educating children with learning disabilities

लर्निंग डिसेबिलिटी: बेहद ख़ास होते हैं ये बच्चे, इन्हें सिखाने के लिए इनके दिमाग़ नहीं, दिल तक पहुंचना होता है… अनुराधा पटपटिया, फ़ाउंडर-डायरेक्टर- REACH (‘Educating The Mind Without Educating The Heart Is No Education At All, Because Teaching Comes From The Heart Not The Head’ Anuradha Patapatia, Founder/Director- REACH)

जिनकी मासूम आंखों में कई भोले-से सपने पलते हैं, जिनकी एक मुस्कान से कई उदास चेहरे भी खिल उठते हैं… जिनकी कोमल छुअनसे दिल के ज़ख़्म भी भर जाते हैं… वो बच्चे जब समाज के नियम-क़ायदों से कुछ अलग होते हैं तो खुद ही सहम जाते हैं… लेकिन ये बच्चे ख़ास होते हैं, ऐसे ख़ास बच्चों में खूबियां भी ख़ास होती है जिनकी उभारने के लिए उनको आम बच्चों से कुछ अलग तरह सेसिखाने-पढ़ाना पड़ता है, क्योंकि इनको आगे बढ़ाने के लिए इनके दिमाग़ नहीं, दिल तक जाना पड़ता है. ऐसे ही स्पेशल बच्चों के लिए स्पेशल काम कर रही हैं अनुराधा पटपटिया. ये एक ऐसा नाम है जिन्होंने ऐसे ही खास बच्चों के दिलों मेंअपनी खास जगह बनाई है, क्योंकि उन्होंने इनके दिलों को छुआ है. आज वो REACH (रेमेडियल एजुकेशन एंड सेंटर फ़ॉर होलिस्टिकडेवलपमेंट) की फ़ाउंडर और डायरेक्टर हैं, जो स्पेशल चाइल्ड एजुकेशन और उनके संपूर्ण विकास के लिए खड़ा किया गया है. लेकिन येसफ़र अनुराधा जी के लिए भी आसान नहीं था. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ़ मेहनत की, बल्कि मज़बूत इच्छा शक्ति, जोश, जुनून और जज़्बा क़ायम रखा.  कैसा रहा उनका ये सफ़र और क्या-क्या करने पड़े संघर्ष ये जानने के लिए हमने खुद अनुराधा जी से बात की…  पहला और सीधा सवाल- शुरुआत कहां से हुई और ये ख़याल कैसे पनपा कि ऐसा कुछ करना है? शुरुआत हुई जब मैंने साल 1996-98 के दौरान हैदराबाद में मदर टेरेसा के यहां काम करना, सोशल वर्क करना शुरू किया. मेरे पतिका जॉब ऐसा था जिसमें उनका ट्रान्स्फ़र होता रहता था इसीलिए मुझे भी अपना बैंक का जॉब छोड़ना पड़ा, लेकिन घर पर बैठने की मुझे आदत नहीं थी और मुझे कुछ न कुछ करना ही था इसलिए मैंने उनके स्पेशल चाइल्ड स्कूल में काम करना शुरू कर दिया. वहां मेरा कामथा स्पेशल चाइल्ड को एडमिशन में हेल्प करना और ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ़ टाइम पास के लिए ये काम कर रही थी. वहां भी मैं नियमित रूप से पूरे डेडिकेशन के साथ अपना काम करती थी. तब मैंने इन बच्चों को क़रीब से देखा और मुझे ये पता चला कि स्पेशल चिल्ड्रन कोजो टीचर्स पढ़ाते हैं वो दरअसल ट्रेंड होते हैं, स्पेशल एजुकेशन में बीएड किया जाता है और इसके लिए अलग से कोर्स करना पड़ता है. तब मुझे ख़याल आया कि मुझे भी इन बच्चों के साथ जुड़ना है और इनके लिए काम करना है.  फिर मैं मुंबई आई, तक़रीबन 1998-99 में और चूंकि मुंबई में कम्फ़र्टेबल थी तो यहां आकार मैंने पता किया. एसएनडीटी में ये कोर्सहोता था और मैंने जॉइन कर लिया. मैं तब 42 साल की हो चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे भी बड़े हो गए थे तो इसलिए मुझे लगा ये सहीसमय है कुछ करने का और सिर्फ़ समय बिताना मेरा मक़सद नहीं था, मुझे वाक़ई में कुछ करना था और कुछ बेहतर करने के लिए ज़रूरीथा कि क्वालिफ़ायड होकर करूं बजाय ऐसे ही समय बिताने के. वैसे भी एसएनडीटी मुंबई यूनिवर्सिटी से जुड़ा था तो कोई एज बार नहींथा और ये एक साल का कोर्स था. काफ़ी डिफ़िकल्ट था, क्योंकि ये फुल टाइम कोर्स था और बच्चे मेरे भले ही बड़े थे लेकिन पढ़ाई कररहे थे. पर घरवालों और मेरे मां के सपोर्ट से मैंने ये कोर्स पूरा किया. इसे करने के बाद मुझे एक दिशा मिली क्योंकि मैं अब समझ पा रही थी कि रेमेडियल थेरपी क्या होती है, किस-किस तरह की होती है. साल 2002 में मैंने ये पक्का कर लिया कि घर पर जो 2-4 बच्चे मेरे पास आते थे उनके लिए और उनके जैसे अन्य बच्चों के लिए एकअलग से जगह होनी चाहिए ताकि हम बेहतर ढंग से उनको पढ़ा पाएं. मैंने एक छोटी सी जगह ली और एसएनडीटी से भी मेरे पास स्पेशल बच्चे आते थे और फिर बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. साल 2004 मेंमैंने अपने साथ मेरी एसएनडीटी की साथी जो मुझसे 20 साल छोटी थी, क्योंकि मैं तब खुद 42 साल की थी, तो वो भी मेरी ही तरहकाफ़ी उत्साहित थी इस काम को लेकर, उसका नाम हीरल था तो उसको भी जोड़ा अपने साथ ताकि लर्निंग डिसएबिलिटी वाले बच्चों केलिए हम बेहतर काम कर सकें. धीरे-धीरे अन्य लोग भी जुड़ने लगे.  लर्निंग डिसेबिलिटी का अगर अर्थ देखने जाएं तो उसका मतलब यही है कि वो लर्न यानी सीख सकते हैं लेकिन अलग तरीक़े से. अगरआप सीधे-सीधे उनको बोर्ड पर या पेन-पेंसिल से लिख कर या बोलकर पढ़ाओगे तो वो नहीं समझेंगे लेकिन अगर आप उनको ब्लॉक्स दिखा कर या अन्य तरीक़े से समझाएंगे तो वो सीख जाएंगे. वो मूल रूप से काफ़ी इंटेलिजेंट होते हैं और कई-कई तो बहुत क्रीएटिव होते हैं. कई बच्चों का आईक्यू लेवल बहुत हाई होता है तो उनको अलग तरह से सिखाना पढ़ता है. लेकिन समस्या ये थी कि जागरूकता नहीं थी. स्कूल्स में ऐसे बच्चों को समझा नहीं जाता था और वो एडमिशन नहीं देते थे. पैरेंट्स परेशान रहते थे कि बच्चा बार-बार फेल हो रहा है, कितना भी सिखाओ सीखता ही नहीं. स्पेलिंग याद नहीं होती… पर अब काफ़ी जागरूकता आ चुकी है.  लेकिन हम उस वक्त भी वर्कशॉप्स करते थे. स्कूल्स में भी वर्क शॉप्स करते थे ताकि टीचर्स ये समझ पाएं कि ऐसे बच्चों को कैसे हैंडलकरना है. ये ज़रूरी था क्योंकि बार-बार बच्चे को डांट खानी पड़ती थी टीचर से भी और पैरेंट्स से भी. जिससे बच्चे सहम जाते थे. इनकामोरल डाउन हो जाता है. लेकिन इन बच्चों को अगर बार-बार सामान्य तरीक़े से स्पेलिंग सिखाओगे तो वो नहीं सीखेंगे, उनको आपकोशब्द ब्रेक करके, साउंड और प्रोनाउंसिएशन के साथ समझाकर सिखाना पड़ता है. इन सबके बीच आपको काफ़ी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा, तो उनसे कैसे डील किया?…

December 4, 2022
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