तेज़ आवाज़ में गाने सुनने से सुनने की क्षमता कमज़ोर हो सकती है या बहरापन आ सकता है. शुरू में इस पर कोई ध्यान नहीं देता और धीरे-धीरे समस्या स्थाई बन जाती है. बाद में यह बहरेपन का रूप ले लेती है या फिर कानों में हर समय दर्द भी रहने लगता है.
हाल में हुए रिसर्च में खुलासा हुआ है कि लंबे समय तक तेज़ आवाज़ सुनने से सुनने की क्षमता प्रभावित हो सकती है, क्योंकि तेज़ ध्वनि ईयर ड्रम को नुक़सान पहुंचा कर उसे पतला कर देती है. आमतौर पर लोगों की श्रवण क्षमता 50 साल की उम्र के बाद प्रभावित होती है, लेकिन आजकल यह समस्या युवाओं में भी देखी जा रही है. इसका एकमात्र कारण तेज़ वॉल्यूम में आवाज़ें सुनना है. तेज ध्वनि के कारण शुरू में कानों की रोम सेल्स यानी सेंसरी सेल्स अस्थाई रूप से क्षतिग्रस्त होती हैं. रोम सेल्स के डैमेज होने की बीमारी को टाइनाइटस कहते हैं. इससे एक कान में सुनाई देना बंद हो जाता है. हालांकि शरीर अपनी मरम्मत भी कर लेता है या मेडिकल इलाज से इन्हें ठीक किया जा सकता है.
आरंभ में तेज़ ध्वनि से कानों की रोम सेल्स अस्थाई रूप से डैमेज होती हैं तो लोग ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि इसका कानों पर कुछ ज़्यादा असर नहीं पड़ता. लिहाज़ा लोग क्षतिग्रस्त सेल्स का ठीक तरह से इलाज नहीं करवाते, जिससे सेल्स की मरम्मत ठीक से नहीं हो पातीं और बहरापन स्थाई हो जाता है. ईयरफोन बहुत ऊंची आवाज में सुननेवालों को धीमी आवाज़ नहीं सुनाई देती. रिसर्च करनेवालों के मुताबिक़, अगर कोई व्यक्ति रोज़ाना एक घंटे से ज़्यादा समय तक 80 डेसीबेल्स से अधिक तेज़ वॉल्यूम में संगीत सुनता है, तो उसे कम से कम पांच साल में सुनने की समस्या से जूझना पड़ सकता है या फिर वह स्थाई रूप से बहरा हो सकता है.
हैंड्सफ्री सुनने की ताकत तो छीन ही रहा है, साथ ही इससे याद्दाश्त और बोलने की क्षमता भी प्रभावित हो रही है. इतना ही नहीं, कई तरह की मानसिक समस्याएं भी पैदा हो रही हैं. ऐसे में व्यक्ति इंसोमेनिया, डिप्रेशन और पल्पिटेशन यानी कांपना जैसी बीमारियों से ग्रसित हो सकते हैं. बहरेपन के शुरुआती दिनों में नींद न आना, चक्कर और सिरदर्द जैसे लक्षण दिखते हैं और फिर सुनाई देना बंद हो जाता है.
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कॉल सेंटर अटेंडर, डीजे व आरजे के लिए यह बहुत ज़्यादा नुक़सानदायक है. लगातार हेडफोन के इस्तेमाल से शरीर में ऐसे रसायन पैदा होने लगते हैं, जो मस्तिष्क की कार्य प्रणाली को नुक़सान पहुंचाते हैं. इसकी वजह से मानसिक विकृतियां पैदा होती हैं और धीरे-धीरे मस्तिष्क पर से व्यक्ति का नियंत्रण हट जाता है और छोटे-बड़े हादसे हो जाते हैं. वंशानुगत बीमारी, डायबिटीज़, धूम्रपान के कारण बहरेपन का ख़तरा ज़्यादा बढ़ जाता है. ऊंची आवाज से कान के विभिन्न हिस्सों को इतना नुक़सान पहुंचता है कि वह कभी ठीक ही नहीं हो पाते हैं. इसके चलते इंसान बहरेपन का शिकार हो जाता है. ईयरफोन या हेडफोन पर गाने सुनने की समय की सीमा आठ घंटे से कम होनी चाहिए. डॉक्टरों के मुताबिक़, हेडफोन कानों को तब नुक़सान पहुंचाते हैं, जब लगातार आठ घंटे से ज़्यादा इनका इस्तेमाल किया जाए. ये आम युवाओं के लिए इतने घातक नहीं हैं. इनका निगेटिव असर कॉल सेंटर के लोगों, डीजे या आरजे पर ज़्यादा होता है.
60-60 फॉर्मूला
कई एक्सपर्ट 60-60 का फॉर्मूला अपनाने को सुझाते हैं. साठ मिनट तक साठ फ़ीसदी वॉल्यूम पर संगीत सुनना चाहिए, फिर साठ मिनट का ब्रेक लेना चाहिए. इस तरह से कानों और दिमाग़ दोनों को बहुत ज़्यादा आराम मिलता है. कान में दर्द या दिमाग़ी थकान जैसी शिकायतें नहीं होती हैं. इसलिए ईयरफोन से संगीत सुनते समय इस फॉर्मूले का प्रयोग करना चाहिए.
ईयर बड ज़्यादा ख़तरनाक
कई एक्सपर्ट मानते हैं कि ईयर बड कानों को ईयरफोन से ज़्यादा नुकसान पहुंचाती है. इसका कारण यह कि ईयर बड सामान्य वॉल्यूम को आठ गुना तक बढ़ा कर हमारे कानों तक पहुंचाती है, जिससे कानों को नुक़सान होने की संभावना ज़्यादा बढ़ जाती है, इसलिए बिना ईयर बडवाले ईयरफोन या हेडफोन का इस्तेमाल करें. इसी तरह से ऐसे ईयरफोन का चयन न करें, जो कानों की गहराई तक जाता हो, इससे भी कानों को नुक़सान हो सकता है.
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