरेपिस्ट द्वारा बताए गए व्यायाम करने में भी अभ्यस्त हो चुकी हूं. धीरे-धीरे जीवन अपनी धुरी पर फिर से पहले जैसा गतिमान होता जा रहा है.
ओह! लगता है कॉलबेल बज रही है. तीन बज गए हैं न, तुम्हारी नातिन स्कूल से आ गई होगी.
जैसे ही दरवाज़ा खोलूंगी, एक साथ कई सवाल पूछेगी, कैसी हो मां? समय पर दवा खा ली थी न? खाना खाया? कमर में दर्द तो नहीं? ज़्यादा भाग-दौड़ नहीं की न?
फिर… मेरी प्रिया की भोली मासूम आंखें, आशीष छलकाती तुम्हारी ममतामयी आंखों में बदल जाएंगी… और सहसा उसमें कौंध उठेगा, प्रतिरूप तुम्हारा…!

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 डॉ. निरुपमा राय

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