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कहानी- बदलते समीकरण (Short Story- Badlate Samikaran)

"केवल मांजी ही नहीं बदल रही थीं. उनके प्रति मेरा सम्मान भी कब दिखावटी से सच्चा होता चला गया ख़ुद मुझे ही पता नहीं चला. झूठ नहीं कहूंगी, पहले राकेशजी की मातृभक्ति देखकर ईर्ष्या से मेरे बदन पर सांप लोट जाते थे. पर शनै: शनै: मैं इसी वजह से उन्हें श्रद्धा से देखने लगी. ज़रा सोचो, जो इंसान इतना संवेदनशील है. अपनी मां की ज़रा सी तकलीफ़ नहीं सह पाता. वह अपनी पत्नी और बच्चियों को लेकर कितना ज़िम्मेदार और भावुक होगा."

किटी पार्टी के लिए पूनम के घर पहुंचते-पहुंचते प्रतिभाजी को देर हो ही गई थी. वे खुले दरवाज़े से अंदर प्रवेश करने ही वाली थीं कि अंदर चल रहे संवाद में अपने नाम का उल्लेख सुन वे चौंक उठीं. अरे, यह तो नीलू का स्वर लगता है! किटी क्लब की कम उम्र सदस्याओं में से एक! आवाज़ से काफ़ी आक्रामक मूड में नज़र आ रही थी.
‘मैं अब तक प्रतिभाजी का बहुत सम्मान करती थी. न केवल इसलिए कि वे एक अनुभवी और प्रतिष्ठ लेखिका हैं, वरन इसलिए भी कि वे मुझसे उम्र में भी काफ़ी बड़ी हैं. लेकिन पिछले सप्ताह मैंने उनके घर का जो परिदृश्य देखा, मेरी उनके प्रति धारणा पूरी तरह बदल चुकी है. आमना-सामना होने पर अब मैं चाहकर भी उन्हें वह सम्मान नहीं दे पाऊंगी, जो अब तक देती आई हूं."
"अच्छा, ऐसा क्या हो गया था पिछले सप्ताह?" पूनम जो पिछले सप्ताह अनुपस्थित थी एकदम चिहुंककर पूछ बैठी.
"अरे तुम तो थी नहीं. क्या नज़ारा था अपने दबंग स्वभाव के लिए विख्यात लेखिका महोदया के घर का. हर अन्याय के ख़िलाफ़ खुलकर आवाज़ उठाने वाली महिला की उनकी सुप्रतिष्ठित छवि हम सबके सम्मुख एक झटके में धूमिल हो गई थी."
"तुम तो पहेलियां बुझाने लगी. अब बता भी दो कि हुआ क्या था?" पूनम व्यग्र थी.
"देखो पिछले सप्ताह चांदनी के यहां किटी पार्टी थी. पिछले कुछ समय से लगातार अनुपस्थित चल रही प्रतिभाजी उस पार्टी में भी नदारद थीं. जैसा कि हम सभी को मालूम ही है कि उनकी सास को ब्रेन कैंसर हो गया है और वे इलाज के लिए यहां आई हुई हैं. तो हम सबने निश्चय किया कि पार्टी समाप्त होने पर हम सब प्रतिभाजी के यहां उनकी सास की तबियत पूछने जाएगें और हम गए भी. पर वहां हमें प्रतिभाजी का जो रूप देखने को मिला उसकी तो किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. हमारी बैठकों में वे स्त्री सम्मान, नारी जागृति की कितनी बातें करती हैं और वह भी कितने मुखर स्वर में! स्त्री को किसी से दबने की आवश्यकता नहीं है, न घर में और न बाहर. बल्कि अपने व्यक्तित्व को उसे इतना प्रभावी बनाने का प्रयास करना चाहिए कि सामने वाला उसके प्रभाव में आ जाए."
"हां बिल्कुल! मैं भी उनकी इस बात से सहमत हूं." चांदनी ने सहमति में गर्दन हिलाई.
प्रतिभाजी उत्सुकता से कान लगाए खड़ी थीं. जानती थीं कि उनके अंदर प्रवेश करते ही इस वार्ता को पूर्णविराम लग जाएगा और वे यह जानने से वंचित रह जाएगीं कि उनके प्रति उनकी साथी सदस्याएं क्या विचार रखती हैं? इसलिए वे दम साधकर वहीं ओट में हो गई थीं. नीलू का और भी मुखर स्वर उनके कानों में पड़ा.
"सहमत तो हम सभी हैं. वे बताएं न बताएं, हम सभी सुशिक्षित जागरूक महिलाएं हैं. बरसों से हो रहे नारी जाति के शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का हौसला रखती हैं. जब मैं शादी होकर आई थी, तो अपने पति को हर वक़्त सास के आगे-पीछे घूमते देख हैरान रह गई थी. मैंने तो उसे साफ़-साफ़ सुना दिया था कि तुम्हें अपनी मां के पल्लू से ही बंधे रहना था, तो मुझसे शादी क्यों की? मुझे अलग फ्लैट में रहना है."

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"फिर?" रति ने बीच में ही पूछ लिया. दरअसल, ऐसी ही समस्या उसकी गृहस्थी में भी चल रही थी. उसके मन में भी इन दिनों सास-ससुर के व्यवधान से मुक्त आज़ाद ज़िंदगी जीने की हसरत पनप रही थी. इसलिए वह जल्द से जल्द नीलू की कहानी का अंत जानने को व्याकुल थी.
"फिर क्या? कुछ समय तो वह इसे मेरी गीदड़ भभकी समझकर टालता रहा. पर जब मैंने भी अपने रंग दिखाने शुरू किए, तो उस ममाज़ बॉय को अलग फ्लैट लेना ही पड़ा. अब मैं आज़ाद तितली की तरह उन्मुक्त उड़ान भर रही हूं. कई किटी पार्टी की सदस्या बन गई हूं."
"वाह!" सबकी ईर्ष्यालु नज़रें नीलू पर आ टिकी थीं, पर प्रतिभाजी की बात तो अभी भी रह ही गई थी. पूनम ने याद दिलाया, तो नीलू मुद्दे की बात पर लौटी.
"हां, तो हम सबने देखा प्रतिभाजी के पति अपनी बीमार मां को बड़े ही प्यार से अपने हाथों से खाना खिला रहे थे और प्रतिभाजी आज्ञाकारी बहू की तरह उनके पास खड़ी उनके हर आदेश का पालन कर रही थी. पहले वे आदेशानुसार सेब काटकर लाईं. फिर छिलका हटाने का आदेश मिला. वह भी उनकी सास से नहीं निगला गया, तो और बारीक़ टुकड़े करने का फ़रमान जारी हुआ. हम सभी आश्चर्य से देख रही थीं कि प्रतिभाजी कैसे सिर झुकाए हर आदेश का अक्षरष: पालन करती जा रही थीं.
उनकी सास इस पर भी हाथ-पैर पटकते हुए न खाने की ज़िद लगाए हुए थी और उनके पति अपनी मां को बच्चों की तरह पुचकारते हुए खा लेने का आग्रह किए जा रहे थे. हमारे अभिवादन पर उन्होंने बस एक बार हम लोगों से बैठने का आग्रह किया था. बाकी पूरे वक़्त उनका ध्यान इसी बात पर लगा रहा कि किसी तरह उनकी मां के गले कुछ उतर जाए.
"अच्छा मां, इसका शेक बनवा दूं? ठंडा-ठंडा, मीठा-मीठा एप्पल शेक! हां, वह ठीक रहेगा, वह तुम्हें ज़रूर पसंद आएगा. प्रतिभा, ज़रा इसमें दूध-शक्कर डालकर मिक्सर में चला लाओ." और प्रतिभाजी फिर कठपुतली की तरह उनके इस आदेश का भी पालन कर लाई. आख़िर एहसान जताते हुए शेक की कुछ बूंदें माताजी ने गले के नीचे उतारीं. तब उनके पतिदेव ने संतुष्टि की सांस ली और प्रतिभाजी भी राहत महसूस कर तब हमारी ओर मुख़ातिब हुईं. पर तब तक हम जाने के लिए उद्यत हो गई थीं. प्रतिभाजी हमें बाहर तक छोड़ने आईं और इस दौरान अपनी भीरूता की सफ़ाई भी पेश करती रहीं.
"क्या करें? मांजी का कैंसर अंतिम अवस्था में है. बहुत चिड़चिड़ी और आक्रामक हो गई हैं. इनके अलावा किसी के हाथ से खाने को ही तैयार नहीं होती. अब ऐसे में धीरज तो रखना ही पड़ता है." समझ नहीं आ रहा था वे किसके धीरज की बात कर रही थीं? शायद अपने दब्बूपन को ही धीरज का नाम दे रही थीं. बस, मुझे तो उसी क्षण से उनसे वितृष्णा सी हो गई. हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और. हम महिलाओं के सामने तो शेरनी बनकर दहाड़ती रहती हैं और घर में भीगी बिल्ली बनी हुई थीं."
अंदर की चुप्पी से प्रतिभाजी को लग रहा था कि शायद अन्य महिलाएं भी सहमति में सिर हिला रही थीं. एक पल को तो उन्हें लगा कि इतने दिनों बाद किटी क्लब आकर उन्होंने कोई भारी ग़लती कर दी है. कदम पीछे मुड़ने को हुए पर फिर कुछ सोचकर उन्होंने कदम अंदर की ओर बढ़ा दिए. निस्संदेह सखियों के विचारों ने उनके मन पर एक बोझ लाद दिया था. पर अब यह उन पर था कि वे इस बोझ को कब तक ख़ुद पर लादे रखकर अपने जीवन को बोझिल बनाए रखती हैं. या जल्द से जल्द बोझ उतारकर हल्की हो जाती हैं. कुछ समय पूर्व बिखर चुका आत्मविश्वास फिर से संजोकर चेहरे पर मुस्कुराहट बिखेरते हुए वे अंदर दाख़िल हुईं. उन्हें प्रवेश करते देख एकबारगी तो सबके मुंह पर ताले लग गए. आलोचिकाओं के चेहरे फक्क पड़ गए. लेकिन अपने कुशल अभिनय से प्रतिभाजी ने ज़ाहिर नहीं होने दिया कि वे अपनी आलोचना सुन चुकी हैं. शनै: शनै: सब आप ही सामान्य होने लगे. नीलू ने ही पहल की.
"इतने दिनों बाद आपको सबके बीच पाकर बहुत अच्छा लग रहा है. आपकी प्रेरणास्पद बातें हम बहुत मिस कर रहे थे. आपकी सासूमां की तबियत अब कैसी है? भाईसाहब होगें न उनके पास?"
प्रतिभाजी स्वर में छुपे व्यंग्य को बख़ूबी भांप गई थीं, पर ज़ाहिर नहीं होने दिया.
"उनकी बदौलत ही तो निकलकर आई हूं, वरना मेरा तो आने का मन ही नहीं था, पर उन्होंने ज़बरन यह कहकर भेज दिया कि जाओ, तुम्हारे भी थोड़ा चेंज हो जाएगा. मैं तो रोज़ तुम्हारे भरोसे सब कुछ छोड़कर ऑफिस चला जाता हूं."
"ओहो! पति पत्नी के मध्य इतनी आपसी समझ हो जाए तो फिर तो कोई झगड़ा ही नहीं." चांदनी ने मत व्यक्त किया.
"वक़्त लगता है." प्रतिभाजी के मुंह से बरबस ही निकल पड़ा.
"क्या मतलब?’ प्रतिभाजी से उम्र में कुछ ही छोटी सुधाजी बोल उठीं. "कहीं आप यह तो नहीं कहना चाह रहीं कि पहले आप दोनों पति-पत्नी की भी नहीं बनती थी?"
"आपने ठीक समझा. बिल्कुल ऐसा ही था. देहात में रहने वाले एक मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार में ब्याही थी मैं. तीन भाइयों के परिवार में मंझली बहू थी. देवर और जेठ ससुरजी के साथ पुश्तैनी व्यवसाय में थे. केवल राकेशजी यानी मेरे पति ही पढ़-लिखकर नौकरी में लग गए थे. घर में सास का एकछत्र साम्राज्य था और तीनों बेटे विशेषत: मेरे पति एकदम श्रवणकुमार. उस समय ‘ममाज बॉय’ शब्द तो प्रचलित नहीं था. इसलिए हम बहुएं आपस में उन्हें बड़े, मंझले और छोटे श्रवणकुमार कहकर ही मन की भड़ास निकाल लेती थीं. एक तरह से कहा जाए, तो अंदर ही अंदर घुटती हम बहुओं के मनोरंजन का यही एकमेव साधन था.
आपसी गुफ़्तगू में हम अपनी सास को ललिता पंवार, तो ससुरजी को ओमप्रकाश कहकर संबोधित करतीं. हम तीनों बहनों की तरह रहती थीं. हमारे बच्चे भी आपस में बहुत घुले-मिले हुए थे. परिवार में बस मेरे ही दो बेटियां थीं. जेठजी के दो बेटे थे और देवरजी के एक बेटा. बेटा न जन पाने के कारण सासूमां की नज़रों में मेरा स्थान थोड़ा कमतर था. पोतियों को भी वे पोतों से कमतर आंकती थीं, पर देवरानी-जेठानी इसी कारण मुझसे ज़्यादा सहानुभूति और लाड़ रखती थीं. इसी बीच मेरे पति को यहां शहर में अच्छी नौकरी मिल गई. परिवार के लिए यह प्रसन्नता से ज़्यादा परेशानी की बात हो गई थी, क्योंकि परिवार बिखरने वाला था. इस बीच ससुरजी के गुज़र जाने से जेठजी ही परिवार के कर्ता-धर्ता हो गए थे. उनका कहना था कि शहर में बसने की बजाय राकेशजी को नौकरी छोड़कर पुश्तैनी व्यवसाय में लग जाना चाहिए. लेकिन सुशिक्षित राकेशजी को परचून की दुकान पर बैठना अखर रहा था.
"सही है! आपने उन्हें कोई राय नहीं दी?" पूनम ने पूछा.
"मेरी राय कोई पूछता तब ना? ये श्रवणकुमारजी तो अपनी माताजी का मुंह देख रहे थे. वैसे मन में मैं भी वही चाहती थी, जो ये चाहते थे. पर मेरी देवरानी-जेठानी मेरे अलग आज़ाद रहने की कल्पना से ही जली-भुनी जा रही थीं. रिश्तों के समीकरण बदलने लगे थे. अब वे दोनों आपस में ही खुसर-पुसर करती रहतीं और मेरे पहुंचते ही चुप्पी साध लेतीं. कुछ-कुछ ऐसा ही रवैया दोनों भाइयों ने भी इनके प्रति अपना लिया था. घर का वातावरण दमघोंटू लगने लगा था. आख़िर सासूमां ने ही अपनी चुप्पी तोड़कर सबको इससे उबारा. उन्होंने हमें शहर चले जाने की अनुमति दे दी. मेरी दोनों बेटियां ख़ुशी से उछल पड़ी थीं. दोनों में ही शहर में बसने, पढ़ने की गहरी ललक थी. साथ ही अपने भाइयों से बिछुड़ने का ग़म भी था. दोनों भाइयों के परिवार ने उसी दिन हम लोगों से किनारा कर लिया था. यहां तक कि अपने बेटों को भी मेरी बेटियों से दूर रखने का प्रयास करते."
"यह तो ईर्ष्या की पराकाश्ठा है." नीलू कहे बिना नहीं रह सकी. उसे प्रतिभाजी से सहानुभूति सी होने लगी थी. माहौल थोड़ा बोझिल हो उठा था.
"पहली बार मुझे अपनी ललिता पवार जैसी सास निरूपा रॉय जैसी लगी." प्रतिभाजी ने हास्य का पुट देकर माहौल को हल्का बनाने का प्रयास किया. वे इसमें सफल भी रहीं, क्योंकि गंभीर हो चुकी महिलाओं के चेहरे पर मुस्कान बिखर गई थी.
"राकेशजी की मांजी के प्रति श्रद्धा और भी बढ़ गई थी. वे जब-तब उन्हें शहर अपने पास आने का निमंत्रण देते रहते. कभी-कभी तो बच्चों की तरह रूठ भी जाते. मांजी अब बीमार रहने लगी थीं. उनके टेस्ट आदि करवाने के नाम पर आख़िर राकेशजी उन्हें यहां लाने में कामयाब हो ही गए. हम सभी को यह जानकर गहरा धक्का लगा कि वे कैंसरग्रस्त थीं. ख़ुद मांजी भी सदमे की स्थिति में आ गई थीं, पर धीरे-धीरे उन्होंने परिस्थितियों से समझौता करना सीख लिया. वे आश्चर्यजनक रूप से नम्र, सहनशील और उदार होती चली गईं. इसीलिए मैं कहती हूं वक़्त, उम्र और परिस्थितियां न केवल इंसान को बदल डालती हैं, वरन रिश्तों के समीकरण भी उलट-पुलट कर डालती है." प्रतिभाजी ने गौर किया सभी कौतूहल से उन्हें देख-सुन रही थीं.
"देहात से रिश्तेदार नौकरी, पढ़ाई आदि के लिए आते ही रहते थे. मांजी मेरे मायके के रिश्तेदारों को भी उतना ही मान-सम्मान और अपनापन देतीं, जितना मेरे ससुराल के रिश्तेदारों को. कभी आंखों में खटकने वाली पोतियां अब उनकी आंख का तारा हो गई हैं. अपने कुछ पसंदीदा गहने उन्होंने दोनों पोतियों के नाम पर बैंक में रखवा दिए हैं. ईश्वर जानता है कि हम उनकी सेवा किसी लालच में नहीं कर रहे हैं. इंसान धन से बेशक गरीब रहे, पर दिल से धनवान होना चाहिए. अक्सर झोपड़ी पर लिखा होता है ‘सुस्वागतम्’ और कोठी पर लिखा होता है ‘कुत्ते से सावधान’. बिंदी पांच रुपए की आती है, पर भाल पर सुशोभित होती है. पायल हज़ारों रुपए में आती है, पर डाली पांव में ही जाती है."
"बहुत पते की बात कही आपने!" सुधाजी ने कहा.
"केवल मांजी ही नहीं बदल रही थीं. उनके प्रति मेरा सम्मान भी कब दिखावटी से सच्चा होता चला गया ख़ुद मुझे ही पता नहीं चला. झूठ नहीं कहूंगी, पहले राकेशजी की मातृभक्ति देखकर ईर्ष्या से मेरे बदन पर सांप लोट जाते थे. पर शनै: शनै: मैं इसी वजह से उन्हें श्रद्धा से देखने लगी. ज़रा सोचो, जो इंसान इतना संवेदनशील है. अपनी मां की ज़रा सी तकलीफ़ नहीं सह पाता. वह अपनी पत्नी और बच्चियों को लेकर कितना ज़िम्मेदार और भावुक होगा."


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"मैं ख़ुद को और बच्चियों को उनकी छत्रछाया में बेहद सुरक्षित महसूस करने लगी. मांजी की वजह से तीनों भाइयों का परिवार अभी तक एक मज़बूत बंधन में बंधा हुआ है, जिसकी समाज में मिसाल दी जाती है. पर मैं जानती हूं हम सब तो केवल मोती हैं. प्रशंसा की असली हक़दार तो धागा यानी मांजी हैं, जिन्होंने हम सब को एक सूत्र में पिरो रखा है. मैं यह जान गई हूं कि 60 साल की उम्र के बाद कोई यह नहीं पूछेगा कि आपने कितने लाख कमाए या आपके पास कितनी गाड़ियां है? सब बस दो ही सवाल करेगें- आपकी तबियत कैसी है? और आपके बच्चे क्या करते हैं? हमें अब बस यही दौलत संजोनी है… आप लोगों को अजीब लग रहा होगा कि मैं ऐसी आध्यात्मिक बातें केैसे करने लगी? मेरे वो आक्रामक तेवर कहां गए? तो निराश मत होइए. नारी प्रगति जैसी बातों पर मेरा अब भी वही दबंग रूख ही है और जब जहां आवाज़ उठानी हुई, मैं अवश्य उठाऊंगी. क्योंकि बोलना कोई बड़ी बात नहीं है, नहीं बोलना भी कोई बड़ी बात नहीं है. लेकिन बोलने और न बोलने का विवेक रखना बड़ी बात है. इंसान का व्यवहार मीठा न हो, तो हिचकियां भी नहीं आती. बोल मीठे न हों, तो क़ीमती मोबाइल पर घंटियां भी नहीं आतीं. घर बड़ा हो या छोटा अगर मिठास न हो, तो इंसान तो क्या चींटियां भी नजदीक नहीं आतीं."
सभी अभिभूत से प्रतिभाजी को ताक रहे थे. उन्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे.अब उन निगाहों में व्यंग्य नहीं, श्रद्धा थी. कुछ ही पलों में रिश्तों के समीकरण बदल चुके थे.

संगीता माथुर

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Photo Courtesy: Freepik

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