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मैं ऐक्टर हूं और कैमरे के लिए परफॉर्म करता हूं- पवन मल्होत्रा (I am An Actor And I Perform For The Camera- Pavan Malhotra)

कुछ ऐसे कलाकार होते हैं जो पर्दे पर दिखें न दिखें, लेकिन उनकी गैरमौजूदगी का कभी एहसास नहीं होता. भले ही वो सोच-समझकर वक़्त लेकर फिल्में करें, लेकिन जैसे ही वो पर्दे पर आते हैं, बस, छा जाते हैं. हम बात कर रहे हैं वर्सटाइल ऐक्टर पवन मल्होत्रा की. सलीम लंगड़े पे मत रो, बाघ बहादुर, नुक्कड़ जैसे मास्टर पीस देने वाले पवन रियल लाइफ में बेहद ही सुलझे हुए इंसान हैं. भाग मिल्खा भाग, रुस्तम, परदेस, चिल्ड्रेन ऑफ वॉर, ब्रदर्स इन ट्रबल, जब वी मेट, ब्लैक फ्राइडे, पंजाब 1984, मुबारकां, जुड़वां 2 जैसी कई बेहतरीन फिल्मों में अपने अभिनय से दर्शकों के दिल में ख़ास जगह बनाने के लिए उन्होंने काफ़ी मेहनत की है. नॉन फिल्मी बैकग्राउंड से होने के बावजूद पवन मल्होत्रा के लिए दिल्ली से मुंबई तक और फिर धारावाहिक से फिल्मों में सफलता हासिल करने तक का सफ़र बेहद ही शानदार रहा है. आइए, जानते हैं उनके बारे में ऐसी ही और कई बातें (Exclusive Interview with Pavan Raj Malhotra).

      

पवन जी सबसे पहला सवाल आप से यही है कि आपने हिंदी सिनेमा को कई बेहतरीन फिल्में दी हैं. बॉलीवुड में 25 साल का सफ़र शानदार रहा है. जब भी आप कोई फिल्में चुनते हैं तो क्या सोचकर या देखकर चुनते हैं?

इंस्टिंक्ट होता है. ऐसा कोई फिक्स रूल तो नहीं है. लेकिन हां, ये जानना ज़रूरी होता है कि आप किसके साथ काम कर रहे हैं. क्या फिल्म है, कैसा किरदार है यह सब जानना ज़रूरी होता है. एक ऐक्टर होने के नाते मैं तो यही चाहता हूं कि हर तरह की फिल्म का हिस्सा बनूं. जब हम कोई शार्ट स्टोरी की किताब ख़रीदते हैं, तो उसमें अलग-अलग कहानियां होती हैं, एक ही तरह की कहानियां तो नहीं होती हैं ना. एक ऑडियंस के तौर पर मुझे भी अलग-अलग फिल्में देखना पसंद है. जुड़वां 2 जैसी फिल्म करने का मेरा कारण यह भी था कि जो लोग सोचते हैं कि ये तो हमेशा बहुत ही सीरियस या मीनिंगफुल सिनेमा करते हैं, तो यह एक तरह का विज़िटिंग कार्ड है कि मैं इस तरह की फिल्में भी कर सकता हूं. लोग भूल गए हैं कि मैंने बदमाश कंपनी, जब वी मेट, मुबारकां जैसी फिल्में भी की हैं.

आपका रिएक्शन क्या होता है, जब लोग आपसे पूछते हैं कि आप तो कैरेक्टर रोल ही करते हैं?

कई लोग मुझसे पूछते हैं कि आप तो कैरेक्टर रोल्स ही करते हैं, तो मैं उन्हें सलीम लंगड़े पे मत रो, बाग बहादूर, ब्लैक फ्राइडे, ब्रदर्स इन ट्रबल जैसी फिल्मों की याद दिला देता हूं, जिसमें मैंने मेन रोल भी किया है. मैं किरदार पकड़कर चलता हूं. मेन रोल का मतलब ये नहीं कि आप हीरोपंती ही करें. मैं ये मानता हूं कि स्क्रिप्ट में आपको आपके किरदार के मुताबिक़ ही चलना होता है. भले ही आप मेन रोल में हों, लेकिन फिर भी आप तो किरदार ही कर रहे होते हैं ना. हम तो तीस साल से यही करते आ रहे हैं. मुबारकां हो या कोई और फिल्म हो जिसमें हम कॉमेडी कर रहे हैं, तो उसका मतलब ये नहीं कि आप टेढ़े-मेढ़े मुंह बना रहे हैं. आप फिल्म के कैरेक्टर और सिचुएशन के मुताबिक़ काम करते हैं. आपको अपने किरदार के साथ ऑनेस्ट रहना ज़रूरी होता है. ऐक्टिंग स्टाइल की बात नहीं है. स्टाइल तब ज़रूरी होता है, जब उस किरदार की ज़रूरत हो कि वो स्टाइल में रहे.

क्या आपने स्कूल-कॉलेज के दिनों में कभी सोचा था कि आपका करियर फिल्मों की तरफ़ बढ़ेगा?

थिएटर में जाना एक इत्तेफाक़ था. मुझ पर भगवान की बहुत कृपा रही है. जैसे लहर लहराती गई, उस दिशा में हम तैरते गए. थिएटर भी एक दोस्त ले गया, क्योंकि उनको भीड़ चाहिए थी. वहां पहले प्ले में छोटे-छोटे रोल्स किए. उसमें काम अच्छा किया तो उन्होंने कहा मेंबर क्यों नहीं बन जाते. उसके बाद फैज़ल अलकादि का दिल्ली में थिएटर ग्रुप जॉइन किया. फैज़ल मुझे रोल देते गए. स्कूल और कॉलेज में थिएटर करना शुरू किया था. फिर थिएटर के लिए अवॉर्ड मिलने लगे. इसके बाद लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि मुंबई चले जाओ, तब मैं सोचता था कि वहां मुझे कौन काम देगा. मुंबई के बारे में कभी सोचा ही नहीं था, क्योंकि मैं उस दायरे में आता ही नहीं था. लेकिन भगवान ने मेरे लिए कुछ प्लान कर रखा था. किसी ने मुझे कहा कि आ जाओ मुंबई, 5-6 महीने बाद अगर नहीं पसंद आया तो चले जाना वापस. मैं एक बार ख़ुद को मौक़ा देना चाहता था. धीरे-धीरे काम चलता गया, लोग भी अच्छे मिलते गए. जब मैं प्रोडक्शन किया करता था या असिस्टेंट डायरेक्टर था, तो कुंदन शाह, सईद मिर्ज़ा, अभिनव चोपड़ा जैसे अच्छे लोगों के साथ काम करता गया.

कम ही लोग जानते हैं कि रिचर्ड एटनबरो की गांधी फिल्म में आप वॉर्डरोब असिस्टेंट रह चुके हैं.

हां, ये उन दिनों की बात है, जब मैं दिल्ली में था. जब ये फिल्म मिली थी, तब तक मैंने कभी किसी फिल्म की शूटिंग तक नहीं देखी थी. जब मुझे फोन आया तो मेरा रिएक्शन ये था कि मुझे तो ये काम आता ही नहीं है. मुझे उन्होंने एक हफ़्ते के लिए बुलाया था, फिर जाने के लिए कहा ही नहीं. मैं अपने काम को एंजॉय कर रहा था, क्योंकि मेरे लिए सब कुछ नया था. फिर उन्होंने वॉर्डरोब इंचार्ज बनाकर मुंबई आने के लिए भी कह दिया. मैंने कभी कुछ भी प्लान नहीं किया, सब कुछ होता चला गया. अच्छे सीरियल्स भी मिले. हमेशा कोशिश यही थी कि मैं अच्छे और अलग काम करूं.

आप काम से कई बार ब्रेक ले लेते हैं, जबकि बॉलीवुड में पर्दे पर या मीडिया में दिखते रहना बेहद ज़रूरी माना जाता है.

मुझे कई लोग कहते हैं कि आउट ऑफ साइट आउट ऑफ माइंड, कुछ ना कुछ काम करते रहो, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता. मैं हमेशा सोचता हूं कि ऐक्टर को कभी ना भी बोलना आना चाहिए. थोड़े दिन घर में पॉज़ लेना पड़ गया, तो आप डर जाएं ऐसा नहीं होना चाहिए. अगर न दिखने का डर है तो ऐसा प्रोफेशन चुनना ही नहीं चाहिए. मैं मानता हूं कि पैसे ज़रूरी हैं, क्योंकि हमें भी बिल्स भरने होते हैं, लेकिन फिर भी मेरा कहना ये है कि आपको फाइनेंशियली कई चीज़ों को प्लान करना चाहिए. जो आपकी किस्मत में है वो आपको मिलेगा. नुक्कड़ से लेकर आज तक मुझे सब कुछ मिला है. मेरे करियर में डेस्टिनी और गॉड ने एक बड़ा रोल प्ले किया है. दिल्ली में पिछले साल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मेरा रेट्रोस्पेक्टिव किया गया जो मेरे लिए सम्मान की बात थी. जो एक बॉडी ऑफ वर्क बना है, वो अलग-अलग फिल्में करने की वजह से बना है. मैं स्क्रिप्ट के मुताबिक़ काम करता हूं. जब मैंने सलीम लगड़े पे मत रो, भिंडी बाज़ार या ब्लैक फ्राइडे की तो लोगों ने कहा कि मैं अंडरवर्ल्ड डॉन का रोल अच्छा करता हूं, जब मुबारकां, जब वी मेट, या भाग मिल्खा भाग में पंजाबी का रोल प्ले किया तो लोगों ने कहा कि पंजाबी किरदार अच्छा करता हूं. लेकिन रोल चाहे अंडरवर्ल्ड डॉन का हो या पंजाबी, हर किरदार अलग है. अंडरवर्ल्ड के तीनों किरदार एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं. पंजाबी किरदार की भी बॉडी लैंग्वेज, उनकी स्पीच एक-दूसरे से अलग है. अपने किरदार को आपको स्क्रिप्ट से ही ढूंढना होता है.

आप नॉन फिल्मी बैकग्राउंड से हैं और आपका फैमिली बिज़नेस है. जब आपने मुंबई आने की बात घर पर की तो परिवार की तरफ से क्या रिएक्शन था?

मेरे फादर का मशीन टूल्स का बिज़नेस था, ये बिज़नेस सीखना पड़ता है. वो चाहते थे कि मैं बिज़नेस सीखूं, इंजीनियर्स से मिलूं. पिता होने के नाते उन्हें मेरी चिंता थी कि अगर मैं थिएटर में लगा रहूंगा, तो कुछ सीखूंगा नहीं. जब मैं मुंबई आया तो उन्होंने कहा कि बिज़नेस का एक ब्रांच यहां भी खोल देते हैं. मैंने उन्हें कहा कि दोनों काम एक साथ संभव नहीं है. मैंने कहा आप मेरी चिंता न करें, मैं जितना भी कमाऊंगा मैं सरवाइव कर लूंगा. पैरेंट्स होने के नाते वो बस मेरी चिंता कर रहे थे. उस वक़्त मैं जिन फिल्मों पर काम कर रहा था, उसमें इतने पैसे भी नहीं मिलते थे कि महीना गुज़र जाए. मैं भी अगर उनकी जगह होता तो ऐसा ही सोचता. इंडस्ट्री में ख़ुद के लिए एक टाइम सेट करना होता है. यंगस्टर्स को तो मैं हमेशा यही कहता हूं कि अपनी पढ़ाई पहले पूरी कर लो. अगर यहां करियर नहीं चला तो पढ़ाई हमेशा काम आती है.

जब आप प्रसिद्ध हो गए तब पैरेंट्स की प्रतिक्रिया क्या थी?

मुझे याद है नुक्कड़ जब चल रहा था, तब मैं दिल्ली अपने घर गया. मेरे पिता का ऑफिस पुरानी दिल्ली में था, जहां मैं पहले भी जाया करता था. इस बार गया तो भीड़ लग गई. लोगों ने पिताजी से मुझे बाहर बुलाने की रिक्वेस्ट की. नुक्कड़ में मेरा नाम हरी था और उसमें एक सीन था जिसमें मैं 5 दिनों तक साइकल चलाता हूं और लोग मुझे चीयर करने के लिए हरी हरी… कहते हैं. बस, उसी तरह से वहां भी लोग मेरा नाम लेने लगे. मेरे फादर के चेहरे पर एक सेंस ऑफ प्राइड था, साथ ही हैरानगी भी थी कि वाक़ई उनके बेटे के साथ ये सब हो रहा है, इस दृश्य को एक ऐक्टर होने के बाद भी मैं रिक्रिएट नहीं कर सकता हूं. पिता होने का नाते ज़ाहिर-सी बात है वो बेहद ख़ुश थे.

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आपने टीवी पर कई अच्छे सीरियल्स किए हैं. आज की अगर बात करें, तो टेलीविज़न काफ़ी बदल गया है, अब पहले की तरह सीरियल्स नहीं बनते. इस बदलाव के बारे में क्या कहना है आपका?

चेंज इज़ वेरी इंपॉर्टेंट. मैंने तो कई तरह के सीरियल्स किए हैं. ज़रूरी नहीं नुक्कड़ जैसा सीरियल ही हमेशा बनता रहे. मैंने तो 9 मलाबार हिल भी की है, ऋषि दा के साथ उजाले की ओर भी किया है. आज के सीरियल्स की जहां तक बात है, तो ये सीरियल्स इसलिए बनते हैं क्योंकि लोग इन्हें पसंद करते हैं. मुझे उससे कोई प्रॉब्लम नहीं है, लेकिन मैं इन सीरियल्स को उतना एंजॉय नहीं करता हूं. मैं मानता हूं कि ज़रूरी नहीं कि हर रोज़ कुदाल उठाकर काम पे ही चल पड़ो. सही समय और काम का इंतज़ार करो. हम तो शिकारी हैं मचान पर बैठकर सही शिकार का इंतज़ार करते हैं. मैं सच में यही मानता हूं कि जो डेस्टिनी में होगा वही मिलेगा, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि आप घर पर बैठ जाओ. जो काम मिले उसे पूरी इमानदारी से करें और अपने काम की कद्र करें.

आपने थिएटर, टेलीविज़न, फिल्में सब की हैं. इन तीनों में से आपने किस मीडियम को सबसे ज़्यादा एंजॉय किया है.

एक ऐक्टर होने के नाते मैं हर तरह का काम करना चाहता हूं. मैं ऐक्टर हूं और कैमरे के लिए परफॉर्म करता हूं. लेकिन अगर चॉइस होगी तो मैं सिनेमा ही करना चाहूंगा. उसकी वजह ये है कि मुझे लगता है कि बिग स्क्रीन पे जो करिश्मा होता है, उसका एक अलग मज़ा होता है. मैंने कभी वेब सीरिज़ नहीं की है. 3-4 इंच की स्क्रीन पर दिखने में वो मज़ा नहीं है. एक ऐक्टर के तौर पर अगर बहुत अच्छी स्टोरी है, तो बात अलग है. कंटेंट बहुत ज़रूरी है. सलीम लंगड़े पे मत रो आज भी हॉटेस्ट सेलिंग फिल्म है. बाघ बहादुर, सलीम लगड़े पे मत रो ये फिल्में आज भी कोर्स में पढ़ाई जाती हैं.

आपने पंजाबी फिल्में भी की हैं. पंजाबी फिल्मों में आने में इतनी देर क्यों हो गई.

मुझे पंजाबी फिल्में पहले ऑफर ही नहीं हुई थीं. मैंने तेलुगु फिल्म भी की हैं, ब्रदर्स इन ट्रबल जैसी इंग्लिश फिल्में भी की हैं. चिल्ड्रेन ऑफ वॉर के लिए मुझे पिछले साल ही फ्रांस में बेस्ट ऐक्टर का अवॉर्ड भी मिला है. पंजाबी 1984, ऐ जनम तुम्हारे लेखे ये दोनों ही पंजाबी फिल्में बेहतरीन थीं, दोनों की कहानी अलग थी. मैं लकी हूं कि मुझे अच्छी फिल्में मिलीं, चाहे वो हिंदी हो या पंजाबी. सलीम लगड़े पे मत रो और बाघ बहादुर दोनों ही फिल्मों को एक ही साल में नेशनल अवॉर्ड मिला. मुझे फ़कीर फिल्म के लिए भी नेशनल अवॉर्ड मिला. कुल मिलाकर मैं यही कहूंगा कि फिल्मों का ये सफर अच्छा रहा.

वाक़ई आपकी फिल्मों का सफ़र शानदार रहा है. हमसे बात करने के लिए शुक्रिया.

शुक्रिया.

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Priyanka Singh

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