Short Stories

कहानी- बिट्टन बुआ‌ (Short Story- Bittan Bua)

बुआ एकदम गंभीर हो गईं, “देख! सबसे ख़राब औरत पता है कौन सी होती है, अकल वाली औरत. वो जो सब कर लेती है, सब जान जाती है. आग की तरह होती‌ है. दूर से तो सबको अच्छी लगती है. उसका आदमी उसी आग में जलता रहता है, जीवनभर.”रिश्तों की एक नई परिभाषा आज बुआ ने मुझे पकड़ा दी थी. मैं बुआ की समझ के आगे बहुत बौना महसूस कर‌ रही थी.

बिट्टन बुआ का नाम ‘बिट्टन’ कैसे पड़ा इसके बारे में भी दो-तीन कहानियां प्रचलित थीं. पिताजी कहते थे कि बिटिया से धीरे-धीरे बिट्टन हुआ, लेकिन एक बार नशे में धुत्त चाचा बता गए कि पिताजी और चाचा के नाम पुत्तन और छिद्दन होने की वजह से बुआ का नाम बिट्टन रख दिया गया था!
खैर वजह जो भी रही‌ हो, अब उनका नाम ये भी न रह गया था… अब वो ‘सिमंगल की’ कहकर बुलाई जाती थीं. वो तो भला हो उस बिजली के बिल का जिसने मेरा परिचय फूफा के असली नाम ‘शिवमंगल’ से कराया, नहीं तो मैं ताउम्र फूफा की शकल की तरह उनके नाम पे भी ‘उँह’ करती रहती.
“आजा, आजा… कोई काम होगा…” लाल मिर्ची में ठूंस ठूंसकर अचार भरती हुई बुआ मुझे आंगन में ही मिल गईं. बुआ और मुझमें लगभग 25 साल का अंतर, लेकिन ये अंतर भी कुछ ऐसा था जैसे मिर्ची और मसाले जैसा, अलग-अलग रखे जाते हैं, लेकिन असली स्वाद मिलकर ही आता है.

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“क्यों बिना काम नहीं आ सकती?..” बुआ की गोद में मैं लुढ़क गई.
“कित्ता चमक रही हो…‌ बुढ़िया कब होगी बुआ?”
इसका एक ही जवाब आता था, “तेरी सास के बाद”… लेकिन आज कोई मसाला कम रह गया था शायद.
“हाय बुआ, इत्ती धूप‌ में पूरी बांह का ब्लाउज़?”
“धूप है तभी तो, नहीं तो पूरी धूप चमड़ी में उतर आती है.” बुआ और उनकी चमड़ी! ऐसी गोरी-चिट्टी कि देख लो, तो मैली हो जाए.
सच! फूफा की क़िस्मत ऐसी-वैसी ‌नही थी. रूप-गुण का ऐसा मेल कम ही मिलता है. चाहे जो‌ करा लो बुआ से… शादी-ब्याह में गीत गाने बैठतीं, तो दो-चार ईर्ष्यादग्ध औरतों को दुश्मनी में बांध आतीं. घर की बूढ़ियों को तब भी चैन न पड़ता, “ऐ सिमंगल की… ड्रांस दिखा दे…” तो वो डांस भी ऐसा कि उसके बाद कोई और औरत नाचने लायक ना रह जाए! सिलाई, कढ़ाई, बुनाई… सब‌‌ में एक्सपर्ट…
मैं कहती थी, “बुआ, कुछ तो छोड़ दो…” और वो छोड़ भी देती थीं, एक समय के बाद. ये बात मुझे कभी समझ न‌हीं आई थी कि कोई एक शौक पकड़कर चढ़ती जाती थीं और एक ऊंचाई पे पहुंचकर बुआ उस टीले से कूद जाती थीं.
“आज लड़ नहीं रही हो… फूफा से कोई बात हो गई क्या?” उतरा चेहरा ऐसा खिला जैसे टूटा फूल पानी के ग्लास में डाल दिया हो.
“फूफा से क्या बात होगी… जानती नहीं हो क्या फूफा को…” बुआ कुछ सोचकर मुस्कुरा दीं.
बुआ-फूफा के प्यार से खानदान भर की ही नहीं, दो-चार गांवों की औरतें भी जलती होंगी. बुआ जब मायके आकर मुंह में साड़ी दबाकर फूफा के क़िस्से सुनाने लगती थीं, तो हम सब लड़कियों की नींद उड़ जाती थी. लेकिन घर की औरतें एक-एक करके “हम तो चले सोने…” कहकर कट लेती थीं… और कमरे में जाकर शायद रातभर जागती होंगी.
“तब फिर उदास काहे लग रही हो इत्ती?”
“सालों बाद तिप्पी से मिले हम परसों.” बुआ ने लंबी सांस खींची, “तू नहीं जानती उसको, हम साथ में पढ़ते थे.”
“तो?”

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“तो क्या? आदमी ख़राब है बेचारी का… इतनी सुन्दर बीवी है, बिचारी.”
“नाम कैसा है, तिप्पी… उंह.” मुझे एकदम से ‘सिमंगल’ नाम याद आ गया.
“दीप्ति था, इतना ही रह गया बस… आदमी से इत्ती परेसान है.”
सहेली के दुख से बुआ की आंखें छलछला आईं. मैं कल्पना कर रही थी, पीकर आता होगा, ख़ूब मारता होगा, एक-एक पैसे के लिए किच-किच…
“तू जैसा सोच रही है, वैसा नहीं है…” बुआ मेरे मन की बात जान गई.
“तिप्पी का आदमी मारता-पीटता नहीं है, उससे जलता है… कोई एक गुण है क्या उसमें, गुनिया है गुनिया…”
बुआ का दुख तो सहेली के दुख से जुड़ा था, लेकिन सहेली का दुख अभी भी समझ से परे था…
“लेकिन वो क्या करता है फिर?”
“वो ना, उसकी हंसी नहीं सह पाता है. वो जिस काम से ख़ुश हो जाए, वो काम उससे छुड़वा देता है… जैसे एक बार सिलाई सिखाने लगी, तो आंगन भर में लड़कियां जुट आईं, बस चिढ़ गया. बंद हो गई किलास.”
“हैं! फिर…”
“फिर वो सूटर बनाके देने लगी. ऐसा साफ़ काम, ऐसा गला और बार्डर कि बस… वो भी छूट गया.” बुआ ने उन अनगिनत रंग-बिरंगे स्वेटरों के बीच से जैसे मुझे‌ खींच निकाला.
“चिल्लाता होगा कि बंद कर दो ये सब काम… नहीं?” मेरी कल्पना को बुआ एक भी पंख नहीं दे रही थीं कि मैं तिप्पी के आदमी का खाका खींच सकूं.
बुआ कहीं दूर ताकती रहीं, “तू समझेगी नहीं शायद… मार-पीट, चिल्लाना तो अलग तकलीफ़ है… कुछ और भी होता है उससे ज़्यादा… तिप्पी का आदमी ना, उससे बात करना बंद कर देता है. चार दिन, आठ दिन, एक महीना, फिर थक-हारकर तिप्पी वो काम बंद कर देती है.”
“लेकिन उसको दिक़्क़त काहे की है? चार पैसे जुटा भी तो लेती है बीवी घर बैठे.” मेरी सामान्य ‌बुद्धि इतना ही सोच पाई.
बुआ एकदम गंभीर हो गईं, “देख! सबसे ख़राब औरत पता है कौन सी होती है, अकल वाली औरत. वो जो सब कर लेती है, सब जान जाती है. आग की तरह होती‌ है. दूर से तो सबको अच्छी लगती है. उसका आदमी उसी आग में जलता रहता है, जीवनभर.”
रिश्तों की एक नई परिभाषा आज बुआ ने मुझे पकड़ा दी थी. मैं बुआ की समझ के आगे बहुत बौना महसूस कर‌ रही थी.
“फिर…”
“तिप्पी ने एक दिन अपनी नस काट ली…” बुआ एकदम से सिसक उठीं, फिर थोड़ी देर रोती रहीं.
“ख़ूब खून बहा… लेकिन बच गई. पता है लाडो, पहली बार उसने मुझे ये सब बताया. उम्रभर तो वो मुखौटा लगाए ‌रही. किसी को‌ नहीं बताया ऐसे ‌आदमी के बारे में. परसों मिली तो बोली, आज मेरा ये सच सुन ले, क्या पता किस दिन चली जाऊं!..”

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मैं ख़ुद भी रोने ‌लगी थी शायद. इतनी तकलीफ़ से जूझती रही तिप्पी, वो भी चुपचाप…
“कितनी तकलीफ़ होती होगी ना बुआ उनको. ये सब सहना भी पड़ता है. मुखौटा भी लगाए रहना पड़ता है.”
बुआ का चेहरा बिल्कुल सफ़ेद पड़ गया था. ब्लाउज़ की बांह को और नीचे खिसकाते हुए बोलीं, “हां लाडो, तकलीफ़ तो बहुत होती होगी!..”

– श्रुति सिंघल

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Usha Gupta

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