वीकेंड स्पेशल: लघुकथाएं- पहचान, माॅरलिटी, सपने, प्रतिशोध, बूढ़ा कबूतर… (Weekend Special: Short Stories- Pehchaan, Morality, Sapne, Pratishodh, Budha Kabootar)

पहचान


मैं उसे देखते ही पहचान गया. वही नाक-नक्श, वही शक्ल-सूरत. आख़िर पहचानता भी कैसे नहीं. बचपन की पढ़ाई हमने साथ की थी. मैट्रीक्यूलेशन के बाद वह कहीं और चला गया और मैं उसी छात्रावास में रह गया.
“अरे, राकेश! कैसा है यार?” मैंने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा.
उसने मुझे भौंचक हो कर देखा, “साॅरी, मैंने आपको पहचाना नहीं!’‘
”अरे यार, मैं रमेश, तुम्हारे साथ था हाॅस्टल में.” आश्चर्य मुझे भी हो रहा था.
“माफ़ कीजिए भाईसाहब. मुझे कुछ याद नहीं आ रहा.” उसने अनमने भाव से कहा.
“कमाल है यार, अपने क्लासमेट को भी नहीं पहचान रहा है. ख़ैर छोड़. अब तक मुंगेर में था. इधर पंद्रह दिन पहले इसी शहर में पोस्टिंग हो गई है. कलेक्टेरिएट में पोस्टेड हूं. अच्छा, चलता हूं…”
’‘अरे, तू यार रमेश!.. हां… हां… याद आया. कितना बदल गया है तू. पहचान में ही नहीं आ रहा. इधर छह-सात दिनों से तुम्हारे ऑफिस के ही चक्कर लगा रहा हूं.” उसने मुझे गले लगाते हुए कहा.

माॅरलिटी


उसने बड़ी तत्परता दिखाई और बस के रूकते ही उसमें तेजी से चढ़ गया. अंदर एक भी सीट खाली नहीं थी. फिर अन्य यात्री भी चढ़ गए, तो उसने राहत की सांस ली. चलो अकेला वही खड़ा नहीं जाएगा. अब तक बस भी खुल चुकी थी.
कुछ देर बाद उसने एक यात्री को अपना सामान संभालते देखा. वह उसी की बगल में खड़ा हो गया. खाली होनेवाली सीट पर केवल उसी की गिद्ध दृष्टि नहीं थी. कई अन्य यात्री भी इसी ताक में थे.
अगला पड़ाव आते-आते वह यात्री उठा, तो उसने अपने लंबे कद का फ़ायदा उठा लिया. तीन-चार यात्रियों को पराजित कर उसने उस सीट पर कब्जा जमाया था. निश्चिंत होकर वह अन्य यात्रियों को चढ़ते देखने लगा. तभी वह एक बुज़ुर्ग यात्री को देख चौंका. वह दूसरी तरफ़ देखने लगा, गोया उसने उन्हें देखा ही न हो.
फिर उसने अपनी आंख बंद कर ली और थोड़ा पसर गया. उसे लगा जैसे वह बुज़ुर्ग यात्री उसकी बगल में खड़ा है. उसने कनखियों से देखा और असहज हो गया. क्या उसे उठ जाना चाहिए..? भला क्यों? कितने लोगों के लिए वह जगह खाली करता रहेगा… वैसे भी यह बस है, पर इनमें और अन्य यात्रियों में फ़र्क है. आख़िर वह इनसे कभी पढ़ा था. उसे सीट खाली कर देनी चाहिए… मॉरलिटी भी तो कोई चीज़ है… पर… हां… नही… हां…
सोचते-सोचते जाने कब उसकी आंख लग गई.

सपने

वह ख़ुशनुमा सुबह थी. पूरब की लाली और मंद हवा में झूमते वृक्ष उसे अच्छे लगे. उसने काले-सफ़ेद बादलों को देखा और इठलाते हुए आगे बढ़ गया. तभी उसे लगा कि बादलों के साथ-साथ वह भी उड़ रहा है. धूल का उड़ना उसे अच्छा लगा. उसे कलरव करते पक्षी और रंग-बिरंगे फूलों के इर्द-गिर्द इठलाती तितलियां अधिक मोहक लगीं. आज उसने उस अधमरे कचरे से कुत्ते को भी नहीं मारा.
फिर उसने ख़ुद को उस खेल के मैदान में पाया. वह ख़ुशी से तालियां बजाने लगा. तभी उसे गेंद आकर लगी. वह धन्य हो गया. आज पहली बार उसने क्रिकेट की गेंद को छुआ था.
सुंदर झील को देखते हुए वह उस रेलवे फाटक के पास पहुंचा. आज उसकी प्रसन्नता का कोई ओर-छोर नहीं था, उस छोटी-सी रेलगाड़ी को इतने क़रीब से गुज़रते देखकर. उसमें सवार यात्रियों की वह कल्पना करने लगा. तभी उसे लगा कि उसने धुएं को पकड़ लिया है. धुएं ने उससे कहा, “ऐ, मुझे मत पकड़ो. तुम्हारे कोमल हाथ गंदे हो जाएंगे.”
उसने अपने काले और खुरदरे हाथों को देखा. तभी किसी की पुकार सुन उसकी तंद्रा टूटी. दूर ईंट की भट्ठी से उसका बाप उसे बुला रहा था.

प्रतिशोध


उसने रिक्शा रोकी और चबूतरे पर बैठ पैसे गिनने लगा, “एक एक दो, दो एक तीन, तीन पांच आठ, आठ दो दस… ये हो गए मालिक के. अपनी बचत हुई. पांच दो सात, सात एक आठ… तीस दो बत्तीस पांच सैंतीस और पचास पैसे. साढ़े सैंतीस हुए और…
’‘क्यों बे कलुआ, भूल गया साले हमको…” भारी भरकम बूटों और रोबीले चेहरेवाला शख़्स उसी से पूछ रहा था.
“हें… हें… नहीं नहीं… साब आपको कैसे भूल सकता हूं. ये लीजिए बारह रूपए आपके. पान खाएंगे?” उसने दांत निपोरते हुए कहा.
“ठीक है… ठीक है… छोड़ पान-वान.” रोबीली आवाज़ वाला डंडा घुमाता चलता बना.
उसने सारे पैसे मिला दिए और चबूतरे पर बैठ पुनः पैसे गिनने लगा, “एक दो तीन, तीन पांच साला आठ, आठ दो दस कुत्ते, हरामखोर, दस दो बारह हरामी… बीस कुत्ता, सुअर, हरामजादा…”
लोग उसे हैरत से देख रहे थे. भला सिक्के गिनने में गालियों की क्या ज़रूरत!

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बूढ़ा कबूतर

तब उस बूढ़े कबूतर ने कहा, “रूको, क्या तुम्हें नहीं लगता कि बहेलिए ने जाल भी बिछाया होगा. ऐसा न हो कि दाने का लोभ हमें फंसा दे!’‘
“ऐसा कुछ नहीं होगा.” कुछ बुद्धिजीवी कबूतरों ने प्रतिवाद किया.
“और अगर हम फंस भी गए, तो जाल सहित उड़ जाएंगे. बहेलिया मुंह ताकता रह जाएगा.”
“यह कोई ज़रूरी तो नहीं.” कुछ बुद्धिजीवी कबूतरों ने संदेह प्रकट किया.
आख़िर सर्वसम्मति से तय हुआ कि उनमें से कोई एक जाकर पड़ताल कर ले.
तब उस बूढ़े कबूतर ने कहा, “पहले मैं जाता हूं. अगर फंस भी गया तो क्या, वैसे भी बूढ़ा हो चला हूं.”
सभी ने उसकी बातें मान लीं. बूढ़ा कबूतर नीचे उतरा. पल भर में ही उसने चहकते हुए कहा, “आ जाओ मित्रों, यहां कोई जाल-वाल नहीं है.”
कबूतरों में हर्ष की लहर दौड़ गई. वे नीचे उतरे और दाना चुगने लगे. लेकिन यह क्या? जैसे ही उड़ने को हुए, वे जाल में फंस चुके थे. जाल में छटपटाते कबूतरों ने उस बूढ़े कबूतर पर ध्यान ही नहीं दिया, जो हल्की-सी मुस्कान लिए नीले आसमान में जा उड़ा था.

देवांशु वत्स

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Usha Gupta

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