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कहानी- टाइम पास

 

             अनूप श्रीवास्तव
मुझे पता है तुम किसी अपने को तलाशती रहती हो, जो तुमको समझ सके, तुमको चाहे, सराहे और तुम भी उसको चाहो, पर यह मत भूलो कि भावनाओं की चंचल सरिता में बहते हुए इमोशनल फूल बन जाना समझदारी नहीं होती. और प्रेम? प्रेम के बारे में तुम क्या जानती हो? तुम्हारे जैसे लोग जिसे लव कहते या समझते हैं, वो दरअसल टाइम पास से अधिक कुछ भी नहीं होता. यह क्रश या इन्फैचुएशन भी नहीं होता. यह बात वो रियलाइज़ तो करते हैं, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.


सुबह के दस बज रहे थे और मैं रोज़ की तरह अपने कार्यालय पहुंच चुका था. अर्दली मेज़ पर डाक रख गया था, जिसमें अधिकतर खाकी रंग के सरकारी लिफ़ा़फे या आम आदमी के कुछ प्रार्थनापत्र होते, जिन्हें वो लोग जाने कितनी आशाओं से लिखते होंगे कि कलेक्टर साहब के पास चिट्ठी पहुंच गई, तो काम हो जाएगा. बेचारे! अगर सिस्टम को समझते, तो इतनी आशाएं न करते.
मैंने अनमने ढंग से लिफ़ाफ़ों के ढेर को देखा कि एक रंगीन लिफ़ा़फे ने मेरा ध्यान बरबस ही आकृष्ट कर लिया. बिल्कुल ऐसा लग रहा था, जैसे शहर से किसी पहाड़ी गांव जानेवाली सामान्य स्थानीय लोगों से भरी बस की खिड़की से कोई विदेशी टूरिस्ट कौतूहल भरी निगाहों से बाहर झांक रहा हो. वो सरकारी या आम आदमी की चिट्ठी नहीं, बल्कि हैंडमेड पेपर का सुर्ख़ प्याज़ी रंग का कलात्मक लिफ़ाफ़ा था, जिसे मैंने लपककर उठाया और अधीरता से प्रेषक का नाम ढूंढ़ा, मगर मायूसी ही हाथ लगी. बस, मार्कर पेन से कलात्मक हस्तलिपि में ‘श्री देवेशचन्द्र, अपर ज़िलाधिकारी, फैज़ाबाद’ ही लिखा था. तुरंत लिफ़ाफ़ा खोलने हेतु अधीर होते अपने मन को किसी प्रकार मैंने नियंत्रित कर उस उत्सुकता बढ़ाते लिफ़ा़फे को रख लिया कि घर पर ही इत्मीनान से देखूंगा.
घर पहुंचते ही पेपर कटर से बहुत सावधानी और प्यार से लिफ़ाफ़ा ऐसे खोला कि ज़रा-सा ग़लत कट कहीं प्रेषक की भावनाओं को आहत न कर दे. नाम ढूंढ़ने को आतुर निगाहें सबसे पहले पत्र के अंत में पहुंच गईं, ‘आपकी डॉली’ पढ़ते ही मुझे किन भावनाओं के ज्वार ने घेर लिया, कह नहीं सकता. डॉली का पत्र, वो भी इतने अंतराल के बाद? मेरा पता उसे कैसे मिला, उसके क्या हाल हैं, आजकल क्या कर रही है? इन्हीं सवालों के जवाब जानने के लिए उत्सुकतावश मैं पत्र पढ़ने लगा.
‘आदरणीय सर! सर, यह आदरणीय न तो शब्द मात्र है और न ही कोई औपचारिक संबोधन. आज मैं यह फील कर पा रही हूं कि आपके प्रति मेरे मन में कितना आदर है. सर, आपके आशीर्वाद, प्रयास और गाइडेंस का ही परिणाम है कि मैं एमबीबीएस हो गई हूं और इसका पूरा क्रेडिट आपको ही जाता है. अगर आप मेरे जीवन में न आए होते, तो मैं आंधी में सूखे पत्ते-सी जाने कहां खो गई होती. सर, यह सफलता तो कुछ भी नहीं है. आपने जिस तरह मुझे और मेरे जीवन को बदल दिया है, उसके लिए मैं हमेशा आपकी एहसानमंद रहूंगी. सर, आप ही मेरे फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड हैं.’
मुझे लगा मैं आगे कुछ न पढ़ सकूंगा. पता नहीं, डॉली की सफलता की ख़ुशी थी या उसकी भावनाएं, मुझे दिया जा रहा श्रेय था या पुरानी स्मृतियों का झंझावात, लेकिन मेरी मनोदशा जाने कैसी हो गई थी. बाहर आकाश में काले बादल घिर रहे थे और बिजली चमक रही थी, पर उससे कहीं अधिक तेज़ी से मेरे मन का मौसम बदल रहा था. एकाएक खिड़की से आती तेज़ हवाओं से मेरे हाथ में पत्र प्रकंपित होने लगा, पर उससे कहीं अधिक वेग से प्रकंपित होता मेरा मन कहां-कहां भटकते हुए मेरे उस अतीत में पहुंच गया, जो अवचेतन में आज भी चैतन्य था.
मैंने अपने गांव में रहकर इंटरमीडिएट परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के साथ मेरिट में भी स्थान पाया था. यह सोचकर कि कहीं प्रतिभाशाली भांजा साधनों के अभाव में अपनी मंज़िल तक पहुंचने से वंचित न रह जाए, इसलिए मेरे एडवोकेट मामा आगे की पढ़ाई के लिए मुझे अपने साथ इलाहाबाद ले गए. हालांकि मुझसे बहुत स्नेह करनेवाले मेरे मामा-मामी ने मुझे अपने बेटे की ही तरह रखा था, परंतु उस उम्र में भी आत्मसम्मान को समझनेवाले मेरे मन में आत्मनिर्भर होने की गहरी आकांक्षा थी, इसलिए मैंने अपनी ज़िद से पढ़ाई के साथ-साथ ट्यूशन पढ़ाने के लिए मामा को राज़ी कर लिया था.
मामा-मामी चकित थे कि उनका इंटरमीडिएट पास भांजा नाइन्थ तक के बच्चों को किस कुशलता से ट्यूशन पढ़ाता था. कुछ समय बाद इनमें डॉक्टर माता-पिता की इकलौती बेटी डॉली भी शामिल हो गई थी, जो हर तरह से मेरे विपरीत थी. जहां मैं साधारण कपड़े पहननेवाला, गंभीर, सीधा-सादा व पढ़ाकू क़िस्म का था, वहीं डॉली एकदम बिंदास, फैशनेबल, चुलबुली, ख़ूबसूरत व मस्तमौला थी. डॉली की चंचल आंखों में मॉडल बनने का ख़्वाब बसा था. 11वीं कक्षा में औसत से भी कम मार्क्स आने पर उसके पिता ने अपने मित्र यानी मेरे मामा से चर्चा की, तो मामाजी ने ट्यूशन के लिए मेरा नाम सुझाया, तो मैं उसका ट्यूटर बन गया. उस समय मैं बीएससी अंतिम वर्ष में था.
इसके बाद ही वो समय आने लगा, जिसने मुझे धर्मसंकट में डाल दिया. ज़ाहिर-सी बात थी कि फिल्में देखने, चैटिंग-शॉपिंग करने, बॉलीवुड के अफेयर्स व अफ़वाहों में रुचि लेनेवाली डॉली का मन पढ़ाई में कम लगता था. शायद उसके पैरेंट्स को उसके स्वभाव का अंदाज़ा हो गया था.
माता-पिता दोनों ही नर्सिंग-होम में आवश्यकता से अधिक व्यस्त रहते थे, इसलिए स्कूल के अलावा घर से बाहर जाने पर पाबंदी थी. यही सब कारण रहे होंगे कि उसने मुझसे ऐसा व्यवहार शुरू किया. कभी मासूम बनकर डॉली ऐसे प्रश्‍न करती कि मैं पसीने-पसीने हो जाता, तो कभी हॉट-पैंट, मिनी स्कर्ट जैसी ड्रेसेज़ पहन आती. कभी मोबाइल में फ्रेंड्स के नॉटी मैसेजेस दिखाती, तो कभी मेरी गर्लफ्रेंड या डेटिंग के बारे में पूछती. सच कहूं, तो उसके व्यवहार से मैं पसोपेश में पड़ जाता कि कल से पढ़ाने आऊं या न आऊं, पर मेरा मन इस परिस्थिति को एक चैलेंज की तरह लेने को कहता.
मैं डॉली के व्यवहार का कारण खोजने का प्रयास करता और उसके पैरेंट्स को ही उत्तरदायी पाकर मुझे डॉली से सहानुभूति ही हो आती. मैं समझ सकता था कि टीनएजर्स तभी भटकते हैं, जब उनको समझाने, स्नेहपूर्ण व्यवहार करने या समय तक देनेवाला घर में अपना कोई न हो. हार्मोंस की क्रियाशीलता, यौवनारंभ के समय होनेवाले दैहिक परिवर्तन, सामाजिक मर्यादाओं की सीमारेखा लांघने के रोमांच, अनजाने आकर्षण की भूल-भुलैया आदि के ऐसे प्रभाव होते हैं, जिन्हें न तो कहा जा सकता है, न ही सहा जा सकता है.
मादक वसंत ॠतु की गुदगुदाती बयार, फागुन के रंगों की बौछार, सावन की पहली फुहार सब तो उस अनुभूति के सामने फीके-से लगते हैं. कभी बिना बात ही मन ऐसा प्रफुल्लित हो जाए कि गुनगुनाने की इच्छा हो, तो कभी अंधेरे कमरे में चुपचाप यूं ही आंसू बहाने का सबब भी समझ न आए. हां, यह चाहत ज़रूर होती है कि कोई तो केयर करनेवाला ऐसा अपना हो, जिससे सब शेयर किया जा सके. परिवार में ही ऐसा अपना होना, जो विश्‍वसनीय हो, अनुभवी हो, अंतरंग हो, तो कितना सहज हो जाता है, लेकिन केयर-शेयर करनेवाला बाहरी होने पर बहुत संवेदनशील स्थितियां होती हैं. भावुक टीनएजर को सरलता से प्रभावित कर अपनापन जताकर प्राय: ग़लत लोग कुत्सित इरादों में सफल हो जाते हैं.
यह तो नहीं कहूंगा कि मैं यौवनावस्था के उद्वेगों से अछूता था, बल्कि सच कहूं, तो कभी-कभी मैं भी सम्मोहित-सा हो जाता था. देह से आती विदेशी परफ्यूम की ख़ुशबू, एकांत में कानों में गूंजते डॉली के रूमानी शब्द, उसकी छेड़खानियां. मुझे लगता, कहीं मैं बहक न जाऊं, परंतु उसी समय मेरे माता-पिता का चेहरा मेरे सामने घूमने लगता. अपनी आवश्यकताओं में कटौती कर किन अपेक्षाओं से उन्होंने मुझे भेजा था. मैं भटक गया, तो मेरे सिविल सर्विसेज़ के सपनों और उन अपेक्षाओं का क्या होगा? क्या मैं मामा-मामी या डॉली के पैरेंट्स का भरोसा तोड़ सकूंगा? डॉली तो नादान है, पर क्या मैं विश्‍वासघात के आरोपों और अपने टूटे सपनों के साथ जी सकूंगा? बस, मेरे मन में उपजते ऐसे ही प्रश्‍न भटकने से रोक लेते. सच तो यह भी है कि मुझे विश्‍वामित्र व मेनका का प्रसंग जीवंत होता-सा लगता.
उस दिन तेज़ बारिश में छतरी के बावजूद मैं भीग गया था. मुझे भीगा देखकर डॉली ने छत पर म्यूज़िक लगाकर रेन डांस का प्रस्ताव रखा. मेरे इंकार करने पर भी वो मेरा हाथ खींचते हुए ऊपर ले गई और बेसाख़्ता बोल गई, ‘आई लव यू’, तो मैं नाराज़ होकर उसके घर से वापस आ गया.
उस दिन मेरी उलझन चरम पर थी. मेरे मन ने कहा कल से बिना कुछ कहे डॉली की ट्यूशन बंद, लेकिन मेरी दीवार पर लिखी सूक्तियों में से, वो सूक्ति जैसे चमक उठी कि अंधकार को धिक्कारने से बेहतर होता है कि दीप प्रज्ज्वलित किया जाए. तब मेरे पास मोबाइल फोन भी न था. मैंने तुरंत काग़ज़-पेन उठाकर पत्र लिखना आरंभ किया.
‘प्रिय डॉली! यह प्रिय न तो शब्द मात्र है और न ही कोई औपचारिक संबोधन. मुझे पता है, तुम्हारे मन में कहीं न कहीं मेरे प्रति कोई आकर्षण है. तुम भी मुझे प्रिय हो, परंतु उस रूप में नहीं, जैसा तुम समझ रही हो. जैसे किसी परिवार के सदस्य एक-दूसरे को प्रिय होते हैं, वैसे ही मैं तुमको भी अपना समझता हूं बस. तुमको यह पता होगा कि तुम्हारे पैरेंट्स मुझे न केवल अपने परिवार का ही एक सदस्य मानते हैं, बल्कि मुझ पर कितना विश्‍वास भी करते हैं. उनको तुमसे भी कितनी अपेक्षाएं हैं. वे तो बस यही समझते हैं कि तुममें बचपना बहुत है. तुम चंचल, स्पष्टवादी व बहिर्मुखी हो, पर उनको तुम पर बहुत विश्‍वास है. मुझे पता है, ऐसे नेचर के बावजूद तुम भीतर से कितनी अकेली हो, कितना इनसिक्योर फील करती हो, क्योंकि सोशल गैदरिंग एंजॉय करने और पार्टियों में चहकनेवाले प्राय: अंदर से तन्हा होते हैं. मुझे पता है तुम किसी अपने को तलाशती रहती हो, जो तुमको समझ सके, तुमको चाहे, सराहे और तुम भी उसको चाहो, पर यह मत भूलो कि भावनाओं की चंचल सरिता में बहते हुए इमोशनल फूल बन जाना समझदारी नहीं होती. और प्रेम? प्रेम के बारे में तुम क्या जानती हो? तुम्हारे जैसे लोग जिसे लव कहते या समझते हैं, वो दरअसल टाइम पास से अधिक कुछ भी नहीं होता. यह क्रश या इन्फैचुएशन भी नहीं होता. यह बात वो रियलाइज़ तो करते हैं, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
डॉली, क्या तुम्हारा कोई लॉन्ग टर्म ऑब्जेक्टिव नहीं है? बस, वर्तमान को एंजॉय करते हुए बर्बाद कर देना ही ज़िंदगी होती है? साधनों के अभाव में मेरे स्ट्रगल की तुम कल्पना भी नहीं कर सकती. तुमको इतने सक्षम व समर्थ पैरेंट्स मिले हैं. माना वे तुमको समय नहीं दे पाते हैं, तो क्या तुम उनको इतनी बड़ी सज़ा दोगी? तुम क्या समझती हो वे तुम्हारी इन हरक़तों को बचपना समझकर भूल पाएंगे? नहीं डॉली, वे टूट जाएंगे. उनको आशा है कि उनकी बेटी भले ही चंचल हो, लेकिन अंतत: वो अपनी मंज़िल पा लेगी. तुम्हारी ऐसी भूल को वो अल्हड़ता कहकर माफ़ नहीं कर पाएंगे. कम से कम मैं तो विश्‍वासघात नहीं कर पाऊंगा. मैं बहुत साधारण परिवार का हूं, जिसका सपना सिविल सर्विसेज़ है. मेरे पूरे परिवार को मुझसे बहुत आशाएं हैं और मैं चाहकर भी भटक नहीं सकता.
तुम भी डॉक्टर बनना चाहती थी और वो तुम्हारे पैरेंट्स की इच्छा नहीं, तुम्हारा सपना था. आज की इस चकाचौंध भरी ज़िंदगी की मरीचिका में तुम भटक गई हो. तुम्हारे मार्क्स कम होने का कारण यह नहीं है कि तुम पढ़ने में ख़राब हो, बल्कि तुम पढ़ाई को सीरियसली नहीं ले रही हो. अगर तुम ठान लो, तो क्या नहीं कर सकती हो? कितना अच्छा हो, अगर हम अपने सपनों को साकार करें. लाइफ को एंजॉय करने के बहुत मौ़के मिलेंगे, लेकिन अगर हमने आज को खो दिया, तो जीवन बनाने का मौक़ा दोबारा नहीं मिलेगा. मैं अपनी सिविल सर्विसेज़ की तैयारी का बहाना करके कल से आना बंद कर रहा हूं. मुझे विश्‍वास है कि तुम भी दिल की अच्छी हो और तुम अपने को बदलने का एक प्रयास अवश्य करोगी. अगर तुम अपने को बदल सकी, तो मैं उसे ही तुम्हारा एक गिफ्ट समझ लूंगा.’
‘तुम्हारा स़िर्फ एक गाइड’ डॉली को वो पत्र देकर फिर मैं प्रतियोगी परीक्षाओं में व्यस्त हो गया था. आईएएस की परीक्षा में दो बार साक्षात्कार देने के बाद भी असफलता की मायूसी को पीसीएस में चयन ने कुछ सीमा तक कम तो किया ही था. अब मैं वर्तमान में लौट चुका था और संयत होकर शेष पत्र पढ़ने लगा.
‘अगर आप मेरे जीवन में नहीं आए होते, तो आज मैं क्या होती, इसकी कल्पना तक मुझे शर्मसार कर देती है. आपके लेटर ने मुझ पर क्या प्रभाव डाला, मैं बता नहीं सकती. मैं अपनी ज़िद से राजस्थान के कोटा शहर में कोचिंग के लिए चली गई और जब पहले प्रयास में ही मेरा मेडिकल में सिलेक्शन हुआ, तब से ही आपको ढूंढ़ रही हूं. सर, आपको मैंने कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा. सभी सोशल वेबसाइट्स पर सर्च किया, पर कोई फ़ायदा नहीं. वो तो एक दिन न्यूज़चैनल पर अपर ज़िलाधिकारी, फैज़ाबाद के तौर पर आपको देखा, तो तुरंत आपको पहचान लिया. सर, आज के समय में बिना मोबाइल नंबर, ईमेल या पते के आपका मिल जाना भगवान का आशीर्वाद ही लगता है.
मम्मी-पापा ठीक हैं और आपको बहुत याद करते हैं. सर, प्लीज़ रिप्लाई ज़रूर कीजिएगा, पर लेटर नहीं, नीचे लिखे नंबर पर तुरंत कॉल कीजिएगा. बाक़ी बातें बाद में.’

‘आपकी डॉली’

इतना पढ़कर मैं भी भावुक हो गया और डॉली को फोन करने के लिए मोबाइल फोन उठा लिया.

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