उसे दूर नज़रों से ओझल होता देख शैली सोचने लगी कि जैसे मृग अपनी नाभि में धारण किए कस्तूरी को…
वह जाने को मुड़ी ही थी कि आगन्तुक की चिरपरिचित आवाज़ ने उसे चौंका दिया, “कैसी हैं शैलीजी...?” जड़ बनी…
फिर तो रोज़ मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह रोज़ शैली के लिए सीट रोके रखता. उसकी जिज्ञासाएं इतनी…
“एज्युकेशन कभी व्यर्थ नहीं जाती बेवकूफ़, ज़िंदगीभर काम आती है?” हाथ धोते हुए शैली ने कहा. “और कहीं काम आती…