… उसे मालूम हो गया था, प्रज्ञा अमेरिका नहीं गई और अब केशव व प्रज्ञा यहां एक ही कंपनी में जॉब कर रहे हैं, इसलिए जब इस कंपनी में वेकेंसी देखी, तो अप्लाई कर दिया. क़िस्मत से उसका चयन हो गया. अब प्रज्ञा को देख कर लग रहा था जैसे उनके बीच का प्रेमसेतु शायद टूट चुका है.
अक्षत को ऑफिस ज्वाॅइन किए एक महीना होनेवाला था, पर प्रज्ञा उसके प्रति तटस्थ बनी हुई थी. वह उसे व्यक्तिगत होने का मौक़ा ही नहीं देती. प्रज्ञा की तटस्थता देख, केशव भी अक्षत के साथ सहज नहीं हो पा रहा था. लेकिन वह हृदय से चाह रहा था कि दोनों के बीच की मान-अभिमान की दीवारें टूट जाए.
अक्षत का अपराध, अक्षम्य था पर वह यह भी जानता था कि प्रज्ञा के चेहरे की मुस्कुराहट भी सिर्फ़ अक्षत ही वापस ला सकता है.
वर्तमान समय में कपल के बीच दूरी आने का सबसे कारण उभरकर आ रहा है, स्त्री का पुरुष के बराबर योग्य व कभी-कभी उससे बढ़कर योग्य होना, सफलता पाना. दूर रह कर ऐसी स्त्री को सराहना सरल है, लेकिन पास रह कर प्रतिस्पर्धा की भावना को भुला कर उसके साथ नेहबंधन में बंधना और उसकी महत्वाकाक्षांओं के आकाश के तले संवरना अभी भी इतना सरल नहीं है, सभी पुरुषों के लिए. अक्षत भी उन्हीं में से एक था.
हालांकि अक्षत की छटपटाहट प्रज्ञा के दिल में न उतर रही हो, ऐसा नहीं था. कई बार मान-स्वाभिमान की दीवारें तोड़ उससे लिपट जाने को उसका हृदय तड़प उठता, लेकिन जो कुछ उसने इन दो सालों में भावनात्मक व मानसिक तौर पर भुक्ता था, वह सब भुलाना सरल नहीं हो पा रहा था.
लेकिन एक दिन जब वह फ्लैट पर पहुंची ही थी कि डोरबेल बज उठी. दरवाज़ा खोला, तो सामने प्रस्तर प्रतिमा-सा अक्षत खड़ा था.
“तुम? मेरा मतलब, मिस्टर अक्षत आप?” अजनबीयत के भाव चेहरे पर लिए आश्चर्यचकित-सी वह बोली.
“क्यों कर रही हो तुम, मेरे साथ ऐसा?”
“मैंने? क्या किया है मैंने?” वह दरवाज़ा बंद करने को हुई.
“क्या हम सचमुच एक-दूसरे को नहीं पहचानते?” अक्षत दरवाज़ा ज़बर्दस्ती ठेलता हुआ अंदर आ गया, “मुझे माफ़ कर दो प्रज्ञा.”
“दो साल किसी को भुलाने के लिए काफ़ी होते हैं मिस्टर अक्षत.” तल्खि से बोल कर वह पलट गई.
“तुमसे दूर जा कर एक दिन भी दूर न रह पाया प्रज्ञा… हर समय तुम साथ रहती थी… पिछले एक साल से तुम्हारा सामना करने की हिम्मत जुटा रहा था, मेरी ग़लती को माफ़ नहीं किया जा सकता. अब यह तुम पर है कि तुम क्या सज़ा दो… मैं हर सज़ा भुगतने को तैयार हूं.” अक्षत कातर स्वर में बोला.
“दो साल में मेरी कमी खल सकती है अक्षत… और क्यों न खलेगी, मुझे भी तो खली है… लेकिन मेरे हिस्से के आकाश के साथ मुझे समेटना और अपनाना आज भी तुम्हारे लिए मुश्किल हो जाएगा… और मुझे इतनी छोटी बांहें नहीं चाहिए…”
“एक बार, सिर्फ़ एक बार आज़माकर देखो प्रज्ञा, बहुत कुछ सोचा-समझा इन दो सालों में.. .परंपरागत पुरुष के खोल से बाहर आ गया हूं… अपनी प्रज्ञा के साथ उसकी आकांक्षाओं का आकाश समेटने के लिए… अब कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगा.”
‘अपनी प्रज्ञा‘ सुनकर प्रज्ञा अंदर तक पिघल गई. वैसे भी तो आंसू तटबंध तोड़ने को कब से व्याकुल थे. अक्षत की तरफ़ उसकी पीठ थी, लेकिन अक्षत समझ गया, वह रो रही है. कुछ संकोच के साथ उसने उसके कंधों पर अपने दोनों हाथ रख दिए. प्रज्ञा ने कोई प्रतिकार नहीं किया. अक्षत ने उसे अपनी तरफ़ पलटाने की बजाय ख़ुद उसके सामने जाकर खड़ा हो गया.
“मैं आज तुम्हें, तुम्हारी महत्वाकांक्षाओं, सपनों, उम्मीदों और तुम्हारे हिस्से के आकाश के साथ समेटना चाहता हूं प्रज्ञा.” कह कर उसने अपनी दोनों बांहें फैला दी. अब प्रज्ञा ख़ुद को रोक न पाई, आगे बढ़कर अक्षत की बांहों में सिमट गई. अक्षत उसे हर तरह से समेट रहा था. दरवाज़े पर खड़ा केशव अपनी नम हुई आंखों को पोंछ रहा था. वहीं तो अक्षत को यहां लेकर आया था. आज उनकी तिगड़ी फिर से पूरी हो गई थी.
सुधा जुगरान
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