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रिश्तों में अपेक्षाओं का घटता-बढ़ता दायरा (The Truth About Relationship Expectations)

कुछ दायरे हमने ख़ुद बुने होते हैं, कुछ दूसरे हमारे लिए तय कर देते हैं... कुछ परिवार, तो कुछ समाज... (Truth About Relationship Expectations)कुछ यार-दोस्त, तो कुछ सलाहकार... सब अपनी-अपनी सुविधानुसार हमारे लिए और हमारे रिश्तों के लिए बहुत कुछ तय करते हैं. इन्हीं के आधार पर हम भी अपने रिश्तों की हदें और अपेक्षाएं निर्धारित कर लेते हैं. समस्या तब आती है, जब हम अपने रिश्तों की और उन्हें जी रहे लोगों की समस्याओं को नज़रअंदाज़ कर मात्र अपनी सोच-समझ से अपनी अपेक्षाएं तय कर लेते हैं और जब वो पूरी नहीं होतीं, तो दुख का कारण बनती हैं. रिश्तों में इन्हीं घटते-बढ़ते दायरों की हम यहां चर्चा करेंगे, ताकि हमारे रिश्ते बेहतर और टिकाऊ बने रहें.

Truth About Relationship Expectations

अपेक्षाएं होना लाज़मी है: यह सच है कि रिश्ता है, तो उम्मीदें व अपेक्षाएं भी होगी ही. हम भले ही बड़ी-बड़ी बातें कर लें कि अगर सुखी रहना है, तो किसी से कोई अपेक्षा न रखो, लेकिन प्रैक्टिकली क्या यह संभव है? रिश्तों में अपेक्षाएं होती ही हैं, चाहे कम या ज़्यादा. तो अगर आप भी अपनों से कुछ अपेक्षा रखते हैं, तो उसमें ग़लत कुछ भी नहीं है.

अपेक्षाओं का दायरा कितना हो: आपकी अपेक्षाएं कितनी हैं और कितनी रियालिस्टिक हैं, इस पर ध्यान ज़रूर दें. अपनी परिस्थितियों, आर्थिक स्थिति व अपने रिश्तों की सीमाएं पहचानें और उन्हीं के आधार पर अपनी अपेक्षाएं रखें. यथार्थवादी सोच रखें.

दूसरों को देखकर अपनी हदें तय न करें: आपके पड़ोसी के पास बड़ी कार है, आपकी सहेली महंगी चीज़ों का शौक़ रखती है, आपके कलीग की लाइफस्टाइल आपको अपनी लाइफस्टाइल से बेहतर लगती है... यही सोच-सोचकर अगर दुखी रहेंगे, तो आपके जीवन में दुख बना ही रहेगा. कभी भी दूसरों की ज़िंदगी के आधार पर अपनी अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा न करें. भले ही हमें उनकी ज़िंदगी आकर्षक लगती है, लेकिन सबकी ज़िंदगी में अपनी-अपनी परेशानियां व सबके अपने दायरे होते हैं. इस बात को जितना जल्दी समझेंगे, रिश्ते उतने ही बेहतर होंगे.

अपने रिश्तों को समझें: आपका पार्टनर आपको समझता नहीं या आपके पैरेंट्स या सास-ससुर आपको सहयोग नहीं करते... इस सोच से उबरकर उन्हें समझें और समझाएं कि आप उनसे किस तरह के सहयोग की अपेक्षा करते हैं. बिना बोले अगर आप सोचेंगे कि सामनेवाले को ख़ुद ही समझ जाना चाहिए, तो यह सोच ही ग़लत है. कुछ बातें आपको समझानी ही पड़ती हैं, तभी सामनेवाला आपकी समस्या समझ सकता है. इसलिए कम्यूनिकेट ज़रूर करें. अपने रिश्तों में ख़ामोशी को न आनेे दें.

दूसरों की भी अपेक्षाओं का ख़्याल रखें: यह इंसानी फ़ितरत होती है कि हम अक्सर अपने बारे में ही पहले सोचते हैं. हमें क्या चाहिए, हमसे लोग कैसा व्यवहार करते हैं, हमें लोग क्या देते हैं... ऐसी बहुत-सी बातें हैं, जिन पर हमारा ध्यान अधिक रहता है बजाय इसके कि हमने क्या दिया, हमने कैसा व्यवहार किया या हम दूसरों की अपेक्षाओं पर कितने खरे उतरते हैं. जिस तरह के व्यवहार की अपेक्षा हम दूसरों से करते हैं, हमें ख़ुद भी उनके साथ उसी तरह का व्यवहार करना चाहिए. क्योंकि जिस तरह हम उनसे अपेक्षाएं रखते हैं, उसी तरह वो भी हमसे अपेक्षाएं रखते हैं. क्या हम उनकी अपेक्षाओं पर खरे उतरने का अतिरिक्त प्रयास करते हैं? क्या हम उनकी ज़रूरतों के प्रति उतने संवेदनशील हैं? क्या हम अपने कंफर्ट ज़ोन से निकलकर अपनों के लिए कुछ एक्स्ट्रा करते हैं? अगर नहीं, तो इस पर हमें सोचना होगा.

कुछ एक्स्ट्रा करें: रिश्तों में गर्माहट बनी रहे, आपस में प्यार-मुहब्बत बना रहे, इसके लिए ज़रूरी है थोड़ा एक्स्ट्रा एफर्ट. आप अपनों के लिए कभी-कभार उनकी अपेक्षाओं से कुछ अधिक भी कर दिया करें. इससे उन्हें ख़ुशी मिलेगी. अनपेक्षित रूप से जब कुछ मिल जाता है, तो उसकी ख़ुशी भी अलग ही होती है. अपनों की ख़ातिर इतना तो किया ही जा सकता है.

अपेक्षाओं के ओवरडोज़ से बचें: कुछ एक्स्ट्रा करके अपनों की अपेक्षाएं अक्सर बढ़ने लगती हैं, लेकिन यह ध्यान रखें कि आप इसकी आदत न डालें, वरना उस एक्स्ट्रा एफर्ट को लोग आपकी ड्यूटी समझने लगेंगे और जब कभी आप इसे पूरा करने में चूकेंगे, तो उन्हें लगेगा कि आप अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निबाह रहे. इसी तरह से आप भी अपनी अपेक्षाओं का दायरा थोड़ा-सा सीमित ही रखें, यदि कोई आपके लिए एक्स्ट्रा एफर्ट लेकर कुछ कर रहा है, तो हमेशा उससे यही उम्मीद न लगाकर बैठें. अगर किन्हीं कारणों से कोई आपकी अपेक्षाओं पर उतना खरा नहीं उतर पा रहा, तो उसकी परेशानियों व परिस्थितियों को समझने का प्रयास करें. ख़ुद को उसकी जगह पर रखकर सोचें. इस तरह रिश्ते हमेशा सकारात्मक बने रहेंगे और उनमें तक़रार की संभावनाएं भी कम होंगी.

- विजयलक्ष्मी

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