हम सभी फिल्में मनोरंजन के लिए देखते हैं, लेकिन कुछ फिल्में ऐसी भी होती हैं, जो मजोरंजन के साथ-साथ हमें बहुत कुछ सिखा जाती हैं. ये फिल्में हमें ज़िंदगी को एक नए नज़रिये से देखने के लिए मजबूर कर देती हैं. किसी फिल्म के ख़त्म होने पर आपने भी महसूस किया होगा कि कैसे हम आत्मविश्वास से भर जाते हैं और अंदर से ऐसी भावना आती है कि हम भी जो चाहें कर सकते हैं. बॉलीवुड की ऐसी ही कुछ फिल्मों के बारे में यहां हम चर्चा करेंगे, जिन्होंने न सिर्फ़ अनगिनत अवॉर्ड्स बटोरे, बल्कि दर्शकों को जीने का फलसफा भी सिखाया.
नासा में काम करनेवाला एक कामयाब हिंदुस्तानी साइंटिस्ट भारत आता है, ताकि अपनी नैनी को अमेरिका ले जा सके. भारत आने पर अपने लोगों और उनकी ज़रूरतों के बीच उसे एहसास होता है कि उसकी ज़रूरत नासा से ज़्यादा यहां स्वदेश में है. आशुतोष गोवारिकर की यह फिल्म बेहद सरल और दिल को छू लेनेवाली है. फिल्म का संगीत भी अच्छा है. स्वदेश का टाइटल सॉन्ग हर हिंदुस्तानी के दिल में देशभक्ति को जोश भरने के लिए काफ़ी है. फिल्म से सीख मिलती है कि अपने लिए तो सभी जीते हैं, अपनों के लिए जियें तो कोई बात है.
एक ऐसा लड़का जो गूंगा-बहरा है, लेकिन उसके जीवन का एकमात्र लक्ष्य इंडिया के लिए क्रिकेट खेलना है. न सुनने की शक्ति और न ही बोलने की क्षमता के बावजूद क्रिकेट के लिए उसका जुनून बेहद रोमांचक होता है. टीम इंडिया तक उसका सेलेक्शन देखने के काबिल होता है. नागेश कुकूनर की यह फिल्म बेहद इंस्पायरिंग है.
5 दोस्तों की यह कहानी दोस्ती की एक नई मिशाल पेश करती है. अपने दोस्त के लिए न्याय दिलाना ही उनके जीवन का मकसद बन जाता है. राजनीति पर भी अच्छा कटाक्ष किया गया है इस फिल्म में. इसके अलावा फिल्म इमोशंस, कॉमेडी, एक्शन और सस्पेंस से भरपूर है. एक बार फिल्म ज़रूर देखें.
सफल लोगों को बहुत से लोग पढ़ते और सुनते हैं, पर बहुत कम लोग होते हैं, जो उनकी सीख और बातों को अपने जीवन में लागू करते हैं. बहुत से बच्चों की तरह छोटू भी राजस्थान का रहनेवाला एक छोटा बच्चा है, जो ढाबे पर काम करता है. एक दिन वो अब्दुल कलाम को सुनता है और उनसे इतना प्रभावित होता है कि अपना नाम भी कलाम रख लेता है. वह बड़ा होकर अब्दुल कलाम जैसा बनना चाहता है और उनसे मिलने दिल्ली भी पहुंच जाता है. एक बच्चे के हौसले की यह कहानी बेहद दिलचस्प है, जो हम सभी को हर परिस्थिति में ज़िंदगी में आगे बढ़ने का हौसला देती है.
अमोल गुप्ते की यह फिल्म ज़िंदगी की एक ऐसी सच्चाई से हम सबसे रूबरू कराती है कि हमें अपनी परेशानियां उस बच्चे के आगे छोटी नज़र आती हैं. स्टेनली अपने स्कूल में कभी लंच बॉक्स लेकर नहीं जाता, लेकिन उसके दोस्त इतने अच्छे हैं कि वो रोज़ उसे अपने डिब्बे में से खिलाते हैं. लेकिन एक टीचर स्टेनली के डिब्बे के पीछे पद जाता है. उसके बाद किस तरह वो डिब्बा लेकर स्कूल जाता है, वह काफ़ी इमोशनल है.
– अनीता सिंह
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