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कहानी- मिस चार्मिंग (Story- Miss Charming)

 

“मैंने बहुत कोशिश की कि मैं वहां से भाग जाऊं, पर मैं तो जैसे किसी अंधे कुएं में गिर चुकी थी. यह एक सोफिस्टीकेटेड लोगों की दुनिया थी, जहां पांच सितारा होटलों, फार्म हाउसों और आलीशान बंगलों में स्मार्ट, चार्मिंग, एज्युकेटेड लड़कियां भेजी जाती थीं, कुछ घंटों, दिन या फिर किसी बिज़नेस ट्रिप पर साथ जाने के लिए. धीरे-धीरे उन बड़े-बड़े बिज़नेसमैन, ब्यूरोक्रेट्स और एलीट वर्ग के मर्दों को अपनी उंगलियों पर नचाने में मुझे मज़ा आने लगा.”

कनाट प्लेस जाऊं और जनपथ का चक्कर न लगाऊं, ऐसा तो हो ही नहीं सकता. बेशक कई बार बिना कुछ ख़रीदे खाली हाथ ही लौट आती हूं, पर फिर भी एक कतार में करीने से बनी जनपथ की दुकानों के अंदर झांकने का मोह संवरण नहीं कर पाती. अन्नपूर्णा के पास एक गली में राजस्थान व गुजराती चीज़ों को ज़मीन पर बिछाए औरतें बैठी होती हैं. मिरर वर्क के कुशन कवर, पेंटिंग्स, कुर्ती, घाघरा, चादरें, नेकलेस, कड़े, डेकोर की चीज़ें और न जाने क्या-क्या होता है… जिसके कारण विदेशी पर्यटकों की तो वहां भीड़ जुटी ही रहती है, साथ ही एथनिक चीज़ों की क्रेज़ी हम जैसी कुछ महिलाएं भी वहां से ख़ूब ख़रीदारी करती हैं.
जनपथ में हर चीज़ मौजूद है- हर किसी की जेब और पसंद के अनुसार. मुझे एक कुर्ता चाहिए था- बांधनी का. बस, उसे ही छांट रही थी कि तभी कोई मुझे छूकर निकला. भीड़ में ऐसा होना स्वाभाविक है, पर उस छुअन में परिचय की गंध आई. मैं म़ुड़ी- पेस्टल ग्रीन कलर की शिफ़ॉन की साड़ी में स्टाइलिश ढंग से कटे बालों में एक आकर्षक काया की कसावदार पीठ मुझे दिखी. चाल तो उसी के जैसी है, पर बाल… उसके बाल तो कमर के नीचे तक जाते थे. मगर… मन को झटका. इतनी अगर-मगर और दुविधा से तो अच्छा है कि उसे सामने से देख लूं.
मैं हाथ में पकड़े कुर्ते को वापस रख तेज़ी से आगे लपकी, बिल्कुल ऐसे उसके बगल से गुज़री, ताकि वह जान-बूझकर किया गया प्रयास न लगे.
“हाय, तू यहां कैसे? कैसी है? मैं बता नहीं सकती तुझे देख कितनी ख़ुशी हो रही है?” एक साथ इतने सारे सवाल और ढेर सारा आश्‍चर्य, संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं है अब. प्रश्‍नों की ऐसी झड़ी लगाना केवल उसी की आदत थी.
“कभी सोचा न था कि इतने दिनों बाद फिर यूं अचानक मुलाक़ात हो जाएगी.” मैं अपनी ख़ुशी को संभाल नहीं पा रही थी, शायद इसीलिए उससे लिपटते हुए मेरी आंखें नम हो गई थीं.
“इतने दिनों बाद… हां, पूरे तीन साल, आठ महीने, दो दिन और शायद कुछेक घंटे बाद हम मिल रहे हैं.” केतकी के ऐसा कहते ही हम दोनों ज़ोर-ज़ोर से खिलखिलाकर हंस पड़ीं. आसपास से गुज़रते लोगों की नज़र हम पर पड़ी और बिना उनकी परवाह किए हम बहुत देर तक हंसते रहे. मुझे तो लग रहा था जैसे मैं बरसों बाद इतना खुलकर हंस रही हूं. हंसते-हंसते पेट और गालों में दर्द होने लगा था.
“बिल्कुल नहीं बदली है तू, सिवाय इसके कि तेरा शरीर थोड़ा भर गया है और मांग में सिंदूर चमक रहा है. आज भी तूने बाटिक की ही साड़ी पहनी हुई है. अब भी दीवानी है तू कॉटन और हैंडलूम साड़ियों की?” केतकी ने चुटकी ली.
“यह आदत तो अब जाने से रही. मैं अपना स्टाइल बदलनेवाली नहीं.” मैं शायद अपनी ही रौ में बहने लगी थी. कॉटन, हैंडलूम और बाटिक प्रिंट की साड़ी, सूट या कुर्ते ही मेरी कमज़ोरी थे. लेकिन मेरे ब्यूरोक्रेट पति को मेरी सादगी डाउन मार्केट लगती थी, इसलिए उनके साथ जाते समय मैं हमेशा सिल्क, जॉर्जेट या शिफ़ॉन की साड़ियां ही पहनती थी. इस पर वे कहते, “तुम्हारा जो लुक है न, एकदम टिपिकल है. कुछ भी पहन लो, सिंपल ही लगती हो. वो क्या कहते हैं न? हां, बहनजी टाइप. नॉट फ़िट फॉर मॉडर्न कल्चर.” पति चाहे लाख व्यंग्य कसें, पर मैं भी कहां माननेवाली थी, मुझे जिस तरह से सजना-संवरना पसंद था, वैसे ही रहती थी. केतकी के हाथ का स्पर्श कंधे पर महसूस हुआ तो मैं अपनी सोच से बाहर आई. “तू बता, कहां रही तू इतने दिन? तुझमें तो बहुत बदलाव आ गया है सिवाय तेरी शिफ़ॉन की साड़ियों के. बाल क्यों इतने छोटे करा लिए?” मैंने भी उसे छेड़ा. मैं उसे अक्सर कॉटन की साड़ियां और ड्रेसेस के एक्सक्लूसिव पीसेस छांटने के लिए न जाने कहां-कहां चक्कर काटने को मजबूर करती थी, वहीं केतकी एक-दो सिलेक्टिव स्टोर्स से शिफ़ॉन की साड़ियां ख़रीद मेरा समय बचाती थी.
“बदलाव तो आया है…” अचानक कुछ कहते-कहते चुप हो गई केतकी.
“अब यहीं रहकर बात करेगी कि कहीं बैठकर कुछ खिलाएगी भी?” उसने मुझे आगे की ओर घसीटते हुए कहा.
“चल वहीं बैठते हैं, अपनी फेवरेट जगह कॉफी होम में.” मैंने कहा.
“अरे यार, बड़ी बोर हो गई है वह जगह. उसी के पास एक अच्छा रेस्टॉरेंट खुला है. शानदार और फ्यूज़न लुक के साथ. चल आज मैं तुझे वहीं ट्रीट देती हूं. जेब भी फुल है.”
केतकी की बेबाक़ी, खुलापन और मस्त रहने का फलसफ़ा सब कुछ पहले जैसा ही था, पर वह क्या चीज़ थी, जो मुझे बार-बार एहसास करा रही थी कि केतकी बहुत बदल गई है. उसके चेहरे पर हमेशा छाई रहनेवाली मासूमियत नहीं है या फिर वह मासूम कशिश, जो उसे गरिमामय बनाती थी, उसके चेहरे से गायब है. कॉलेज के दिनों में अगर मैं अपनी सादगी के लिए मशहूर थी तो वह अपनी उस कशिश के कारण जो लोगों को अपनी ओर खींचती थी. ग्लैमरस न होते हुए भी वह अपने शिफ़ॉन के सूटों में बहुत ग़ज़ब की लगती थी. साड़ियां तो उसने बहुत बाद में पहनना शुरू किया था. सांवली रंगत, लंबे-काले बाल, आंखों में लगा काजल और कोल्हापुरी चप्पल- बस, यही शृंगार होता था उसका. फिर भी लड़के हों या लड़कियां उसे देख पाने की ललक से भरे रहते थे. “शी हैज़ ए चार्मिंग पर्सनैलिटी.” सबकी यही टिप्पणी होती थी.
मेरी और उसकी ख़ूब पटती थी. कॉलेज के बाद भी हमारी दोस्ती बनी रही. फिर उसे अपने पापा की मृत्यु के बाद मां और छोटे भाई के साथ अपने चाचा के घर रहने कानपुर जाना पड़ा फ़ाइनेंशियल प्रॉब्लम्स की वजह से और कानपुर में ही उनका पुश्तैनी मकान व बिज़नेस भी था. उसके भाई को पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उसे यही सबसे अच्छा विकल्प लगा था.
उसके कानपुर जाने के बाद कुछ समय तक तो हमारा पत्र-व्यवहार चला, फ़ोन पर भी बात हो जाती थी, पर धीरे-धीरे अपनी शादी के बाद मैं अपनी घर-गृहस्थी और नौकरी में इतनी व्यस्त हो गई कि केतकी से फिर कोई बातचीत नहीं हो पाई. वैसे भी आईएएस की बीवी होने के कारण सोशल ज़िम्मेदारियां ही निभाने के लिए बहुत थीं, फिर उसकी तरफ़ से भी कोई संपर्क स्थापित नहीं हुआ.
“क्या लेगी? यहां के स्प्रिंग रोल्स और मंचूरियन कमाल के हैं.”
मैं अपनी सोच में इतनी उलझी हुई थी कि खाने पर भी मेरा ध्यान नहीं था.
“तू दिल्ली कब आई केतकी?” मंचूरियन खाते-खाते मैंने पूछा.
“ढाई साल हो गए हैं.” उसके चेहरे पर उदासी की एक मोटी परत बिछ गई थी. तो क्या यही है वह बदलाव, जो मुझे बार-बार उलझन में डाल रहा है?
“कानपुर जाकर पता चला कि चाचा हमारे हिस्से का मकान व दुकानें पहले ही पापा से प्रॉपर्टी के पेपर्स पर धोखे से साइन करवाकर अपने नाम करवा चुके थे. उनके धोखे से परेशान भाई ने पहले तो मां के गहने बेचे और फिर कुछ न कर पाने के अपराधबोध में पिसते हुए ग़लत काम करने लगा. इधर का माल उधर करते हुए वह लड़कियां भी सप्लाई करने लगा. फिर मां की बेबसी और मुझे डरा-धमकाकर मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उसने मेरी शादी करवा दी. जब यहां दिल्ली आई तो पता चला कि शादी तो मात्र ढोंग था, असल में उसने मेरी भी सप्लाई की थी.”
केतकी का चेहरा एकदम सपाट था. उसकी बातें सुन मैं सकते में आ गई थी. इतना घिनौनापन! कोई भाई ऐसे कैसे कर सकता है? ऐसे में उसकी मासूमियत नहीं खोती तो और क्या होता?
“याद है, मेरी पर्सनैलिटी चार्मिंग है, कॉलेज में इस बात को लेकर कितनी चर्चा होती थी. ‘मिस चार्मिंग’ का तो कितनी बार मुझे ख़िताब भी मिला था. लेकिन यही चार्म मेरा हार्म कर देगा, किसने सोचा था.” बेबाक़ी का एक झोंका उसके पास से निकला, पर वह फिर गंभीर हो गई.
“चल घर चलते हैं.” मैंने बिल देते हुए कहा. “पतिदेव शहर से बाहर हैं, आराम से बैठकर बातें करेंगे.”
“बहुत शानदार है तेरा फ्लैट लतिका. मॉडर्न टच देते हुए एथनिक लुक देना नहीं भूली.” अपने गुच्ची के बैग को सेंटर टेबल पर रख सोफे पर वह ऐसे लेटी, मानो बहुत थक गई हो.
“बहुत सुंदर है तेरा बैग.” अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया. “मेरे पास भी ऐसा ही बैग है, बस, उसका कलर ब्राउन है और तेरा ब्लैक, वॉट ए को-इंसीडेंस.”
“हां, एक क्लाइंट ने ही ग़िफ़्ट दिया था. लेकिन तू कब से ऐसे स्टाइलिश बैग ख़रीदने लगी? ये न तो टिपिकल राजस्थानी है, न गुजराती और न ही एथनिक?” उसकी बात सुन मुझे हंसी आ गई.
“सुधर जा मिस चार्मिंग. मैंने इसे ख़रीदा नहीं है, पतिदेव ने ही ग़िफ़्ट दिया है.” जूस का ग्लास उसे थमाते हुए मैंने कहा. वातावरण की बोझिलता थोड़ी-सी कम होती महसूस हुई. बैग से टिशू पेपर निकाल वह मुंह पोंछ फिर से सोफे पर लेट गई.
उदासी की परत उसके चेहरे पर और घनी हो गई थी. “मैंने बहुत कोशिश की कि मैं वहां से भाग जाऊं, पर मैं तो जैसे किसी अंधे कुएं में गिर चुकी थी. यह एक सोफिस्टीकेटेड लोगों की दुनिया थी, जहां पांच सितारा होटलों, फार्म हाउसों और आलीशान बंगलों में स्मार्ट, चार्मिंग, एज्युकेटेड लड़कियां भेजी जाती थीं, कुछ घंटों, दिन या फिर किसी बिज़नेस ट्रिप पर साथ जाने के लिए. धीरे-धीरे उन बड़े-बड़े बिज़नेसमैन, ब्यूरोक्रेट्स और एलीट वर्ग के मर्दों को अपनी उंगलियों पर नचाने में मुझे मज़ा आने लगा. बेचारे एक तरफ़ तो सोसायटी में अपने को सम्मानित सिद्घ करने के लिए फैमिली को सबसे अहम् मानते हैं और पति-पत्नी इस तरह पार्टियों व सोशल सर्कल में नज़र आते हैं मानो मेड फॉर इच अदर हैं, पर लतिका ये लोग सबसे बड़े हिप्पोक्रेट हैं.” पल भर के लिए चुप हो गई केतकी. इस समय न तो मेरे पास उसे सांत्वना देने के लिए शब्द थे, न ही उसकी आंखों से छलकती नमी को पोंछने का साहस.
“जानती हो, ‘पार्टनर’ के नाम पर इन्हें कोई ऐसी शह चाहिए होती है, जो इनकी ईगो को हवा देती रहे और मैं अब वही करती हूं. पचास हज़ार, एक लाख, कुछ भी मांग लो, बिना किसी परेशानी के ये लोग दे देते हैं. अच्छा, चलती हूं. शाम की फ्लाइट से बैंगलौर जाना है. एक नामी ब्यूरोक्रेट है, वहां कॉन्फ्रेंस अटेंड करने गया है.”
केतकी ने टेबल पर रखे अपने बैग को उठाया तो उसमें से बहुत सारे विज़िटिंग कार्ड्स निकलकर नीचे ज़मीन पर बिखर गए. शायद टिशू पेपर निकालते समय बैग खुला रह गया था.
“इतने सारे कार्ड्स किसके हैं?” मैं कार्ड उठाने में उसकी मदद करने लगी.
“अरे, उन्हीं सोफिस्टीकेटेड क्लाइंट्स के.” पलभर को केतकी की आंखों में शरारत तैरी. अपनी पुरानीवाली केतकी के उस रूप को देखकर मेरे होंठों पर हंसी आने ही लगी थी, पर… ब्राउन कलर के बहुत ही आर्टिस्टिक ढंग से डिज़ाइन किए हुए कार्ड पर गोल्डन कलर से उभरे नाम को देख जड़ हो गई. इटालिक्स में शेखर शर्मा नाम चमक रहा था. यह कार्ड मैंने ही डिज़ाइन किया था शेखर के लिए. मेरा डिज़ाइन उसे बहुत पसंद आया था, इसीलिए एक साथ हज़ार कार्ड छपवा लिए थे. “तुम जैसी बहनजी टाइप की औरत का टेस्ट इतना अच्छा हो सकता है, यक़ीन ही नहीं होता.” शेखर तब भी उसे ताना देने से चूका नहीं था.
मेरे हाथ से कार्ड लेते हुए केतकी बोली, “अरे, आज बैंगलौर इसी के पास तो जा रही हूं. बहुत स्मार्ट और इंटेलीजेंट है. जब भी कॉन्फ्रेंस या ट्रिप्स पर जाता है, मैं ही तो इसकी ‘पार्टनर’ बनती हूं. बाई द वे, वह गुच्ची का बैग इसी ने तो मुझे ग़िफ़्ट दिया था. चल बाय, फिर मिलते हैं.”
केतकी जा चुकी थी और अपनी सादगी को समेटती मैं न जाने कितनी देर तक शून्य में ताकती खड़ी रही.
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     सुमन बाजपेयी

 

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