कहानी- मन की कस्तूरी 2 (Story Series- Mann Ki Kasturi 2)

फिर तो रोज़ मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह रोज़ शैली के लिए सीट रोके रखता. उसकी जिज्ञासाएं इतनी ज़्यादा होतीं कि लगभग सारे समय अंतहीन प्रश्‍नों का भिंडी बाज़ार लिए वहीं डटा रहता और शैली चुप. वह कौन है, क्या करता है, कहां से आता है, कहां जाता है, जब तक शैली के कुछ पूछने की बारी आती, वह उतर चुका होता.

“शैली… आप ही हैं ना?” भीड़ में से किसी ने उसे पुकारा था.

“ये आइटम आपका है?” शैली ने अपना बैग चेक किया. वाकई उसका आइटम मिसिंग था. चेहरे पर मुस्कुराहट के साथ अजीब से भाव लिए वो खड़ा था एकदम सामने. आस-पास बैठे लोग घृणा का भाव लिए दूर खिसक लिए सिवाय उसके. अपना अकड़ा हुआ फ्रॉग लेते हुए शैली मुश्किल से स़िर्फ ‘थैंक्स’ कह पाई थी.

“पहले आप नाश्ता कर लें.” शैली का बैग हाथ में पकड़े हुए वह साथ वाली सीट पर बैठ गया था. शैली कॉलेज के सामने से बस पकड़ती और वो कहीं पीछे से आता था. “पर उसे मेरा नाम कैसे पता…?”

“आप सोच रही होंगी कि आपका नाम मुझे कैसे पता, है न?” शैली और हैरान, पहले तो शर्मिन्दा किया और अब अचंभित कर रहा है.

“फ्रॉग पर लिखा था, अब शैली किसी मेंढक का नाम तो नहीं हो सकता न?”

“ओह.” मूढ़मति-सी समोसा खाते हुए उस बन्दे को ताकती रह गई थी वह.

“क्या बायोलॉजी के सारे विद्यार्थी एक-एक जीव के हत्यारे होते हैं?”

“एक ही क्यों? जाने कितने जीव-कीट-पतंगे, केंचुए…” शैली ने हंसते हुए जवाब दिया.

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फिर तो रोज़ मिलने का सिलसिला शुरू हो गया. वह रोज़ शैली के लिए सीट रोके रखता. उसकी जिज्ञासाएं इतनी ज़्यादा होतीं कि लगभग सारे समय अंतहीन प्रश्‍नों का भिंडी बाज़ार लिए वहीं डटा रहता और शैली चुप. वह कौन है, क्या करता है, कहां से आता है, कहां जाता है, जब तक शैली के कुछ पूछने की बारी आती, वह उतर चुका होता.

“जीव-जन्तु, वनस्पति इन सबका इतना वृहत् मान… इस ज्ञान को कहां जाकर सद्गति मिलेगी?” निसंदेह बन्दे की वाकपटुता और सेन्स ऑफ़ ह्यूमर शैली को प्रभावित करता, पर इस प्रश्‍न ने अभिमानी, प्रतिभाशाली शैली के अहम् को ललकारा था.

“होगा क्या… अपना ज्ञान लिए कुएं में कूदूं या पेड़ पर लटकूं, तुमसे मतलब?” उसका खीझा हुआ जवाब था.

“ज्ञान चाहे जैसा हो, कभी व्यर्थ नहीं जाता.”

“ये मगजमारी, मेरे माता-पिता की तपस्या क्या यूं ही व्यर्थ चली जाएगी?”

“नहीं-नहीं, व्यर्थ क्यों जाएगी.”

शैली के टेढ़े मुंह की ओर देखता वह बोल पड़ा, “बच्चों को पढ़ाने के काम आएगी…है न?” कहकर वह सदा की भांति मुस्कुराता हुआ अपने स्टॉप पर उतर गया… और ये वाक्य शैली को तीर से जा लगे थे. सांप और स्त्री पलटवार करने का मौक़ा कभी नहीं चूकते. इसका सटीक और मुंहतोड़ जवाब सोचे वह कई दिनों तक उसे ढूंढ़ती रही, पर वह अजनबी फिर कभी नज़र नहीं आया.

       पूनम मिश्रा

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