घर का लॉक खोलती भावना कि फोन की घंटी बज उठी और फोन की स्क्रीन पर बड़े बेटे पारस का नाम उभर आया!
“मम्मा! पहुंच गए आप लोग?” पारस ने पूछा.
“पहुंच गए… बस अभी घर पर आए हैं.” भावना के स्वर भारीपन को पारस अच्छी तरह समझ रहा था.
“मम्मा, आठ बजे रहे हैं, आप थक गई होंगी. खाना ऑर्डर कर देना, बनाना मत.” पारस ने आख़िरी शब्दों पर जोर देते हुए कहा.
“हम्म!” भावना के मुंह से संक्षिप्त सा जवाब निकला. बेटे की परवाह के कारण पता ही नहीं चला कब मेरी आंखें सजल हो गईं. तभी पति अमित ने पीछे से आ दोनों कंधे थाम लिए… अक्सर स्पर्श, भावों को शब्दों से कहीं ज़्यादा आसानी से व्यक्त कर देता है.
“अरे मम्मा, आज के लिए मना कर रहा हूं. सुबह को नाश्ते में कुछ चटपटा मसालेदार बना लेना. अच्छा फोन रखता हूं. बाय, टेक केयर!”
पारस से बात कर भावना यंत्रवत कपड़े बदल, जैसे ही अपने कमरे में गई, सामने मेज पर रखी किताब हाथ में ले बोली, “फिर बुक्स यहां रख दी व्योम!” इतना कह ख़ुद खड़ी की खड़ी रह गई…
“किसे आवाज़ लगा रही हूं… अभी व्योम को होस्टल छोड़ कर ही तो आ रहे हैं!”
किताब को सीने से लगा वहीं बैठ गई, “मेरा बच्चा!.. कैसे रहेगा होस्टल में?.. अकेला, परिवार से अलग!” आंखों का बांध टूट गया और आंसुओं के सैलाब ने चेहरे के साथ हृदय को भी भिगो दिया. जी भर के रोना चाहती थी, लेकिन अमित की पदचाप सुन ख़ुद को संयत किया और किताब को व्योम के कमरे में रखने चली गई.
कमरे का हर कोना आज उसे बेजान लग रहा था…
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आलमारी में किताब रखते हुए बाकी किताबों को भी ठीक कर दिया… चला गया वो, अब कौन फैलाएगा घर… समेटा हुआ बिस्तर जैसे भावना का उपहास उड़ा रहा था! मेज पर रखे अलार्म को उठाया… अलसुबह का अलार्म लगा हुआ था. बंद कर दिया… अब इसकी ज़रुरत नहीं!
अपने कमरे में जा बिस्तर पर लगभग गिर ही गई… अमित ने खाना ऑर्डर करने के लिए कहा.
“आप मंगवा लो, जो भी खाना है. मैं कुछ नहीं खाऊंगी.”
भूख तो जैसे मर ही गई थी, इतने लंबे सफ़र के बाद… वो थकी हुई महसूस कर रही थी. एक नज़र अपने घर में घुमायी, बरसों से संजोया हर एक कोना आज उसे खाने को आ रहा था. अपना ही घर भावना को क़ैद खाने सा महसूस हो रहा था.
थोड़ी देर में अमित आ कर उसके बराबर में बैठ गए. धीरे से भावना का सिर दबाते हुए बोले, “यही सपना तो सालों से संजों रही थी तुम. आज साकार हो गया, फिर क्यों परेशान हो?.. इस सिलेक्शन के लिए जितनी मेहनत व्योम की थी उतनी ही तुमने भी तो थी… नोट्स बना कर देना, रात-रात भर उसके साथ जागना… कभी गर्म दूध, तो कभी बादाम खिलाना! जितनी तुम्हारी सामर्थ्य थी, उससे बढ़कर मेहनत करी… उसे मानसिक दृढ़ता दी, जिससे वो हार और जीत दोनों को संभाल सके. तुम दोनों का ही तो जुनून था, जो आज सफलता बनकर सामने आया है…
और यह पहली बार नहीं है कि तुम्हारी संतान तुम से अलग हुई है, पारस भी तो पिछले तीन साल से घर से दूर है… फिर आज तुम कमज़ोर क्यों हो रही हो?”
अमित की बात सुन भावना बिखर गई, “जानते हो अमित, जब पारस होस्टल गया था… मेरे पास व्योम था. उसकी पढ़ाई में ख़ुद को उलझा कर हृदय में उठती संतान वियोग की पीड़ा को दबा लिया था मैंने, लेकिन आज! आज मैं खाली हो गई हूं… ये घर इन महंगे साजो सामान से नहीं, मेरे बच्चों की आवाज़ से गुलज़ार होता है… उन दोनों के झगड़े मेरे घर की रौनक़ हैं. बरसों से जानती थी, चाहती भी थी कि यह दिन आए, लेकिन आज मेरे अंदर की मां कोई दलील सुनने और मानने को तैयार नहीं है… सच यही है अमित, आज एक मां अकेली रह गई!” इतना कह भावना अमित के सीने से लग सिसकने लगी.
“भावना, मन को मज़बूत बनाओ… पंछी घोंसले में अंडे को सहेजते हैं. सही समय आने पर उनके बच्चे भी तो आकाश नापने उड़ जाते हैं. घोंसले से उड़ान तक का सफ़र तय करते हैं… यही सृष्टि का नियम है. बच्चे घर से दूर हुए हैं, हमारे दिल से दूर कहां हैं! जब चाहो बात कर लो, जब चाहो वीडियो काॅल कर लो…”अमित की बात पूरी नहीं हुई थी कि दरवाज़े की घंटी बजी.
“इतनी रात को कौन आया होगा?” बोलते हुए अमित दरवाज़ा खोलने चले गए और भावना स्वयं को संयत करती पानी पीने रसोई में चली गई.
पानी ग्लास में डाल ही रही थी कि किसी ने पीछे से आ, आंखों पर हाथ रख दिया.
“पारस!” भावना ने हाथ छूते ही पहचान लिया और पलट कर बेटे से लिपट गई.
“मुझे पता था, हमारी मदर इंडिया ने खाना नहीं खाया होगा… इसलिए मैं आ गया, चलो जल्दी से खाना लगा लो!”
फिर भावना के गले लगते हुए बोला, “मां हम दोनों आपसे कभी अलग नहीं हो सकते, चाहे कितनी ही दूर पढ़ने जाए या नौकरी करने! जानती हो व्योम ने कहा था मुझसे कि भैया मां अकेलापन महसूस करेंगी. आप मेरे जाने के बाद दो-तीन दिन के लिए घर चले जाना.” भावना ख़ामोशी से बस अपने बच्चों के प्यार और परवाह को महसूस कर रही थी.
– संयुक्ता त्यागी
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