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कहानी- एक वादा अपने आप से (Short Story- Ek Vada Apne Aap Se)

 

यदि हमारी जैसी पढ़ी-लिखी और कामकाजी महिलाएं भी ऐसी वर्जनाओं के सामने घुटने टेक देंगी, तो बाकी की महिलाओं का क्या होगा? हमसे अच्छी, तो सिंधु जैसी महिलाएं हैं, जिन्होंने झूठे मान-सम्मान को तिलांजलि दे समय के साथ न केवल ख़ुद को बदला, बल्कि पति की ग़लत बातों का साहसपूर्वक विरोध भी किया.

हर रोज़, हर पल, घंटे, दिन और बरस- मेरी ज़िंदगी से यूं ही सरकते जा रहे थे और मैं चाहकर भी भागती अपनी ज़िंदगी को न तो थाम सकती थी, न ही पीछे मुड़कर उसे नए सिरे से शुरू कर सकती थी, जो बस एक रूटीन से चिपककर रह गई थी. उसे स्पंदनहीन और नीरस बना दिया था.
जब भी मैं पलटकर देखती हूं, तो लगता है कभी मेरे जीवन के ढेर सारे रंगीन सपनों में एक लक्ष्य था, जिससे जुड़ा था जीने का अंदाज़ और जीवन में ख़ुशी पाने की चाहत. ये सब पाने का मक़सद भी पूरा होने लगा था.
नौकरी, घर, भावनात्मक रिश्ते के लिए एक अदद साथी, जो मेरी ख़ुशियों को ही नहीं, मेरी परेशानियों को भी बांटे. सब कुछ मिला, पर उनके स्वरूप बदलते चले गए. कुछ सत्य ऐसा होता है, जो हमारी बौद्धिक क्षमता से परे होता है. कभी-कभी जीवन के सारे सत्य ग्राह्य दिखते हुए भी ग्राह्य नहीं होते. भावनात्मक रिश्ते होते हुए भी मैं भावनात्मक रूप से कंगाल ही रही.
जब घड़ी ने रात के तीन बजाये, तो इन विचारों को झटककर मैं सोने की कोशिश करने लगी. नींद आंखों से कोसों दूर थी. थोड़ी देर करवटें बदलने के बाद मैं उठकर बालकनी में आ खड़ी हुई. चांद अस्त हो चला था. सामने ही भोर का तारा अपनी पूरी ताक़त से जगमगा रहा था. यानी कि कुछ ही देर में सुबह होनेवाली है. जाने कब रात यूं ही गुज़र गई. बचपन से ही मेरी यह आदत थी कि ज़रा-सा मानसिक दबाव पड़ा, तो नींद उड़ जाती थी. मां अपनी नौकरी और तबादले से परेशान मुझे पटना में नानी के पास ही रखती थीं. जहां पल-पल मेरा मन मां में ही अटका रहता था.
नानी मेरा पूरा ख़्याल रखतीं, लेकिन इतनी छोटी उम्र में मां के लिए परेशानी और छोटी-छोटी बातों में मेरी निद्राहीन बेचैनी देखकर अक्सर वह आंगन में पड़ी खाट पर अपने पास सुलातीं और मेरा ध्यान बंटाने के लिए तारों की चाल, अनेक ग्रुप और उनके नाम और उनसे समय की गणना करना सिखातीं. इन सब बातों का नानी को बहुत अच्छा ज्ञान था, जो उनकी बौद्धिक क्षमता और विद्या अर्जित करने की इच्छा बताता था. इतने बरसों बाद भी उस विद्या का उपयोग कर मैं समय की सही-सही गणना कर लेती हूं.
जब मैं कॉलेज जाने लगी थी, नानी मेरी सबसे अच्छी दोस्त बन गई थीं. जब कभी उनका मन तरंग में होता, कहतीं, “मैं और मेरी तरह की घरेलू महिलाओं की ज़िंदगी कितनी बेफ़िक्र है. मजाल है कि हमें नींद नहीं आए. हम लोगों के समय में धन कमाने से लेकर बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह तक की सारी ज़िम्मेदारी पति की होती थी. पति कहे दिन को रात, तो हम बेहिचक दिन को रात मान लेती थीं. ऐसा अखंड विश्‍वास था, उस ज़माने में पत्नियों का अपने-अपने पतियों पर. हमारा काम होता था, अच्छा खाना बनाना, बच्चों और घरवालों का ख़्याल रखना और दिन में कम से कम पांच बार सासू मां से मम्मी-पापा के लिए ताने सुनना. इतनी सेवा के बाद भी जब पति को क्रोध आता, तो मानवता के दायरे से बाहर कूद पड़ते, फिर भी हम उनका नहीं, अपना ही दोष मानते.”
नानी की बातें सुन मेरा सर्वांग ग़ुस्से से थरथरा उठता. “काश! नानाजी जीवित होते, तो मैं उनसे ढेरों सवाल पूछती. इतना अपमान, ऐसी ग़ुलामों-सी ज़िंदगी आप कैसे जीती रहीं नानीजी. आपको कभी अपने अस्तित्व और अस्मिता का ख़्याल नहीं आया? कभी यह नहीं सोचा कि नानाजी के साथ-साथ आपका भी हक़ बनता था अपने बच्चों के भविष्य के विषय में फैसला लेने का. कभी ख़्याल नहीं आया कि आप भी दुनिया में एक अलग पहचान बनाएं. अपनी ऐसी ज़िंदगी को आप कहती हैं बेफ़िक्र ज़िंदगी. भाड़ में जाए ऐसी बेफ़िक्र ज़िंदगी.”
मेरी बातों से एक अतृप्त हसरत नानी की आंखों में उमड़ती, पर दूसरे पल उनके होंठों पर चिर-परिचित शरारत खेलने लगती, “मैं वो सब कर सकती थी जैसा तुमने कहा, पर उसके बाद मैं भी तुम्हारी तरह तारे गिनती रहती.”
तब नानी पर बहुत ग़ुस्सा आता, पर अब सोचती हूं, तो लगता है कि आज हम इंकलाबी बातें चाहे जितनी कर लें, महिलाओं की वास्तविक स्थिति में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है. स्त्रियों के निरंतर उन्नति के लिए पुरुष वर्ग मंच से चाहे जितने कसीदे प़ढ़ें, उन्हें सशक्त बनाने की बातें करें, पर इनमें से 99% पुरुष वर्ग के विचार घर पहुंचते-पहुंचते पुरुषात्मक हो जाते हैं. शादी के समय मैं और विवेकजी दोनों ही लेक्चरर थे. दोनों अच्छा और बराबर कमाते थे, लेकिन शादी के बाद मेरा उनके पैसों पर अधिकार हुआ या नहीं, पर विवेकजी का मेरे साथ-साथ मेरे पैसों पर भी पूरा अधिकार हो गया था. अब आलम यह था कि अपने पैसों को ख़र्च करने के लिए भी मुझे पति की इजाज़त लेनी पड़ती.
मेरे वही माता-पिता, जिन्होंने मेरी ख़ुशियों के लिए अपनी सारी ख़ुशियां त्याग दीं, आज वे ही पराए बना दिए गए थे. उनकी किसी भी ज़रूरत पर अपने पति से परामर्श किए बिना उनकी कोई मदद नहीं कर पाती थी. यदि मैं अपनी ही कमाई का एक छोटा-सा भी हिस्सा अपने मां-पापा के मना करने के बावजूद उन पर ख़र्च कर देती, तो मेरे ससुरालवालों के साथ विवेकजी भी यह कहने और जताने से नहीं चूकते थे कि मेरे माता-पिता संस्कारहीन हैं, वरना बेटी की कमाई अपने ऊपर ख़र्च करने की ग़लती कभी नहीं करते. यह सब उन्हें इसलिए सुनना पड़ता, क्योंकि उन्होंने बेटे के बदले दो बेटियों को ही जन्म दिया था.
जब से डॉक्टरों ने जल्द से जल्द पापा को बाईपास सर्जरी करवाने की बात कही थी, मेरा मन फिर से उद्विग्न हो उठा था. ऑपरेशन के लिए लाखों रुपयों की ज़रूरत थी, जिसका इंतज़ाम करना उनके लिए मुश्किल था.
एक सरकारी दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी करनेवाले मेरे पापा की सारी जमा-पूंजी तो हम दोनों बहनों की पढ़ाई-लिखाई और शादी-ब्याह में ख़र्च हो गई थी.
ले-देकर उनके पास एक अदद मकान और पेंशन थी, जिसके सहारे वे अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहे थे.
अपने ससुराल की ज़िम्मेदारी में फंसी दीदी और जीजाजी पैसों का इंतज़ाम नहीं कर सकते थे. मैं समर्थ थी और सारे ख़र्च उठाने को तैयार भी थी, तो विवेकजी ने यह कहकर इजाज़त नहीं दी कि आज तुम्हारी दीदी ऑपरेशन के लिए पैसा नहीं दे रही हैं, पर जब मकान का बंटवारा होगा, दौड़ी आएंगी अपना हिस्सा लेने. इसलिए तुम या तो मकान गिरवी रखकर ऑपरेशन करवा दो या फिर अपने पापा से उनका घर अपने नाम करवा लो.”
विवेकजी की शर्त सुनकर मैं अवाक् रह गई थी. मेरे पापा गंभीर रूप से बीमार थे, बिस्तर पर पड़े थे और यह पत्थर दिल इंसान बैठा पैसों का हिसाब-क़िताब कर रहा था. इस बीमार अवस्था में पापा का एकमात्र सहारा उनके मकान का सौदा कर रहा था. यह वही विवेकजी थे, जो अपने माता-पिता के लिए मोम हो जाते थे, बिना मुझसे पूछे मेरा पैसा उन लोगों की सुख-सुविधाओं के लिए ख़र्च करते थे और अब पत्नी के माता-पिता के लिए एक पक्के व्यापारी बन गए थे. पति के लिए जो भी थोड़ा-बहुत प्यार मन में लहराता था, आज वह भी सूख गया था.
तभी चिड़ियों के कलरव ने मुझे यादों से वापस खींच लिया था. मैं यूं ही सीढ़ियां चढ़ती छत पर आ गई थी. दिन के उजास फैलने के साथ ही रात के रहस्यमय और डरावने अंधेरे का अंत हो रहा था. ठंडी हवा के झोंके के साथ रातभर के तनाव और क्लेश से मन को राहत मिलने लगी थी. अचानक मेरी नज़रें सामनेवाली खिड़की पर अटककर रह गईं. नंदिनी दी के पति दुष्यंत कुमार उन्हें बेतहाशा तमाचे मार रहे थे. किसी तरह नंदिनी दी अपने मुंह को दबाए आवाज़ बाहर जाने से रोक रही थीं. तमाचा रुका, तो दुष्यंतजी की गुर्राती आवाज़ मेरे कानों से टकराई.
“भले ही तुम्हारा भाई आईआईटी की प्रतियोगिता परीक्षा पास कर गया है. फिर भी उसका एडमिशन करवाने की बात भूल जाओ. अब तक उस पर लाखों रुपए ख़र्च कर चुकी हो, अब और नहीं. ठीक से पढ़ेगा, तो कहीं किसी दफ़्तर में क्लर्की की नौकरी तो मिल ही जाएगी. आगे उसकी क़िस्मत.”
इतना कुछ सहने के बाद भी नंदिनी दी उन्हें शादी के समय किए गए वादे की याद दिलवा रही थीं. मुझे भी पता था मातृ-पितृ विहिना नंदिनी दी ने दुष्यंतजी से इसी शर्त पर शादी की थी कि वे अपनी कमाई से अपने माता-पिता की एकमात्र ज़िम्मेदारी अपने भाई को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा करेंगी. वह भी मेरे ही कॉलेज में बॉटनी पढ़ाती थीं. अपने भाई मयंक को वे बहुत प्यार करती थीं. उसकी पढ़ाई का पूरा ख़्याल रखती थीं. शादी के बाद कुछ दिनों तक तो सब कुछ ठीक-ठाक चला, पर धीरे-धीरे मयंक दुष्यंतजी के लिए बोझ बनकर रह गया, जिसे वह जल्द से जल्द बिना पैसा ख़र्च किए रफ़ा-दफ़ा करना चाहते थे.
आज भले ही महिलाएं ऊंचे पदों पर पदासीन अपने कामों से समाज को एक नया आयाम दे रही हैं, अपने शक्ति और अधिकार को भी समझने लगी हैं, फिर भी उनमें से एक प्रतिशत भी पढ़ी-लिखी वर्किंग महिलाएं ऐसी नहीं हैं, जो तरह-तरह के ताने-उलाहने और प्रताड़ना का शिकार होकर भी यह दमख़म रखती हैं कि अपने पति के अत्याचारों के ख़िलाफ़ लड़ें या पुलिस में शिकायत दर्ज करवाएं. शिकायत करें भी तो कैसे करें, संस्कारों के नाम पर पति को पूजनीय मानने की घुट्टी जो पिलाई जाती है. मैं और नंदिनी दी भी तो उसी समाज की एक हिस्सा थीं.
इतना सब कुछ होने पर भी स्त्रियां यह नहीं सोचतीं कि वर्तमान के मूल से ही भविष्य का निर्माण होता है. अपने बच्चों का पथ-प्रदर्शक होते हुए भी बेटों को स्त्रियों का सम्मान करना नहीं सिखातीं. लड़कों के बहनों से काफ़ी छोटा होने पर भी उसे बहनों का अभिभावक बना उसे विशिष्ट और स्त्रियों से श्रेष्ठ होने का एहसास कराते हैं. हमारी यही ग़लती भविष्य में उसे सामान्य से श्रेष्ठ बना देती है. मेरे दिलो-दिमाग़ में सैकड़ों द्वंद्व चल रहे थे, पर हाथ झाड़-पोंछ में लगे थे. पूरे पंद्रह दिनों से कामवाली बाई सिंधु ग़ायब थी. अकेले कमला किचन से लेकर साफ़-सफ़ाई का भी काम संभाले हुए थी. तभी डोरबेल बजी. दरवाज़ा खोलते ही नंदिनी दी के साथ सिंधु ने भी प्रवेश किया. नंदिनी दी को सोफे पर बैठा मैं सिंधु की तरफ़ मुख़ातिब हुई, “तुम भी हद करती हो सिंधु, पूरे पंद्रह दिनों से ग़ायब हो. न कुछ कहकर गई, न कोई ख़बर ही भेजी. तुम थी कहां इतने दिनों से?”
“क्या बताऊं बीबीजी मौक़ा ही नहीं मिला बताने का. आजकल तो घर-परिवार में सबकी अपनी मति-गति होती है. गांव में मां की तबीयत ख़राब हो गई थी. सूचना मिलते ही दौड़ी-दौड़ी गई. तीन-तीन बच्चों के होते हुए भी मेरी मां अकेली बुख़ार में तड़प रही थीं. एक ग्लास पानी देनेवाला कोई नहीं था. दोनों भाई दूर देश जा बसे हैं. एक नेपाल में तो दूसरा मुंबई में. ख़बर भेजने पर भी दोनों में से कोई नहीं आया, न ही कुछ रुपए भेजे. मैं पास थी, तो कैसे छोड़ देती. बेटी हुई, तो क्या हुआ, मां के प्रति फ़र्ज़ तो बराबर है. लोगों से मदद ले, डॉक्टर को दिखाया. मां ठीक तो हो गईं, पर बहुत कमज़ोर थीं. आगे के देखभाल का काम पैसा देकर गांव की ही एक भाभी को सौंप आई.
जब लौटकर आई, तो हाल-समाचार पूछने के बदले मेरे पति ने अपना तांडव शुरू कर दिया. उसका कहना था कि मां का घर तो भाई लेगा, फिर तू क्यों पैसे ख़र्च कर आई.
आप ही बोलिए बीबीजी, पैसों के लिए कोई संतान कैसे इतना गिर सकती है कि बीमार मां की सेवा का भी हिसाब-क़िताब करे. अपने पैसे पति और बच्चों पर तो ख़र्च करूं और उस मां को छोड़ दूं, जिसके कारण दुनिया में मेरा अस्तित्व है. उसकी मां की सेवा करना मेरा फ़र्ज़ है, मेरी कमाई को शराब में उड़ाना उसका अधिकार है, पर जब मेरी मां की बात आई, तो बनियागिरी करने लगा. आप जैसे पढ़े-लिखे लोगों के यहां काम करते-करते इतनी अक्ल तो आ ही गई है कि इस जैसे लोभी को सबक सिखा सकूं. मैंने आव देखा न ताव, दोनों बच्चों को समेटकर घर छोड़ देने के लिए तैयार हो गई. सोने के अंडे देनेवाली मुर्गी को भला कौन हलाल करता है? बल प्रयोग कर रोकने के लिए जूते उतारे, तो मैंने भी झाड़ू उठा लिया. मेरे तेवर से हैरान-परेशान मेरा पति ख़ुशामद पर उतर आया. सारी नौटंकी के बाद उसे मेरी बात माननी ही पड़ी. यह मेरे साहस की जीत थी.”
मैं हंसकर बोली, “अब अपना प्रवचन बंद कर और जाकर काम संभाल.”
कभी-कभी हम कई दिनों तक दोराहे पर खड़े रह जाते हैं, पर कोई फैसला नहीं ले पाते. लेकिन एक छोटी-सी घटना मन में ठहराव ला देती है. मन में छाई धुंध मिनटों में साफ़ हो जाती है और आगे का रास्ता साफ़ दिखाई देने लगता है.
“नंदिनी दी, मैं आपके मन की बातें अच्छी तरह समझ रही हूं कि आप मुझसे क्या कहने आई थीं. आप निश्‍चिंत रहें, मैं कोई भी देखी-सुनी बातें जल्द दूसरों से शेयर नहीं करती. फिर भी आप ज़रा सोचिए ऐसे पतियों को हम सामाजिक रुसवाइयों से बचाकर अपराध नहीं कर रहे हैं? मैं पिछले दो दिनों से ऐसी ही कशमकश से गुज़र रही हूं. यदि हमारी जैसी पढ़ी-लिखी और कामकाजी महिलाएं भी ऐसी वर्जनाओं के सामने घुटने टेक देंगी, तो बाकी की महिलाओं का क्या होगा? हमसे अच्छी, तो सिंधु जैसी महिलाएं हैं, जिन्होंने झूठे मान-सम्मान को तिलांजलि दे समय के साथ न केवल ख़ुद को बदला, बल्कि पति की ग़लत बातों का साहसपूर्वक विरोध भी किया. इनमें इतनी जागरूकता तो आ ही गई है कि सामाजिक नीतियों को इतना संकीर्ण नहीं होने देतीं कि उनका दम घुट जाए.
वहीं हम पढ़े-लिखे सुसंस्कृत कहे जानेवाले लोग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा मान-सम्मान बचाने के नाम पर हैरान-परेशान अपनी नींद, अपना स्वास्थ्य सब खोकर टूटकर-बिखरने के कगार पर आ जाते हैं. अब समय आ गया है कि बेटा और बेटी के बीच समाज द्वारा खींची गई रस्मों-रिवाज़ और मान्यताओं को तोड़कर अधिकार के साथ-साथ ज़िम्मेदारियों में भी बराबरी का हिस्सा निभाएं.”
उस दिन हम दोनों एक दृढ़ निश्‍चय के साथ एक-दूसरे से अलग हुए. दूसरे दिन कॉलेज गई, तो नंदिनी दी पूरे एक हफ़्ते की छुट्टी का आवेदन देने आई थीं. मुझे देखते ही बोलीं, “कानपुर जा रही हूं अपने भाई प्रशांत का आईआईटी में दाख़िला करवाने.”
मेरी आंखों में उठते अनगिनत सवालों के सैलाब देखकर बोलीं, “मैंने कल ही दुष्यंतजी से साफ़-साफ़ कह दिया था कि मैंने अपने भाई के लिए जो हाथ बढ़ाया है, वह एक बहन का मज़बूत हाथ है, जिसे बीच रास्ते में आपके कहने से नहीं छोड़ सकती. इसके लिए चाहे मुझे यह घर, आपको और बच्चों को भी छोड़ना क्यों न पड़े. एक बात की और चेतावनी देना चाहूंगी कि आगे से आपने अगर मुझ पर हाथ उठाया या झगड़ा किया, तो पुलिस में शिकायत दर्ज करवा दूंगी.”
दूसरे दिन मैं भी पापा के ऑपरेशन के लिए हॉस्पिटल में पैसे जमा करवा रही थी, वह भी बिना घर का सौदा किए. ज़ाहिर-सी बात थी मैंने भी नंदिनी दी का ही फॉर्मूला अप्लाई किया था. साथ ही अपने आपसे एक वादा भी किया था कि अब यह बिटिया कभी चुप रहकर अन्याय नहीं सहेगी. अपनी इमेज को बेदाग़ रखने के लिए पति भी मेरे साथ थे.

     रीता कुमारी
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