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कहानी- आउटडेटेड (Short Story- Outdated)

क्या इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहरा रहा है? नहीं, वह कभी ऐसा नहीं होने देगी. वह अपने आपको बुआ अम्मा नहीं बनने देगी. वह लड़ेगी अपनी पहचान कायम रखने के लिए… वह रास्ता नहीं भटकेगी. उसका एक वजूद है, सोच है. वह हर चुनौती का सामना करेगी.

“ओह माई गॉड, कितना कचरा जमा किया हुआ है यहां? चलो, साफ़ करो.” पारित की आवाज़ कानों में पड़ी तो वो चौंकी. हमेशा की तरह झुंझलाई आवाज़ थी उसकी. उसके मन मुताबिक कुछ न हो, तो ऐसे ही झल्लाता है. दूसरा क्या सोचता है या कितना आहत होता है, इसकी वह ज़रा भी परवाह नहीं करता है.
सुबह के व़क़्त रोज़ की तरह वह ब्रेकफ़ास्ट बनाने में व्यस्त थी. उमेश तैयार हो गए थे और ड्रॉइंगरूम में किसी से मोबाइल पर बात कर रहे थे. वह किसी भी व़क़्त आकर डाइनिंग टेबल पर बैठ सकते थे. पल भर की भी देरी उन्हें बर्दाश्त नहीं है. पेपर पढ़ते-पढ़ते वे नाश्ता करते हैं और बिना कुछ कहे कार की चाबी उठा ऑफ़िस के लिए निकल जाते हैं. हंगामा तभी होता है, जब कार की चाबी जगह पर न मिले, क्योंकि घर की हर चीज़ सली़के व व्यवस्थित ढंग से रखना उसका काम है, उमेश का नहीं. वह तो जहां-तहां उसे पटक देते हैं. “मैं ऐसा ही हूं.” कहकर हर बार वे बहुत साफ़गोई से बचकर निकलना जानते हैं.
अपेक्षाएं एक चक्र की भांति होती हैं, जो व़क़्त के साथ निरंतर और तेज़ी से गोल-गोल घूमती रहती हैं, एक अंतहीन वृत्त में. उनकी पूर्ति होती रहे, तो स्थिति टेक इट फॉर ग्रांटेड की आ जाती है. उमेश के जाने के बाद सोचा कुछ पल बैठकर उलझनों की गांठ को खोल ले, पर ड्रॉइंगरूम के बिखराव को देख और उलझ गई. बुक्सवाली रैक्स के साथ छेड़छाड़ की गई थी. डेकोरेशन के कुछ पीस भी वहां से हटाए गए थे. ऐसा लग रहा था कि कमरे की सेटिंग करने का भी मूड बन रहा था किसी का. किसका? उमेश का या बच्चों का? उसे तो वे इन बातों में शामिल नहीं करते. वह व्यवस्था के साथ बार-बार खिलवाड़ करना पसंद जो नहीं करती.
“भैया, एक बार ममा से तो पूछ लो.” इस बार अंकिता का स्वर कानों से टकराया. ये दोनों भाई-बहन उसके बेडरूम में क्या कर रहे हैं. वहां जाने की कोई मनाही नहीं है, पर वे कभी जाते ही नहीं हैं. सबको अपने-अपने कमरे में बैठे रहने की आदत है. वे लोग इसे प्राइवेसी का नाम देते हैं. जो बात करनी है, सब ड्रॉइंगरूम में बैठकर करें, ऐसी हिदायत उमेश की भी है. उसका मानना है कि आधुनिकता केवल व्यवहार से ही नहीं, घर के हर कोने से भी झलकनी चाहिए. आख़िर स्टेटस इसी तरह मेन्टेन होता है. बच्चों की सोच पूरी तरह से अपने पापा से प्रभावित है, ख़ासकर पारित की… तभी तो कितनी बार वह स्वयं को मिसफ़िट महसूस करती है इन सबके बीच.
बेडरूम में पहुंची, तो देखा उसकी क़िताबों की आलमारी एकदम खाली है. ज़मीन पर हर ओर क़िताबें बिखरी हुई हैं.
“यह क्या हो रहा है?” हैरानी के साथ क्रोध भी फूटा उसके स्वर से.
“ममा, क्या बेकार की बुक्स रखी हुई हैं आपने. इन टाइटल्स का तो कभी नाम भी नहीं सुना मैंने. सब आउटडेटेड हो गए हैं. आपको पढ़ना ही है, तो नए ऑथर्स की बुक्स पढ़िए न. मेरा कलेक्शन देखिए, बेहतरीन लेखकों के इंग्लिश नॉवेल्स हैं उसमें.” पारित क़िताबों को एक गत्ते के डिब्बे में डालने लगा.
“रखो इन्हें अंदर, ये सब क्लासिक्स हैं. इतने बरसों में तो ये उपन्यास और कहानी संग्रह इकट्ठे किए हैं मैंने. नेहरू, गांधी, विवेकानंद की ऑटोबायोग्राफ़ी या गीता, उपनिषद् जैसे ग्रंथ कभी आउटडेटेड नहीं होंगे.” उसे लग रहा था कि जैसे चुनौतियों के पहाड़ उसे घेरे खड़े हैं. सामने एक प्रतिद्वंद्वी की तरह उसका बीस वर्षीय बेटा खड़ा है, जो नई पीढ़ी के होने का दंभ लिए उसके मूल्यों व सरोकारों को परास्त करने पर आमादा है.
“ओह! कम ऑन ममा, ग्रो अप. बेशक आप अपने टाइम के हिसाब से बहुत एजुकेटेड और स्मार्ट हैं, पर फिर भी आज के समय के अनुसार तो आउटडेटेड हो ही गई हैं. पापा को देखो, वे जानते हैं समय के साथ चलना.”
पारित का फेंका व्यंग्य का तीर उसे अंदर तक भेद गया.
“पापा घर का नए सिरे से रिनोवेशन करवाना चाहते हैं, पर उससे पहले वह चाहते हैं कि जो चीज़ें काम की न हों, आई मीन पुरानी हो गई हों, उन्हें फेंक दिया जाए.” अंकिता ने उसके चेहरे पर खिंची दर्द की लकीरों को जैसे पढ़ लिया था, इसलिए उसने बात संभालने की कोशिश की.
‘पुरानी…’ झटका लगा उसे. “मेरे कमरे से दोनों बाहर जाओ.” उसके शब्दों की रिक्तता और आंखों में आई नमी ही थी, जिसके कारण शायद अंकिता पारित को लगभग खींचते हुए बाहर ले गई.
वह धम्म् से पलंग पर बैठ गई. पुराने हो गए पलंग से किर्र की आवाज़ आई. यह भी उसकी तरह आउटडेटेड हो गया है. उसकी शादी का पलंग है. पापा ने बहुत चाव से शीशम की लकड़ी का बनवाया था. आलमारी भी उसी डिज़ाइन की थी. उसकी पढ़ने में दिलचस्पी को ध्यान में रखकर स्टडी टेबल भी ख़ास तैयार करवाई थी. स्टडी टेबल तो कब से उसके कमरे से विदा होकर अंकिता के कमरे में चली गई है.
रोज़ ही तो टोकते थे उमेश, “बेकार कमरे में जगह घेर रही है, हटाओ इसे यहां से. प़ढ़ लिया जितना पढ़ना था तुमने. पोस्ट ग्रेज्युएशन किया है, काफ़ी है. यहां मैं कंप्यूटर टेबल रख लूंगा. लैपटॉप पर हमेशा काम नहीं होता.”
कंप्यूटर कमरे में रखा गया, तो एक फ़ायदा तो हुआ था कि उस पर प्रैक्टिस करते-करते वह उसे ऑपरेट करना और फिर धीरे-धीरे उसके प्रोग्राम्स से वाकिफ़ हो गई थी. हालांकि कभी उस पर काम करने की नौबत नहीं आई. कभी उमेश के काम में मदद करनी चाही, तो तटस्थता से यह कहकर कि ‘तुम पावर प्वॉइंट के बारे में क्या जानो?’ उसकी क्षमताओं पर प्रश्नचिह्न लगा दिया जाता, जबकि वह प्रेज़ेंटेशन तैयार कर सकती थी और मैटर कंपोज़ भी कर सकती थी.
ज़मीन पर बैठकर वह एक-एक क़िताब पर ऐसे हाथ फेरने लगी मानो उन्हें दुलार रही हो, अपने बेटे की बदतमीज़ी की उनसे क्षमा मांग रही हो. क्या वाकई वह आउटडेटेड हो गई है? स्कूल-कॉलेज में बेस्ट स्टूडेंट की उपाधि जीतनेवाली वो, हरीतिमा त्रिवेदी… बच्चों को तो उसका नाम भी बाबा आदम के ज़माने का लगता है.
उसे हमेशा लगता है कि रिश्तों को सींचने के लिए संवेदनशीलता की आवश्यकता सबसे ज़्यादा पड़ती है. हालांकि उसकी संवेदनशीलता का मज़ाक उड़ाने से तीनों ही नहीं चूकते. कभी-कभी जब वह बचपन की खट्टी-मीठी यादों के पिटारे को खोलकर बैठ जाती, तो उमेश एकदम से भड़क उठते, “पुरानी बातों को अब भी क्यों याद करती रहती हो? जो बीत गया, सो बीत गया. मुझे तो लगता है कि मैंने एक पढ़ी-लिखी गंवार से शादी की है.” वह अवाक् रह जाती.
“उमेश, मैं यह नहीं कहती कि अतीत की परछाइयों के साथ जीओ, पर वे पल जो ख़ुशी से भरे थे, वे घटनाएं जिनका ध्यान आते ही होंठों पर हंसी थिरक जाए, उनके बारे में बात कर लो तो वे जीने का संबल बन जाती हैं.”
“इन सेंटीमेंट्स के साथ जीने का कोई फ़ायदा नहीं है. बाहर निकलो इन भावनाओं के पिंजरे से.” उमेश उकताकर कमरे से बाहर चले जाते. समय से दो क़दम आगे चलने की उनकी इस ललक से कांप जाती है. कैक्टस क्यों उगा रहे हैं वे, जिन्हें छूने भर से उंगलियां लहूलुहान हो जाती हैं? फूलों की कोमल पत्तियां उन्हें क्यों पसंद नहीं? कितना पैनापन है उमेश के व्यवहार में. पारित भी तो कैक्टस की धारदार नोक से जब-तब उसकी संवेदनाओें को छलनी करता रहता है.
“ममा, आप क्यों इतनी सेंसिटिव हैं? आज के ज़माने में प्रैक्टिकल होकर जीना पड़ता है, वरना मुरझाए हुए फूलों के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आता.” अंकिता अभी कैक्टस की तरह पैनी नहीं हुई है. फूल की कोमलता है उसके अंदर, इसलिए उसके दर्द को समझ उसे समझाने की कोशिश करती है.
क्या पीढ़ियों का अंतर कभी मिट नहीं सकता? क्या हर बार पुरानी पीढ़ी को नई पीढ़ी के आगे परास्त होना पड़ेगा? कुछ पुरानी यादें, कुछ धुंधले चित्र उसकी आंखों और दिमाग़ पर किसी बाइस्कोप की तरह तैरने लगे. क्या एक बार फिर पुनरावृत्ति होगी?
कहां होंगी शुचि दी? जीवित भी होंगी या नहीं? मन में बुरे ख़याल पहले उपजते हैं.
जब वह ब्याहकर आई थी, तो शुचि दी के बच्चे ब्याहने लायक हो चुके थे. कहने को वे उसकी सबसे बड़ी ननद थीं, पर रिश्ता उन दोनों के बीच सदा मां-बेटी जैसा बना रहा. उमेश को वे अपना बच्चा ही मानती थीं. उमेश अपने घर में सबसे छोटे थे और उनसे बड़ी रागिनी और उनमें पंद्रह वर्ष का अंतर था. कितनी बार हंसते हुए कहते हैं उमेश, “क्या ज़माना था वह भी. मां जब प्रसव पीड़ा झेल रही होती थी, तो बेटी गर्भावस्था की हालत में उसकी सेवा करने आ जाती थी. मेरे पैदा होने के बाद शुचि दी ने भी एक महीने बाद मेरे भानजे को जन्म दिया था.”
कभी-कभी वह सोचती है कि उपहास उड़ाना सबसे आसान काम है. हर समय की अपनी रीतियां होती हैं और समाज उन्हीं के अनुसार चलता है, बस उन रीतियों को रूढ़ियां नहीं बनने देना चाहिए. वो मानती है कि व़क़्त के अनुसार ख़ुद को बदल लेना चाहिए, पर इतना भी नहीं कि ख़ुद की पहचान और अस्तित्व तक उसमें विलीन हो जाए.
उमेश के लिए तो शुचि दी हमेशा ‘अम्मा’ ही बनकर रहीं. देखा-देखी पारित और अंकिता भी उन्हें अम्मा पुकारने लगे थे. तब उन्होंने हंसते हुए कहा था, “मेरी उम्र देख… जिसे देखो वह मुझे अम्मा, दादी, नानी बना देता है. मेरे बुआ होने के अधिकार से मुझे वंचित मत करो.” लाड़ से उन्होंने पारित और अंकिता को बांहों में भर लिया था.
“ठीक है, हम आपको बुआ अम्मा कहेंगे.” पल भर को हंसी की रेखा उसके होंठों पर खिल गई. पारित बचपन से ही कुछ डिफ़रेंट करने के चक्कर में रहा है. ‘लाइफ़ में कुछ डिफ़रेंट करना चाहिए,’ यह जुमला तो वह जब-तब बोलता रहता है.
शुचि दी कितनी सुलझी और समझदार थीं. रिश्ते-नातों को सहेजना उन्हें बख़ूबी आता था और अपने दोनों बेटों को भी तो बहुत सहेजकर पाला था उन्होंने. कभी किसी बात की तकलीफ़ या कमी नहीं होने दी. न कभी डांटा, न मारा. उनके पति कोई धन्ना सेठ तो थे नहीं, पर ख़ुद परेशानियां सहती रहीं वे. बच्चों को विदेश में पढ़ाया और ब्याह भी उनकी पसंद की लड़कियों से किया. कभी उनके जीवन में हस्तक्षेप नहीं किया. पति के गुज़रने के बाद तो वे धर्म-कर्म में अपना सारा समय व्यतीत करती थीं.
लेकिन उनके बेटे कुछ ज़्यादा ही आधुनिक हो गए थे. बात-बात पर उन्हें टोकते रहते. “मम्मी, तुम्हें तो किसी चीज़ की सेंस ही नहीं है. हमारे दोस्तों के सामने कॉटन की साड़ी पहनकर क्यों आती हो? थोड़ी वेल ड्रेस्ड रहा करो. आजकल आपकी उम्र के लोग ओल्ड की गिनती में नहीं आते हैं. कुछ मैनर्स-एटीकेट्स सीख लो. हमें आपकी वजह से कितनी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.” बेटा-बहू और उनके पोते-पोती तक जब-तब उन्हें टोक देते. शुचि दी अक्सर उसके सामने अपने दर्द को बता बहुत रोतीं. उस समय वे उन्हें किसी अबोध शिशु की तरह लगतीं, जिसके मन की बात कोई समझना ही नहीं चाहता है.
“हरीतिमा, मैंने ही तो इन्हें जन्म दिया है, पाला है, संस्कार दिए हैं और हर क़दम पर उनकी रक्षा करने के लिए चट्टान की भांति खड़ी रही हूं. कभी एक खरोंच तक नहीं लगने दी, हर घाव ख़ुद सह लिया. मैंने कोई एहसान नहीं किया है, न ही मैं इनसे कोई उम्मीद रखती हूं. फिर क्यों ऐसा हो गया है? मेरी ही गोद में बैठ ये ज्ञान की पुस्तकें बांचा करते थे. मेरा ही हाथ पकड़कर इन्होंने चलना सीखा और आज मैं ही इनके लिए किसी पुरानी चीज़ की तरह हो गई हूं. कहां भूल हो गई मुझसे?”
“सब ठीक हो जाएगा दी, आप परेशान न हों. कुछ दिन यहीं रह जाइए हमारे साथ.” वह उनकी पीठ थपथपा सांत्वना देती.
“नहीं हरीतिमा, यह कोई विकल्प नहीं है. कितने दिन मैं रह लूंगी यहां. बच्चों को भी बुरा लगेगा और फिर यह तो पलायन होगा, समस्या का समाधान नहीं. शायद मुझे अपने को उन जैसा बनाना होगा. पर इतना आसान नहीं होता असली चोले को उतारकर झूठ और दिखावे का मुलम्मा चढ़ाना.”
शुचि दी के मन में उमड़ती बदलाव की आंधी और स्वयं को परिस्थितियों के अनुसार तैयार करते देख, तब लगा था सब ठीक हो जाएगा. पर कहां हो पाया ऐसा? बहुत विक्षिप्त-सी रहने लगी थीं वे. उनके बच्चे अक्सर शिकायत लेकर मामा के पास आते, “देखिए न मामा, मम्मी कैसी हो गई हैं. एकदम ऊलजुलूल हरकतें करने लगी हैं. कभी सारा दिन बाल धोती रहती हैं, तो कभी मेकअप पोत सोफे पर ऐसे बैठ जाती हैं मानो कोई आनेवाला हो.”
वह और उमेश शुचि दी से मिलने गए तो भारी मन से ही लौटे. अपने बेटों के अनुसार बदलने के प्रयास में वे अपना आत्मविश्वास खोने लगी थीं. डिप्रेेशन का शिकार हो गई थीं. बिना नींद की गोली लिए सो ही नहीं पाती थीं. उस दिन सुबह उनका फ़ोन आया था. “हरीतिमा, अब तो मेरे बेटे परायों के सामने भी मेरी बेइ़ज़़्ज़ती करने लगे हैं. कहते हैं मैं पागल हो गई हूं. चल, मैं तुझसे बाद में बात करती हूं. बहू देखेगी तो चिल्लाएगी. अभी मंदिर के लिए निकल रही हूं मैं.”
उस दिन शुचि दी जो निकलीं, तो फिर लौटी ही नहीं. शायद विक्षिप्त अवस्था में घर आने का रास्ता भूल गई थीं या सायास ही राह भटक गई थीं. वे अक्सर पूछती थीं कि क्या आधुनिकता का जामा पहनना ही अपडेटेड होने की निशानी होता है. हम पुराने लोगों की सोच, समझ और अनुभव क्या कुछ मायने नहीं रखते?
“ममा, अब तक आप ऐसे ही बैठी हैं.” अंकिता उसके सामने खड़ी थी.
“तुम चलो, मैं अभी आई.”
क्या इतिहास एक बार फिर से अपने को दोहरा रहा है? ‘नहीं’ वह कभी ऐसा नहीं होने देगी. वह अपने आपको बुआ अम्मा नहीं बनने देगी. वह लड़ेगी अपनी पहचान कायम रखने के लिए… वह रास्ता नहीं भटकेगी. उसका एक वजूद है, सोच है. वह हर चुनौती का सामना करेगी. हर नई पीढ़ी को यह एहसास दिलाना ज़रूरी है कि पुरानी पीढ़ी किसी पीली पड़ गई क़िताब या धुंधलाते अक्षरों की तरह नहीं होती…
वह उठी और एक-एक क़िताब को उठाकर फिर से आलमारी में संजोने लगी.

   सुमन बाजपेयी
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