बेहिसाब ख़ामोशियां… चंद तन्हाइयां… कुछ दबी सिसकियां, तो कुछ थकी-हारी परछाइयां… बहुत कुछ कहने को था, पर लबों में ताक़त नहीं थी… मगर अब व़क्त ने लफ़्ज़ों को अपने दायरे तोड़ने की इजाज़त जो दी, तो कुछ वर्जनाएं टूटने लगीं… दबी सिसकियों को बोल मिले, तो ख़ामोशियां बोल उठीं, तन्हाइयां काफ़ूर हुईं, तो परछाइयां खुले आसमान में उड़ने का शौक़ भी रखने लगीं… बराबरी का हक़ अब कुछ-कुछ मिलने लगा है… बराबरी का एहसास अब दिल में भी पलने लगा है…
हम भले ही लिंग के आधार पर भेदभाव को नकारने की बातें करते हैं, लेकिन हमारे व्यवहार में, घरों में और रिश्तों में वो भेदभाव अब भी बना हुआ है. यही वजह है कि रिश्तों में हम बेटियों की ज़िम्मेदारियां तो तय कर देते हैं, लेकिन बेटों को उनकी हदें और ज़िम्मेदारियां कभी बताते ही नहीं. चूंकि अब समाज बदल रहा है, तो बेहतर होगा कि हम भी अपनी सोच का दायरा बढ़ा लें और रिश्तों में बेटों को भी ज़िम्मेदारी का एहसास कराएं.
घर के काम की ज़िम्मेदारियां
– अक्सर भारतीय परिवारों में घरेलू काम की ज़िम्मेदारियां स़िर्फ बेटियों पर ही डाली जाती हैं. बचपन से ङ्गपराये घर जाना हैफ की सोच के दायरे में ही बेटियों की परवरिश की जाती है.
– यही वजह है कि घर के काम बेटों को सिखाए ही नहीं जाते और उनका यह ज़ेहन ही नहीं बन पाता कि उन्हें भी घरेलू काम आने चाहिए.
– चाहे बेटी हो या बेटा- दोनों को ही हर काम की ज़िम्मेदारी दें.
– बच्चों के मन में लिंग के आधार पर काम के भेद की भावना कभी न जगाएं, वरना अक्सर हम देखते हैं कि घर में भले ही भाई अपनी बहन से छोटा हो या बड़ा- वो बहन से अपने भी काम उसी रुआब से करवाता है, जैसा आप अपनी बेटी से करवाते हैं.
– पानी लेना, चाय बनाना, अपने खाने की प्लेट ख़ुद उठाकर रखना, अपना सामान समेटकर सली़के से रखना आदि काम बेटों को भी ज़रूर सिखाएं.
बड़ों का आदर-सम्मान करना
– कोई रिश्तेदार या दोस्त घर पर आ जाए, तो बेटी के साथ-साथ बेटे को भी यह ज़रूर बताएं कि बड़ों के सामने सलीक़ा कितना
ज़रूरी है.
– चाहे बात करने का तरीक़ा हो या हंसने-बोलने का, दूसरों के सामने बच्चे ही पैरेंट्स की परवरिश का प्रतिबिंब होते हैं. ऐसे में बहुत ज़रूरी है कि बेटों को भी वही संस्कार दें, जो बेटियों को हर बात पर दिए जाते हैं.
– लड़कियों से कैसे बात करनी चाहिए, किस तरह से उनकी ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए, उन्हें किस तरह से सम्मान देना चाहिए… आदि बातों की भी शिक्षा ज़रूरी है.
– घर व बाहर भी बुज़ुर्गों से कैसे पेश आना चाहिए, अगर उनके पास कोई भारी सामान वगैरह है, तो आगे बढ़कर उठा लेना चाहिए, उनके साथ व़क्त बिताना, उनसे बातें शेयर करना, उनका हाथ थामकर सहारा देना आदि व्यवहार बेटों को संवेदनशील बनाने में सहायता करेगा और वो अपनी ज़िम्मेदारियां बेहतर तरी़के से समझ व निभा पाएंगे.
अनुशासन ज़रूरी है
– तुम सुबह जल्दी उठने की आदत डालो, तुम्हें शादी के बाद देर तक सोने को नहीं मिलेगा… टीवी देखना कम करो और खाना बनाने में मदद करो, कुछ अच्छा सीखोगी, तो ससुराल में काम ही आएगा… शाम को देर तक घर से बाहर रहना लड़कियों के लिए ठीक नहीं… आदि… इस तरह की बातें अक्सर मांएं अपनी बेटियों को सिखाती रहती हैं, लेकिन क्या कभी बेटों को अनुशासन सिखाने पर इतना ज़ोर दिया जाता है?
– घर से बाहर रात को कितने बजे तक रहना है या सुबह सोकर कितनी जल्दी उठना है, ये तमाम बातें अनुशासन के दायरे में आती हैं और अनुशासन सबके लिए समान ही होना चाहिए.
– खाना बनाना हो या घर की साफ़-सफ़ाई, बेटों को कभी भी इन कामों के दायरे में लाया ही नहीं जाता, लेकिन यदि कभी ऐसी नौबत आ जाए कि उन्हें अकेले रहना पड़े या अपना काम ख़ुद करना पड़े, तो बेहतर होगा कि उन्हें इस मामले में भी बेटियों की तरह ही आत्मनिर्भर बनाया जाए. बेसिक घरेलू काम घर में सभी को आने चाहिए, इसमें बेटा या बेटी को आधार बनाकर एक को सारे काम सिखा देना और दूसरे को पूरी छूट दे देना ग़लत है.
शादी से पहले की सीख
– शादी से पहले बेटियों को बहुत-सी हिदायतों के साथ विदा किया जाता है, लेकिन क्या कभी बेटों को भी हिदायतें दी जाती हैं कि शादी के बाद उसे कैसा व्यवहार करना चाहिए? यक़ीनन नहीं.
– बेहतर होगा कि बेटों को भी एडजेस्टमेंट करना सिखाया जाए.
– नए रिश्तों से जुड़ने के बाद की ज़िम्मेदारियां समझाई जाएं.
– किस तरह से नई-नवेली दुल्हन को सपोर्ट करना है, उसके परिवार से किस तरह से जुड़ना है आदि बातें बेटों को भी ज़रूर बताई जानी चाहिए.
– हालांकि भारतीय पैरेंट्स से इस तरह की उम्मीद न के बराबर ही होती है कि वो इस तरह से अपने बेटे को समझाएं, लेकिन आज समय बदल रहा है, तो लोगों की सोच में भी कुछ बदलाव आया है.
– आज की जनरेशन काफ़ी बदल गई है. फिर भी यदि पैरेंट्स नहीं समझा सकते, तो प्री मैरिज काउंसलिंग के लिए ज़रूर काउंसलर के पास जाना चाहिए.
शादी के बाद
– अक्सर शादी के बाद बहुओं को हर कोई नई-नई सीख व सलाहेें देता पाया गया है, लेकिन बेटों को शायद ही कभी कोई ज़िम्मेदारियों की बातें समझाता होगा.
– शादी स़िर्फ लड़की ने लड़के से नहीं की होती, बल्कि यह दोनों तरफ़ का रिश्ता होता है, तो ज़िम्मेदारियां भी समान होनी चाहिए.
– बेटों को यह महसूस कराना ज़रूरी है कि स़िर्फ बहू ही नए माहौल में एडजेस्ट नहीं करेगी, बल्कि उन्हें भी पत्नी के अनुसार ख़ुद को ढालने का प्रयत्न करना होगा, पत्नी को हर काम में सहयोग करना होगा और पत्नी की हर संभव सहायता करनी होगी, ताकि वो बेहतर महसूस कर सके.
– इसके अलावा जितने भी रीति-रिवाज़ व परंपराएं हैं, उन्हें निभाने की ज़िम्मेदारी भी दोनों की होनी चाहिए.
– अक्सर शादी के बाद ससुरालपक्ष और मायके, दोनों को निभाने की ज़िम्मेदारी लड़की पर ही छोड़ दी जाती है. जबकि कोई भी मौक़ा या अवसर हो, तो ज़रूरी है लड़के भी उसमें उतनी ही ज़िम्मेदारी के साथ शामिल हों, जितना लड़कियों से उम्मीद की जाती है.
– इसके लिए बेहतर होगा कि जब भी घर में या किसी रिश्तेदार के यहां भी कोई अवसर पड़े, जैसे- किसी का बर्थडे या शादी, तो बेटों को उनके काम व ज़िम्मेदारी की लिस्ट थमा दी जानी चाहिए कि ये काम तुम्हारे ही ज़िम्मे हैं. इसी तरह घर के हर सदस्य को उसका काम बांट देना चाहिए. इससे वो ज़िम्मेदारी से न तो पीछा छुड़ा पाएंगे और न ही भाग पाएंगे.
बच्चों की ज़िम्मेदारियां
– बच्चा दोनों की ही ज़िम्मेदारी होता है, लेकिन इसे निभाने का ज़िम्मा अनकहे ही मांओं पर आ जाता है.
– बच्चे से जुड़ी हर छोटी-बड़ी चीज़ के लिए घर के सदस्यों से लेकर ख़ुद पति भी अपनी पत्नी से ही जवाब मांगते हैं.
– लेकिन अब बेटों को यह एहसास कराना ज़रूरी है कि बच्चों के प्रति वो भी उतने ही जवाबदेह हैं, जितना वो अपनी पत्नी को समझते हैं.
– पैरेंट्स मीटिंग हो या बच्चों को होमवर्क करवाना हो, माता-पिता को ज़िम्मेदारी बांटनी होगी. लेकिन अक्सर हमारे परिवारों में बेटे शुरू से अपने घरों में अपनी मम्मी को ये तमाम काम करते देखते आए हैं, लेकिन आज के जो पैरेंट्स हैं, वो अपने परिवार से इसकी शुरुआत कर सकते हैं, ताकि उनके बेटों को आगे चलकर रिश्तों में ज़िम्मेदारियों का एहसास हो सके.
करियर की ज़िम्मेदारी
– आजकल वर्किंग कपल्स का कल्चर बढ़ता जा रहा है, लेकिन जब भी कॉम्प्रोमाइज़ करने की बारी आती है, तो यह समझ लिया जाता है कि पत्नी ही करेगी, क्योंकि बेटों को तो कॉम्प्रोमाइज़ करना कभी सिखाया ही नहीं जाता.
– आप ऐसा न करें. बेहतर होगा कि मिल-बांटकर ज़िम्मेदारी निभाना सिखाएं. बांटने, शेयर करने व सपोर्ट करने का जज़्बा बेटों में भी पैदा करें. बचपन में अपनी बहन के लिए वे ये सब करेंगे, तो आगे चलकर महिलाओं के प्रति सम्मान का भाव बढ़ेगा और वो बेहतर पति साबित होंगे.
– घर में बहन न भी हो, तो भी महिलाओं के प्रति सम्मान व समान भाव रखने की भावना उनमें ज़रूर होनी चाहिए और ऐसा तभी होगा, जब उनकी परवरिश इस तरह से की जाएगी.
– अगर दोनों ही थके-हारे घर आते हैं, तो काम भी मिलकर करना होगा, वरना पत्नी आते ही घर के काम में जुट जाती है और पति महाशय फ्रेश होकर टीवी के सामने चाय की चुस्कियां लेते हुए पसर जाते हैं.
– गीता शर्मा
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