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बच्चों को भी सिखाएं रिश्ते निभाना

 

जैसे-जैसे जीवनशैली बदलती गई, एकल परिवार का चलन आया, व्यस्तता बढ़ी, बच्चे अकेले होते गए. नई जीवनशैली के हिसाब से उन्होंने ख़ुद को ढाल लिया, पर कहीं ये छूटते-टूटते रिश्ते बच्चों से भावनाओं की आद्रता भी तो नहीं ले गए? कहीं आत्मनिर्भरता के नाम पर हमने बच्चों को अकेलापन तो नहीं दे दिया? कहीं बच्चों ने इन रिश्तों की खाली जगह को अत्याधुनिक कंप्यूटर, मोबाइल, टीवी आदि जैसी मशीनों से तो नहीं भर दिया?

यह एक अलार्मिंग सिचुएशन है. हमें बच्चों को वापस इन रिश्तों के पास लाना होगा या यूं कहें कि उन्हें फिर से एक बार इन रिश्तों की अहमियत सिखानी पड़ेगी, नहीं तो आनेवाले दिनों में हम अपने बच्चों को एक सशक्त व्यक्तित्व नहीं दे पाएंगे.

क्यों ज़रूरी है बच्चों के लिए रिश्तों की अहमियत?

‘मैं’, ‘मेरा’, ‘मुझे’… आपने अक्सर बच्चों को आजकल इसी भाषा में बातें करते हुए सुना होगा. वे ना तो अपने खिलौने किसी के साथ बांटना चाहते हैं और ना ही कोई और चीज़.
अगर घर पर कोई रिश्तेदार या सगे-संबंधी आते हैं, तो वे अपने कमरे में ही रहना पसंद करते हैं.
किसी शादी या पारिवारिक सम्मेलनों में जाने से ज़्यादा वे गेम ज़ोन या मूवी में जाना पसंद करते हैं. आजकल देखने में आया है कि छोटे-छोटे बच्चे भी रिश्तेदारों से मेलजोल पसंद नहीं करते.
इन सभी परिस्थितियों में बच्चों को दोष नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके लिए कहीं ना कहीं हम ही ज़िम्मेदार हैं. बच्चे आज रिश्ते निभाना नहीं चाहते, क्योंकि हमने कभी उन्हें इनके महत्व के बारे में बताया ही नहीं. देखने में यह चाहे कोई बहुत बड़ी समस्या न लगती हो, पर क्या आप जानते हैं कि इसके दीर्घकालीन परिणाम आपके बच्चों के लिए कितने ख़तरनाक हो सकते हैं.
अगर बच्चे ऐसे ही रिश्तों से दूर भागते रहे, तो आनेवाले समय में वे बिलकुल अकेले हो जाएंगे.
उनको किसी भी रिश्ते में विश्‍वास नहीं रहेगा और ना ही वह किसी से प्रेम कर पाएंगे.
अपने दुख और तकलीफ़ के समय वे हमेशा अकेले ही रहेंगे.
इसका सीधा असर उनके वैवाहिक जीवन पर भी पड़ेगा, क्योंकि वहां पर भी उन्हें एक रिश्ता निभाना है और बिना प्रेम और विश्‍वास के यह रिश्ता तो चल ही नहीं पाएगा.
ऐसे बच्चों को आगे चलकर कई तरह की मानसिक असामान्यताएं भी हो सकती हैं, जैसे- भावनात्मक रूप से कमज़ोर होना या बहुत ज़्यादा भावुक होना, अवसाद या आत्मविश्‍वास की कमी होना.

कैसे सिखाएं बच्चों को रिश्तों की अहमियत?

यहां हम आपको कुछ आसान टेक्नीक्स बता रहे हैं, जिससे बच्चों को हम आसानी से रिश्तों के बारे में बता और समझा सकते हैं-

एक साथ मिलकर समस्याएं सुलझाएं

ऐसा कई बार होता है कि हम किसी काम में लगे होते हैं और बच्चे हमारे पास आकर कहते हैं कि ‘मां मेरा अमुक खिलौना नहीं मिल रहा है, क्या आपको पता है?’ इस पर अक्सर हमारा जवाब होता है कि ‘नहीं पता. अभी मुझे परेशान मत करो. ख़ुद ढूंढ़ो.’ आपको यह चाहे बहुत ही सामान्य लगे, पर यह तरीक़ा बिलकुल ही ग़लत है. इस केस में आप उससे कहिए कि “बेटा मुझे नहीं पता कि आपका खिलौना कहां है, पर हम दोनों अगर साथ में ढूंढ़ें, तो हमें वह ज़रूर मिल जाएगा.” फिर वह खिलौना तब तक ढूंढ़िए, जब तक कि वह मिल ना जाए. और जब वह खिलौना मिल जाएगा, तब उस बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी और आत्मविश्‍वास दोनों ही बढ़ जाएगा. ऐसा विश्‍वास हो जाने पर उसका आपके साथ के रिश्ते में विश्‍वास बढ़ जाएगा. साथ मिलकर किसी भी समस्या का निदान ढूंढ़ने से रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं.

सकारात्मक संवाद

हर काम में सकारात्मकता होना बहुत ज़रूरी है. हर रिश्ते को लेकर सकारात्मकता होनी चाहिए. आप तो अपना अवसाद निकालने के लिए या किसी क्षणिक परेशानी के कारण किसी व्यक्ति या रिश्ते को लेकर नकारात्मक बात करेंगे और भूल जाएंगे, पर बच्चा नहीं भूलेगा. ऐसा कई बार होता है कि हम किसी व्यक्ति विशेष की, जिससे हमारा क़रीबी संबंध है, उसकी बुराई बच्चे के सामने करने लगते हैं. बच्चा वह सब सुनता है और अपनी बुद्धि के हिसाब से नतीजों पर भी पहुंच जाता है. अगर इस तरह की बातें आपके घर में अक्सर ही होती हैं, तो वह रिश्तों से नफ़रत करने लगेगा. अत: इस बात का ध्यान रखें कि बच्चों के सामने किसी भी रिश्ते की बुराई ना करें. आप अपने रिश्तों की खटास को बच्चे के जीवन में ना उतरने दें.

भावनाओं का नियंत्रण

अपनी भावनाओं को सही तरी़के से दूसरों के सामने कैसे रखा जाए, यह बच्चों को बताएं. उन्हें समझाएं कि ग़ुस्से को नियंत्रित कैसे रखा जाए. 4 साल के ऊपर के बच्चों में भावनाएं विकसित होने लगती हैं. उन्हें प्यार और ग़ुस्सा जैसी भावनाएं अच्छे से समझ में आती हैं. ग़ुस्सा इनके लिए सबसे सुलभ अभिव्यक्ति का तरीक़ा होता है. अगर बच्चों को कुछ अच्छा नहीं लगता, तो वे ग़ुस्सा करते हैं, अगर वे अपनी बात मनवा नहीं पाते, तो वे ग़ुस्सा करते हैं, अगर कोई उनकी बात को समझ नहीं पाता, तो वे ग़ुस्सा होते हैं, बच्चों के पास तर्क और भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं होती, इसलिए वे हर बात पर ग़ुस्सा करते हैं, पर यही वह समय है, जब आपको उन्हें ग़ुस्से को काबू में करने के तरी़के सिखाने हैं. ऐसा इसलिए करना ज़रूरी है, क्योंकि ग़ुस्सा ही वह दीमक है, जो रिश्तों को चट कर जाता है. पहले तो क्रोध किसी रिश्ते को बनने ही नहीं देगा और अगर कोई रिश्ता बन भी जाता है, तो क्रोध की वजह से टिक नहीं पाएगा, इसलिए ग़ुस्से पर नियंत्रण बहुत ज़रूरी है, पर याद रखिए, यह बच्चों को डांट-डपटकर नहीं होगा, इसके लिए कुछ टेक्नीक्स हैं-
बच्चे को ग़ुस्सा आने पर 1 से 10 तक गिनती गिनने को कहें और अगर ज़रूरत पड़े, तो उससे भी ज़्यादा गिनने को कह सकते हैं.
ग़ुस्सा आने पर बच्चे को तुरंत पानी पीने की सलाह दें.
एक और तरीक़ा है, ग़ुस्सा आने पर बच्चे को ग़ुस्सा क्यों आया इस पर डांटने की जगह उसका ध्यान डायवर्ट करने की कोशिश करें, जैसे- उससे उसके स्कूल के बारे में कुछ पूछें या किसी पसंदीदा खिलौने के बारे में बात करें.
बच्चों को लंबी सांस लेने के लिए कहें. जितना आप बच्चे को उसका ग़ुस्सा नियंत्रित करना सिखाएंगे या यूं कहें कि उसके ग़ुस्से को सकारात्मक ऊर्जा में बदलेंगे, उतना ही उसमें धैर्य आएगा.

निर्भरता समझाएं

बच्चे पर समय-समय पर यह ज़ाहिर करते रहें कि किस तरह आप अपनी छोटी-बड़ी चीज़ों के लिए परिवारजनों पर निर्भर करते हैं. किस तरह माता-पिता, भाई-बहन, चाचा-चाची आदि सभी आपको आपके निर्णयों में या परेशानी के समय मदद करते हैं. उसे बताएं कि आपका परिवार के सदस्यों से बात करना या उनके साथ समय बिताना कितना अच्छा लगता है. उसे यह बताएं कि परिवार किसी के लिए कितना बड़ा सपोर्ट सिस्टम होता है.
ये सब तो कुछ महज़ टेक्नीक्स हैं, पर सबसे ज़रूरी है आपका अपना व्यवहार. बच्चे थ्योरी से कभी भी नहीं सीखते. वह बहुत अच्छे ऑब्ज़र्वर होते हैं. आप उसको रिश्तों के बारे में हज़ार सकारात्मक चीज़ें सिखाएंगे, पर अगर आप रिश्तों को लेकर नकारात्मक हैं, तो बच्चा भी रिश्तों को लेकर नकारात्मक ही रहेगा. आप ख़ुद ही अपने बच्चे के लिए रिश्तों की पहली पाठशाला हैं. आपका रिश्तों को लेकर सकारात्मक होना ही उसको कई सारे ख़ुशगवार रिश्तों से घेर देगा.

– माधवी निबंधे
Meri Saheli Team

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