Short Stories

कहानी- दूरदर्शिता (Short Story- Doordarshita)

“शलभ, रात तेरे पापा जी ने मुझे सपने में या फिर मुझे आभास हुआ- कहा कि प्रभा, मुझे गए एक महीना होने को आया और तूने मेरा ब्रीफकेस अभी तक खोलकर नहीं देखा. उसमें बहुत ही आवश्यक पेपर रखे हैं. मैंने तुम्हें बताया था ना कि मेरे बाद ब्रीफकेस खोलकर सभी पेपर निकालकर पढ़ लेना.”
“मां, आपको पहले बताना चाहिए था. पता नहीं कितने महत्वपूर्ण पेपर हैं जिन्हें वह आपको पढ़ाना चाहते थे. आप चिंता न करें, आज छुट्टी का दिन है, मैं अभी सब देख लेता हूं.” शलभ ने सूटकेस के सारे पेपर देख लिए. घर की रजिस्ट्री के पेपर, मेडिकल टेस्ट के पेपर, बिजली के बिल व अन्य ख़रीदे गए सामानों के बिल रखे थे. कुछ ऐसा नहीं मिला जो महत्वपूर्ण हो. अंत में एक पैकेट मिला जिस पर प्रभा के लिए व्यक्तिगत लिखा था. कौतूहलवश पैकेट खोला तो उसमें दो लिफाफे निकले जिन पर एक नं. व दो नं. लिखा था.
“मां पहले आप एक नं. का लिफाफा खोलिए, बाद में दो नं. का खोलिएगा. यह केवल आपके लिए है.”
“बेटा, तुमसे क्या छुपाना, तुम तो मेरे अपने हो. बहू को भी बुला लो, तुम ही पढ़ो मुझसे नहीं पढ़ा जाएगा.”
प्रभा,
जब से मैं बीमार रहने लगा तभी से चाहता था कि अपने जीवन से संबंधित हर चीज़ एवं सब आवश्यक बातें तुम्हें समझा दूं, जिससे मेेरे बाद तुम्हें कोई परेशानी न हो. लेकिन जब-जब तुमसे बात करनी चाही, तब-तब तुम भावुक हो जाती थी. मैं तुम्हें शब्दों द्वारा तो कभी बता नहीं पाया इसलिए यही निर्णय लिया कि लिखकर सब बातें बता दूं. प्रभा, हम दोनों का जीवन बहुत संघर्षपूर्ण रहा है. कभी भी मैं तुम्हें वह सुख-सुविधा नहीं दे पाया जिसकी तुम हक़दार थी. मेरी परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी कि मैं अपने परिवार के लिए वह सब नहीं कर पाया जो मैं चाहता था. मेरी महीने भर की आय जीवन की नितांत आवश्यक वस्तुओं के लिए ही पर्याप्त होती थी. बैंक में जमा करना या मनोरंजन पर ख़र्च करना अकल्पनीय-सा था. मैंने अनेकों बार तुम्हें छोटी-छोटी बातों के लिए मन मारते देखा है. बच्चों को भी कहां दे पाया जो उनकी चाहत थी. फिर भी तुम्हारे सहयोग से गृहस्थी की गाड़ी जैसे-तैसे खिंचती रही. इसी बीच घटी एक घटना ने मेरे मानस को झकझोर कर रख दिया. मुझे भविष्य में कुछ योजना बनाने के लिए प्रेरित किया. मेरे कार्यालय में मेरे एक सहयोगी के अंकल जो एक प्राइवेट कंपनी में बहुत अच्छी पोस्ट पर कार्य करते थे, रिटायरमेंट के समय उन्हें ऑफिस से काफ़ी बड़ी रकम मिली थी. अपनी एकमात्र पुत्री का विवाह वह पहले ही कर चुके थे. उनके दोनों इंजीनियरबेटे अपने-अपने परिवारों के साथ सुखमय जीवन व्यतीत कर रहे थे. कुछ वर्ष पूर्व पत्नी के निधन के पश्‍चात् वह नौकर के सहारे जीवन व्यतीत कर रहे थे. अब उन्होंने बड़े बेटे के पास रहने का निर्णय लिया. यद्यपि छोटा बेटा प्रखर भी चाहता था कि पापा उसके साथ रहें. बड़े बेटे अरनव ने उनका हृदय से स्वागत किया. बहू-बच्चे सभी काफ़ी प्रसन्न लगे. प्रखर भी कुछ दिनों के लिए अपने परिवार सहित उनसे मिलने आया. इस तरह शुरू के कुछ माह मिलने-मिलाने में व्यतीत हो गए. इसी बीच दोनों भाइयों में कुछ मंत्रणा हुई.
“पापा, आपसे हम कुछ राय लेना चाहते हैं. हम दोनों भाइयों की हमेशा से यही इच्छा रही है कि हम दोनों का परिवार साथ रहे. हम दोनों एक शहर में रहकर कोई व्यापार करें या फिर कोई कंपनी खोल लें. आपके द्वारा बनाई कोठी मेरठ में खाली पड़ी है. अभी तक तो हम दोनों नौकरी के कारण यहां से वहां भटकते रहे. हमारी इच्छा है कि क्यों न मेरठ चलकर ही कुछ काम किया जाए. आपका मार्गदर्शन तो हमें मिलेगा ही एवं आपका समय भी आराम से व्यतीत होगा. पूरा परिवार भी एकसाथ रह सकेगा. पापा, अभी तक तो हमारे पास कोई भी काम शुरू करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. यदि आप हमारी सहायता करें तो हमारा यह सपना साकार हो सकता है.” मेरे दोस्त के अंकल को बच्चों का सुझाव अच्छा लगा. उन्होंने सोचा कि मेरे बच्चे कितने योग्य हैं कि मिलकर रहना चाहते हैं. उन्हें मेरा भी कितना ख़्याल है. पैसे का क्या है वह तो मेरे बाद भी उनका ही है. अच्छा है, दोनों मेरे सामने ही सेटल दो जाएं. मेरा क्या है, दो समय का खाना और बच्चों का प्यार मिलता रहे, यही मेरे लिए बहुत है.
इस तरह उन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी लगाकर बच्चों को कंपनी खुलवा दी. कुछ समय तक तो बच्चे उन्हें अपने साथ ले जाते रहे, लेकिन थोड़े ही दिनों में उन्हें एहसास हुआ कि बच्चे उन्हें अब अपने साथ ले जाने से कतराने लगे हैं. कुछ न कुछ बहाना बनाकर वो उन्हें घर पर ही छोड़ जाते. पूछने पर अभद्रता पर उतर आते. अतः उन्हें घर पर रहने के लिए मजबूर कर दिया गया.
इधर बहुएं अपनी गृहस्थी में व्यस्त रहतीं. ससुर के हर समय घर पर रहने से उनकी स्वतंत्रता में बाधा पड़ने लगी. उन्होंने भी उनकी आवश्यकताओं को अनदेखा करना प्रारंभ कर दिया. स्थिति यह हो गई कि दो रोटी के लिए भी उन्हें बार-बार बहुओं को याद दिलाना पड़ता. वे ख़ुद को अपमानित महसूस करने लगे. तनाव उन पर हावी हो गया. जब समस्या हद पार कर गई, तो उन्होंने नींद की अधिक गोलियां खाकर अपने को समाप्त कर लिया. उनके पैसे से सबल बने पुत्रों पर किसी को शक़ नहीं हुआ. उनकी मृत्यु का रहस्य उनकी कोठी की दीवारों में दब कर रह गया.
प्रभा! इस घटना ने मुझे व्याकुल कर दिया. कई रात मैं सो न सका. मुझे महसूस हुआ कि पैसे का जीवन में कितना अधिक महत्व है. इस छोटी-सी नौकरी में तो कुछ भी अतिरिक्त संचय करना असंभव है. रिटायरमेंट के बाद तुम्हारा क्या होगा? बच्चे समय के साथ अपनी-अपनी गृहस्थी में रम जाएंगे. इस बीच मुझे कुछ हो गया, तो तुम कैसे अपना समय काटोगी? यही चिंता मुझे सताए जा रही थी. इसी चिंता ने मुझे नौकरी के अतिरिक्त कुछ अन्य कार्य करने के लिए सोचने पर विवश कर दिया. क्या करूं, कैसे करूं? इसी उधेड़बुन में कई दिन निकल गए. एक मित्र ने सुझाव दिया, ‘तुम पढ़े-लिखे हो, क्यों नहीं बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते?’ अतः उन्हीं के प्रयास से मैं एक सज्जन के यहां उनके जुड़वां बच्चों को पढ़ाने लगा. तुमसे कहता तो तुम कभी मुझे यह सब करने न देती. अतः काम की अधिकता का बहाना बनाकर मैं दफ्तर के बाद बच्चों को पढ़ाने जाने लगा. इस तरह मैंने तुमसे पहला और अंतिम भी झूठ बोला. ट्यूशन की आय को हर माह लेने की बजाय मैं साल में एक बार लेता. उस अच्छी-खासी रकम से विकास पत्र ख़रीद लेता, जो पांच साल बाद दुगुने होकर मिलने लगे. हर वर्ष यह क्रम बन गया. इन पैसों को मैं बैंक में डालने लगा. बीच-बीच में प्रमोशन हुए, बोनस भी मिले. उन पैसों से घर की आवश्यकताएं पूरी करता रहा. इस तरह रिटायरमेंट तक मैं कुछ पैसे जोड़ पाया. बच्चे मेधावी थे. उच्च शिक्षा प्राप्त कर अच्छी नौकरियों पर लग गए. रिटायरमेंट के बाद दफ्तर से जो पैसा मिला उसे बच्चों की शादियों पर लगा दिया. पेंशन से हम दोनों का ख़र्च आराम से चल जाता था. अब मन में शांति थी कि बुढ़ापे में किसी पर निर्भर नहीं रहना पड़ेगा.
बच्चों के पास आते-जाते समय आराम से व्यतीत हो रहा था. अचानक स्वास्थ्य  ख़राब होने पर जब डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने मुझे डरा ही दिया. उनके अनुसार मुझे शुगर के साथ-साथ दिल की बीमारी भी होने की प्रबल संभावना थी. ब्लडप्रेशर भी कंट्रोल में नहीं आ रहा था. डॉक्टर के अनुसार मुझे कभी भी कुछ भी हो सकता था. यह जानकर मैं चिंतित रहने लगा. उस समय मुझे न अपना ध्यान आया न ही बच्चों का. बस, तुम्हारे लिए मन घबराने लगा. तुम तो घर-गृहस्थी के कार्यों के अलावा कुछ भी नहीं जानती. पूरी तरह से मुझ पर निर्भर हो. अतः कुछ भी बहाना बनाकर मैंने शलभ के पास रहने का मन बना लिया. शलभ एवं नम्रता काफ़ी समय से आग्रह कर रहे थे कि मम्मी-पापा अब आप हमारे पास आकर रहिए. तुमने भी मेरे निर्णय को सहर्ष स्वीकार कर लिया. जल्द ही हम दोनों मेरठ का घर किराए पर चढ़ाकर शलभ के पास आ गए.
मुझे शलभ एवं नम्रता पर पूरा विश्‍वास था कि मेरे बाद ये दोनों तुम्हें कुछ भी कष्ट नहीं होने देंगे. लेकिन इनकी भी गृहस्थी है, अपनी समस्याएं हैं, ख़र्च हैं, पारिवारिक समस्याएं हैं. शलभ की भी सीमित आय है. मैं नहीं चाहता था कि हमारा अतिरिक्त आर्थिक बोझ इन पर पड़े. अतः मैं अपनी पेंशन घर में ख़र्च करने लगा. तुम्हारे सामने, तुम्हारी सहमती से ही मैं सब कर पाया. उन्होंने भी हमें कभी निराश नहीं किया. दोनों हर परेशानी में हमारे साथ खड़े दिखाई दिए.
प्रभा, मेरे बाद तुम्हें भी पेंशन मिलेगी. तुम भी उसे घर पर ख़र्च करना. मैंने अपनी पूरी जमा-पूंजी बैंक में फिक्स कर दी है. उसका ब्याज़ तुम्हारे एकाउंट में आता रहेगा. ख़ूब ख़र्च करना. मुझे मालूम है कि पैसों की तंगी के कारण तुम अपनी इच्छाओं को दबाती रही हो. अब निःसंकोच अपने पर ख़र्च करना. दान करना, बच्चों पर ख़र्च करना, घूमना-फिरना. तुम्हारे पास पैसा होगा तभी घर में भी मान-सम्मान मिलेगा. तुम्हारे बाद सब बच्चों को मिले इसके लिए तुम्हारे साथ बच्चों का नाम डलवा दिया है.
प्रभा, दूसरे लिफाफे में बैंक की चेक बुक, पास बुक एवं ए.टी.एम कार्ड भी है. हां, मेरी बीमा पॉलिसी भी तुम्हारे नाम पर है. शलभ से कहकर जल्दी ही इस काम को करा लेना. अब बंद करता हूं. समझदारी से रहना.”
तुम्हारा…
शलभ ने दूसरा लिफाफा खोला. उसमें सब पेपर सुरक्षित थे. मेरे साथ-साथ बेटा-बहू भी अपने आंसुओं को कहां रोक पाए. उन भावुक पलों में बहू ने आगे बढ़कर अपने आंचल से मेरे आंसू पोंछ दिए.
“मां! पापाजी ने जो भी सोचा या किया वह ठीक ही होगा, परंतु आप विश्‍वास करें कि मैं एवं नम्रता आपका दिल कभी भी नहीं दुखाएंगे.” मैंने डबडबाई आंखों से उन दोनों को अंक में भर लिया.
“शलभ, तेरे पापा जी ने त्याग करके मेरे सुख के लिए इतनी बड़ी रकमजमा कर दी ताकि उनके जाने के बाद मुझे किसी पर निर्भर न रहना पड़े, परंतु वे ये भूल गए कि बचपन से ही उनका हाथ थाम कर चलने वाली ये प्रभा क्या उनके बिना एक क़दम भी चल पाएगी.”
“लेकिन ये भावनाएं अलग हैं. मुझे पूरा विश्‍वास है कि उनका निर्णय ग़लत नहीं हो सकता. उन्होंने दुनिया देखी भी थी और परखी भी थी.”

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

आरंभाचा अंत (Short Story: Arambhacha Anta)

वहिनीमामी सर्वांचे लाडकोड पुरवायची. वाढदिवस अगत्याने साजरे करायची. जितक्या आस्थेने आपल्या नातेवाईकांची देखभाल करायची तितक्याच…

September 19, 2024

आई होताच दीपिकाने सासरच्या घराशेजारी खरेदी केले नवे घर, किंमत माहितीये?(Deepika Padukone Buys New Luxurious Flat Which is Close To Sasural Just After Welcoming Baby Girl)

आई झाल्यापासून दीपिका पदुकोण आनंदी झाली आहे. या महिन्याच्या सुरुवातीला अभिनेत्रीने एका मुलीला जन्म दिला…

September 19, 2024

क्यों हैं महिलाएं आज भी असुरक्षित? कौन है ज़िम्मेदार? (Why Are Women Still Unsafe? Who Is Responsible?)

कहीं 3-4 साल की मासूम बच्चियां, तो कहीं डॉक्टर और नर्स, कहीं कॉलेज की छात्रा,…

September 18, 2024

कहानी- हाईटेक तलाक़ (Short Story- Hightech Talaq)

आनंद सिर्फ़ उसे नज़रअंदाज़ करता आया था, कभी तलाक़ की बात करता भी नहीं था.…

September 18, 2024
© Merisaheli