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कहानी- पेड़ (Short Story- Ped)

सच तो यह है कि इस पेड़ को काटने को मेरा मन ही नहीं हुआ. मैंने कुल्हाड़ी उठाई भी थी, लेकिन ऐसे लगा जैसे इसी पेड़ ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मुझे यूं लगा कि पेड़ अभी बोलेगा और कहेगा कि पुराना हूं तो क्या हुआ, माना कि फल-फूल नहीं देता, लेकिन इस बगीचे में फैले बाकी पौधों को और इस लॉन को तो धूप से बचाता हूं और फिर मेरी अब उमर भी कितनी बची है? दो-चार साल में तो ऊपर वाला ख़ुद ही मुझे बुला लेगा. बस बीबीजी! मेरा हाथ वहीं का वहीं रुक गया. मुझे लगा कि जैसे हमारे घर-परिवार में बड़े-बूढ़े होते हैं न, जिन्हें हम अपने पर बोझ समझते हैं, लेकिन जाने-अनजाने वे हमारा कितना भला करते हैं, हमें पता ही नहीं चलता. वैसे ही इस लॉन में फैले परिवार का बड़ा-बूढ़ा यह पेड़ है.”


 
“तुमने भी ये जाने कहां की मुसीबत घर में बैठा रखी है. दो दिन के लिए कहीं जाना हो, तो इनके खाने की चिन्ता… हर रविवार को मोहल्ले की निठल्ली औरतों को बुला लेंगी. सारी शाम बेकार. कोई और काम कर ही नहीं सकता. मैं तो कहती हूं इन्हें दुबारा गांव छोड़ आओ.” रानी की बड़बड़ाहट ज़ारी थी और यह कोई पहला मौक़ा नहीं था. अक्सर बिस्तर पर जाने से पहले रानी यूं ही बड़बड़ाती और रवि उसकी बातों को सुनी-अनसुनी करके सो जाता. हालांकि चाची को गांव से यहां बुलाने का मूल सुझाव भी रानी ने ही दिया था.
रवि ने तब कहा भी था, “देखो रानी! वहां गांव में चाची ठीक से रह रही हैं. गांव वाले मकान की देखभाल भी इसी बहाने हो जाती है, वरना यहां से जाकर देखभाल कर पाना मुश्किल ही है.” लेकिन रानी ने तो जैसे ज़िद ही पकड़ ली. रवि ने समझाया भी कि चाची अब बूढ़ी हो गई हैं. उनसे गांव में भी कोई काम-धाम अब नहीं होता है.

“अरे तो उन्हें यहां कौन-सा काम-धाम करना है. बाई है, आया है, लेकिन ऐसे मौक़े पर उनका यहां होना ही काफ़ी होगा.” कहकर उसने रवि को ज़बर्दस्ती गांव भेज ही दिया.
चाची आईं, तो रवि को लगा कि रानी ने उन्हें बुलाकर अच्छा ही किया. चाची थीं भी बड़ी सीधी-सादी. दो व़क़्त की रोटी के अलावा मोहल्ले की दो-चार औरतों के साथ मिलकर कुछ भजन-कीर्तन करने के अलावा उनकी अपनी कोई ज़रूरत ही न थी. मुन्नी के होने पर तो सारी-सारी रात जागती रहीं. सचमुच चाची न होतीं, तो द़िक़्क़त तो होती ही. लेकिन वही चाची अब रानी को फूटी आंख नहीं सुहाती हैं. जब देखो एक ही रट, ‘चाची को गांव भेज दो, वापस भेज दो.’ सोचता हुआ रवि जाने कब सो गया.

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दूसरे दिन खाने के बाद रवि से जब रानी ने फिर वही सवाल दोहराया, तो रवि चिढ़ गया, “आख़िर चाची को तुम क्यों वापस गांव भेजना चाहती हो?”

“देखो, चाची की अब कोई ज़रूरत तो है नहीं. बेकार ख़र्चा भी बढ़ता है और उनसे अब कुछ होता भी तो नहीं है. मैं, मुन्ने को सम्हालूं कि चाची की देखभाल करूं.” रानी ने कहा.
“अच्छा सोचूंगा.” कह कर रवि फिर सो गया.
आज रविवार था. रवि ऑफिस के काम से दो दिन से बाहर गया हुआ था. रानी सुबह से ही घर को सेट करने में लगी हुई थी. मुन्नी चाची के पास थी. तभी बाहर का दरवाज़ा किसी ने खटखटाया. इस समय कौन होगा? सोचते हुए रानी ने जाकर दरवाज़ा खोला.

“अरे! रामदीन, तुम! इतने सवेरे-सवेरे.”

“बीबी जी! साहब ने कई दिन पहले कहा था कि लॉन को संवारना है. आज छुट्टी थी. सोचा आज काम पूरा कर दूं.”
“अच्छा हुआ तुम आ गए. मैं सोच भी रही थी कि रामदीन के पास लगता है अब हमारे घर के लिए समय ही नहीं बचा.”
“नहीं बीबीजी! ऐसा न कहें. अब क्या है कि जब से मुनुआ की अम्मा ख़तम हुई है, ज़रा घर की ज़िम्मेदारी बढ़ गई है.” बातें करते-करते दोनों लॉन में आ गए.

“देखो रामदीन! एक तो यह घास बहुत बढ़ गई है और…”
“मैं देख लूंगा.” कहते हुए रामदीन ने कमीज़ उतारी और खुरपी लेकर बैठ गया.

“अच्छा रामदीन! तुम काम करो. तब तक मैं चाय बना कर लाती हूं.” कहकर रानी फिर कमरे में आ गई.
काम करते-करते कब दोपहर हो गई, रानी को पता ही नहीं लगा.

“बीबीजी! आकर देख लीजिए और जो कमी हो बताइए.” रामदीन की आवाज़ आई, तो रानी को होश आया कि काम करते-करते काफ़ी समय गुज़र गया.
लॉन सचमुच नया-नया लग रहा था. रामदीन सचमुच मन लगाकर काम करता है. सारी घास, जो इधर-उधर निकल आईं थी, साफ़ हो गई थीं. फालतू डालियां छांट दी गई थीं. गुलाब के पेड़ के चारों ओर क्यारियां बना दी गई थीं.

“वाह रामदीन! तुमने तो इस जंगल को सचमुच देखने-दिखाने लायक बना दिया.” रानी के स्वर में प्रसन्नता झलक आई.

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“अरे बीबीजी! मैंने क्या किया है.” रामदीन को अपनी प्रशंसा सुनकर संकोच हुआ.
रानी एक-एक पौधे को ध्यान से देख रही थी. गेंदे के पौधे में अभी फूल लगे नहीं थे, लेकिन लगता था कि इन जाड़ों में इन पर इतने फूल आएंगे कि सारा लॉन ही खिल उठेगा. यह तुरई की बेल भी लगता है इस बार फलेगी. टमाटर के पेड़ के पौधों की बाढ़ भी ठीक नज़र आ रही थी.

“रामदीन! यह… यह किसका पौधा है.”

“ये गुलमोहर हैं बीबीजी!” लॉन काफ़ी बड़ा था. सचमुच रामदीन ने मेहनत की थी.
“अरे रामदीन! तुमने इस पेड़ को फिर छोड़ दिया. तीन साल से देख रही हूं, न तो इस पर फूल आते हैं, न ही फल, बस जगह घेरे यूं ही खड़ा रहता है. पिछली बार भी तुमसे कहा था कि इसे काट दो, लेकिन तुमने तब भी इसे ऐसे ही छोड़ दिया था और इस बार भी तुमने छोड़ दिया.” रानी की आंखों में लॉन के कोने वाला पेड़ फिर खटका.

जब यह कोठी रवि ने ख़रीदी थी, तब भी लॉन में यह पेड़ था. तभी रानी ने सोचा था कि बाद में इस पुराने पेड़ को कटवा देंगे. बिना फल-फूल देने वाले इस पेड़ की आख़िर ज़रूरत ही क्या है? लेकिन उस समय रह गया और आज फिर रामदीन ने इसे छोड़ दिया.

“काट तो देता बीबीजी!, लेकिन…”

“लेकिन मेहनत ज़्यादा लगती, क्यों?” रानी ने रामदीन की बात बीच में ही काट दी.
“हम लोग गांव के लोग हैं बीबीजी! उम्र हो गई तो क्या हुआ, काम करने से तो उल्टे हाथ ही खुलते हैं. हम मेहनत से जी नहीं चुराते हैं, लेकिन बीबीजी…! सच तो यह है कि इस पेड़ को काटने को मेरा मन ही नहीं हुआ. मैंने कुल्हाड़ी उठाई भी थी, लेकिन ऐसे लगा जैसे इसी पेड़ ने मेरा हाथ पकड़ लिया. मुझे यूं लगा कि पेड़ अभी बोलेगा और कहेगा कि पुराना हूं तो क्या हुआ, माना कि फल-फूल नहीं देता, लेकिन इस बगीचे में फैले बाकी पौधों को और इस लॉन को तो धूप से बचाता हूं और फिर मेरी अब उमर भी कितनी बची है? दो-चार साल में तो ऊपर वाला ख़ुद ही मुझे बुला लेगा. बस बीबीजी! मेरा हाथ वहीं का वहीं रुक गया. मुझे लगा कि जैसे हमारे घर-परिवार में बड़े-बूढ़े होते हैं न, जिन्हें हम अपने पर बोझ समझते हैं, लेकिन जाने-अनजाने वे हमारा कितना भला करते हैं, हमें पता ही नहीं चलता. वैसे ही इस लॉन में फैले परिवार का बड़ा-बूढ़ा यह पेड़ है.”
तभी खट की आवाज़ हुई और रामदीन की बात आधी ही रह गई. किसी बच्चे ने अमरूद के पेड़ से अमरूद गिराने के लिए पत्थर फेंका था, जो आकर उसी पेड़ में पत्तियों के बीच उलझ गया.

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“ठहर तो…”

कहकर रामदीन दौड़ा भी, लेकिन कुछ देर में ही हांफता हुआ वापस आ गया.

“बड़े शैतान लड़के हैं. अमरूद के चक्कर में यह भी नहीं देखते कि किसी को चोट लग सकती है. वो तो अच्छा हुआ कि यह पेड़ बीच में था, नहीं तो वह पत्थर आकर सीधा आपको ही लगता. अच्छा बीबीजी! अब मैं चलता हूं मुनुआ घर में अकेला है.” कहकर रामदीन चला गया.

रानी के सामने अभी भी वह नुकीला पत्थर पड़ा था. यह पेड़ अगर रामदीन काट देता तो? कुछ सोचती हुई रानी वापस कमरे में चली आई.
“रानी! मैंने ख़ूब सोच लिया है और मेरे ख़्याल से तुम ठीक कहती हो.” रात को खाने के बाद लॉन में टहलते-टहलते रवि ने कहा.

“क्या ठीक कहती हूं मैं.” रानी के स्वर में उत्सुकता थी.

“यही कि चाची को गांव छोड़ आना ही ठीक रहेगा. मैं अगले रविवार को ही गांव जाऊंगा और चाची को भी साथ ले जाऊंगा.” रवि ने जैसे फ़ैसला सुनाते हुए कहा.
“तुम्हें गांव जाना है तो जाओ, लेकिन चाची को ले जाने की कोई ज़रूरत नहीं है. चाची यहीं ठीक हैं.” कहते हुए रानी ने अपनी आंखें उसी पुराने पेड़ पर गड़ा दीं और रवि आश्‍चर्यभरी नज़रों से उसे देखता ही रह गया.            
 
–  सुशील सरित


 

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