कश्मीरी पंडितों के दर्द को इतनी स्पष्टता व साफ़गोई से शायद ही किसी ने पहले कभी फिल्मी पर्दे पर दिखाया हो. जी हां, हम बात कर रहे हैं विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म शिकारा की. इस फिल्म का दूसरा ट्रेलर ग़मगीन करने के साथ-साथ आक्रोश से भी भर देता है.
आज़ाद देश के ग़ुलाम सी स्थिति हो जाती है, जब आतंक का तांडव मचा रहे आतंकवादी नायक कश्मीरी पंडित से भिड़ते हैं. उस समय की स्थिति और दर्द को बख़ूबी समझा जा सकता है. इसे देखकर ही इस बात की तसल्ली होती है कि बेहतर हुआ कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटा दिया गया.
शिकारा ने एक नई उम्मीद की किरण दिखाई है कश्मीरी पंडितों को, जो तीस साल से अपने ही घर में न रहे पाने के दर्द को झेल रहे हैं. जब फिल्म की पहली ट्रेलर रिलीज़ हुई थी, तब लोगों ने इसे ़ख़ूब सराहा था. सभी ने फिल्म के प्रस्तुतिकरण की जमकर तारीफ़ की थी. विधु चोपड़ाजी ने भी एक बार लीक से हटकर कुछ अलग देने की कोशिश की, जिसमें वे कामयाब भी रहे. शिकारा यूं तो सात फरवरी को रिलीज़ होनेवाली है, पर इसके ट्रेलर्स को देख बेसब्री सी हो गई है. उस दौर से लेकर अब तक कश्मीर पंडित के प्रेम, दर्द, संघर्ष, आपबीती को जानने-समझने की. आप भी देखें इसका ट्रेलर और क़रीब से महसूस करें अपनों के दर्द को जब यह कहने पर मजबूर किए जाते हैं कि यह घर तुम्हार नहीं है… यह वतन तुम्हारा नहीं है…
वैसे जिस तरह से भारत में फिल्मी हस्तियां कश्मीर से लेकर शाहीन बाग में हो रहे सीएए पर अपने विरोध को समर्थन दे रही है, वो भी मन को व्यथित कर देती है. आख़िरकार फिल्मों से जुड़ी ये शख़्सियत क्या साबित करना चाहती हैं, देशप्रेम या देश के विकास को लेकर नफ़रत. उनकी सोच का दायरा कहां तक विकृत है. कहीं-न-कहीं वे अपने पैरेंट्स के साथ-साथ अपने देश व भारतमाता के अपमान के सहभागी नहीं बन रहे. उन सभी को एक बार सोचना होगा, अपने माता-पिता के बारे में, जिन्होंने उन्हें पैदा किया, अपनों के बारे में और सबसे सर्वप्रिय देश के बारे में. आज़ादी का मतलब यह कतई नहीं है कि आप हर बात में विरोध प्रकट करें, वो भी अनैतिक व हल्के शब्दों में. इससे दूसरे क्या सोचते हैं, यह और बात है, पर इससे कहीं-न-कहीं आपके अभिभावकों के संस्कार भी प्रतिबिंबित होते हैं. कम-से-कम उन्हें तो शर्मिंदा न करें.
शिकारा फिल्म में कई स्थानीय नए कलाकार भी देखने को मिलेंगे. साल 1989 से शुरू हुई निर्वासन की दास्तान आज तीस साल बाद भी न जाने कितने दर्द को संजोए हुए है. तब की स्थिति कितनी भयावह थी, जब आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को उनके घर छोड़कर चले जाने का फतवा जारी कर दिया था. स्थिति ऐसी थी कि चार लाख कश्मीरी पंडित शरणार्थियों की तरह रह रहे थे. अपना वतन, घर सब कुछ होने के बावजूद बंजारों सी स्थिति. उ़फ्! कितना कुछ सहा, देखा और झेला होगा उन्होंने.
इसी दर्द को समय-समय पर अनुपम खेर भी अपनी बातों व वीडियो से बताते रहे हैं.
हम घर वापस आएंगे… भी ख़ूब ट्रेंड हुआ था, जब दुनियाभर में रह रहे कश्मीरी पंडितों ने वीडियो के ज़रिए आव्हान किया था कि वे अपने वतन… अपने घर… अपने कश्मीर वापस आएंगे..
बैकग्राउंड में पंडित के दर्द को बयां करते अल्फ़ाज़ भी भावविभोर कर देते हैं- ऐ वादी शहज़ादी, बोलो कैसी हो? हर पल तेरी याद सताती रहती है, आती-जाती हर एक सांस ये कहती है, एक दिन तुमसे वापस मिलने आऊंगा, क्या है दिल में सब कुछ तुम्हें बताऊंगा, कुछ बरसों से टूट गया हूं, खंडित हूं, वादी तेरा बेटा हूं, पंडित हूं…
अब व़क्त आ गया है सभी के घर वापस आने का. विधुजी को धन्यवाद, जो सही समय में एक सार्थक फिल्म लेकर आ रहे हैं. विरोध व नफ़रत से दिलों को नहीं जीता जा सकता, बस आपसी भाईचारे व प्यार से ही हमारे देश की अनेकता में एकता की जो तस्वीर है, उसे और भी मज़बूत व ख़ूबसूरत बनाया जा सकता है. शिकारा फिल्म एक उदाहरण है उन विषयों का जिन पर बहुत कम ही बात होती है, तो कहने कम, अब देखने व सुनने का व़क्त आ गया है, भले ही शिकारा के ही ज़रिए क्यों ना!…
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