मैं कॉलेज आकर अपने कक्ष में बैठी ही थी कि बाहर से किसी ने पूछा, “क्या मैं अंदर आ सकती हूं मैम?”
मैंने उसे भीतर आने को कहा.
“अरे, आशा तुम? बताओ क्या बात है?”
“मैम, एक ख़ुशख़बरी है. मैंने पब्लिक सर्विस कमिशन की प्रारंभिक परीक्षा पीटी को क्लियर कर लिया है.” वह बेहद उत्साहित थी.
“वाह बेटा! लगन और मेहनत से हम सब कुछ हासिल कर सकते हैं. तुम ज़रूर अपने लक्ष्य तक पहुंचोगी.”
“यह सब आपका आशीर्वाद है मैम. आपने मुझे जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. मेरी सहायता की. मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी.” वह कहती जा रही थी और मैं तीन साल पहले उससे हुई पहली मुलाक़ात को याद करती विगत की ओर मुड़ गई थी. बीए ऑनर्स हिंदी की पहली क्लास में मैंने आशा को देखा था. पहली क्लास, नई प्रोफेसर सब उत्साहित थे. सामान्य परिचय के बाद क्लास शुरू हुई.
संभलो कि सुयोग ना जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला।
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर हैं अवलंबन को
नर हो, ना निराश करो मन को॥
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहकर कुछ नाम करो
यह जन्म यहां किस अर्थ अहो!
समझो जिससे यह व्यर्थ ना हो..।
मैं कक्षा में मैथिलीशरण गुप्त की कालजयी रचना पढ़ा रही थी और आशा मंत्रमुग्ध होकर मुझे देख रही थी. कक्षा के बाद उसने कहा था, “मैम! मैं इस सार्थक बात को हमेशा याद रखूंगी कि मेरा यह जन्म व्यर्थ ना हो.”
प्रतिदिन उसे नियमित समय पर क्लास में आते देखती. वह बहुत ध्यान से अपनी पढ़ाई करती थी. कुछ दिनों के बाद मेरी एक दोस्त, जो एक सामाजिक संस्था में सक्रिय सदस्य थी, उसने मुझसे कहा कि तुम अपने विश्वविद्यालय में देखना कोई ऐसी बच्ची हो, जिसे पढ़ाई में असुविधा हो रही हो, जो गरीब हो, फिर भी मेधावी हो. ऐसी किसी एक बच्ची को हम पूरी पढ़ाई का ख़र्च देंगे. मैंने अपनी कक्षा में इस संबंध में बात की, तो मुझसे मिलने जो छात्रा आई, उसे देखकर मैं चौंक पडी, “आशा तुम?”
“जी मैम ! मुझे पढ़ाई पूरी करने के लिए इस पैसे की ज़रूरत है. बहुत तकलीफ़ में हूं. दाने-दाने को मोहताज़…” वह बेहद मायूस नज़र आ रही थी.
फिर जो कहानी उभरकर सामने आई, उसने मुझे स्तब्ध कर दिया. आशा अपने मां-पिता की इकलौती संतान थी, पर उसके जीवन में विडंबनाओं का एक ऐसा गहरा अथाह सागर था, जिसका पारावार न था. छोटी सी उम्र में ही उसने जीवन की कई विडंबनाओं से प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर लिया था.
एक मासूम संवेदनशील बच्ची की दुखद कथा सुनकर मैं सिहर उठी थी. एक शिक्षिका होने के नाते मैंने उसे सांत्वना तो दी, पर मेरा अंतर्मन गहरे तक उसके दुख से जुड़ गया था. कभी-कभी मानव दूसरे की संवेदनाओं से इतना जुड़ जाता है कि ख़ुद पर बीती हुई ही समझकर दुखी हो जाता है.
मात्र 16 वर्ष की उम्र में आशा की मां बीनू का विवाह एक ऐसे व्यक्ति से हो गया, जो कहने को तो इंजीनियर था, लेकिन शराब और अन्य कई तरह के व्यसनों का शिकार था. विवाह होते ही बीनू जब ससुराल आई, तो उसके सास-ससुर और पति ने दहेज की मांग को लेकर उसका जीना दुश्वार कर दिया. दिन-रात के तानों से तंग आकर जब भी वो अपने मायके चली आती, तो माता-पिता उसे ससुराल में ही जीने-मरने की सीख देकर वापस भेज देते.
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वह दुखी होकर, प्रताड़ित होकर मायके लौटती और बार-बार ससुराल जाने पर विवश हो जाती. दिन ऐसे ही बीत रहे थे कि तभी उसे पता चला कि वह गर्भवती है. उसने सोचा बच्चे के आने के बाद शायद उसके ससुरालवालों और उसके पति का व्यवहार उसके प्रति बदल जाएगा. पर ऐसा नहीं हुआ. बेटी के जन्म ने आग में घी का काम किया. वो नन्हीं सी बिटिया के साथ अकेली तिल-तिल जलने लगी.
उसके पति को गांव से सैकड़ों किलोमीटर दूर पटना में सरकारी नौकरी मिली, तो उसने सोचा अब सब ठीक हो जाएगा. लेकिन उसके पति ने उसे गांव में ही छोड़ दिया और पटना आकर दूसरा विवाह करने की ठान ली और बीनू को तलाक़ का नोटिस भेज दिया. दुखी व्यथित बीनू ने हज़ारों कोशिशें की थीं कि पति रास्ते पर आ जाए, पर ऐसा नहीं हुआ और अंततः कोर्ट में तलाक़ का केस चलने लगा. और बीनू अपने मायके में रहने पर विवश हो गई. उसका पति बिना विवाह किए ही एक औरत के साथ रहने लगा और ज़िंदगी में आगे बढ़ गया. किंतु बीनू की ज़िंदगी ठहर गई. परित्यक्ता का दाग़ अपने दामन में समेटे बीनू अपनी नन्हीं सी बच्ची के साथ एकाकी रह गई.
मायके के बहुत बड़े परिवार में एक छोटा सा हिस्सा बनकर वो अपने बच्चे की परवरिश करने लगी थी. बीनू ने बहुत प्यार से अपनी बिटिया का नाम रखा, आशा. आशा की परवरिश के लिए उसने अपने पति से उचित धनराशि की अपेक्षा की और कोर्ट में केस चलने लगा.
पहली बार जब दो वर्ष की बेटी को गोद में लिए बीनू अदालत पहुंची, तो पति को देख कर उसकी आंखें छलक उठीं. परंतु उसने मुड़कर अपनी पत्नी और बेटी की ओर देखा तक नहीं. बात अगली तारीख़ के लिए टल गई. ऐसे ही तारीख़ पड़ती रही. बीनू धीरे-धीरे बड़ी होती अपनी बच्ची को लेकर अदालत में जाती रही. 10 साल की आशा ने जब होश संभाला और पहली बार पिता को अपने समक्ष देखा, तो उसका मन दौड़कर उनकी गोदी में जाने के लिए मचल उठा था. लेकिन मां ने उसका हाथ थाम लिया और उसे वहां जाने से रोक दिया.
“तुम तो कहती हो यह मेरे पापा हैं, फिर क्यों रोकती हो?” बीनू ने जवाब दिया, “बेटा मैं उनसे मिल भी नहीं सकती. हमारा तलाक़ होने वाला है, इसलिए कोर्ट की तारीख़ पर हम नाना के साथ आते हैं.”
“तलाक़ क्या होता है मां?” नन्हीं बच्ची समझ नहीं सकी, पर पिता को देखकर संवेदनाओं का सागर उमड़ पड़ा था. किंतु उस पाषाण हृदय पुरुष के मन में अपनी नन्हीं सी बच्ची के लिए तनिक भी प्यार नहीं जागा. समय गुज़रता रहा और आशा ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली.
उसके सामने कई समस्याएं सुरसा की तरह मुंह बाए खड़ी थीं. नाना-नानी वृद्ध हो चुके थे. मामा-मामी किसके अपने हुए हैं, जो आशा के होते? उसकी मां की स्थिति घर में एक नौकरानी की तरह थी. आशा किसी तरह अपनी पढ़ाई कर पाती. दिन-रात सब की सेवा टहल में उसका समय गुज़र जाता. किसी तरह नाना की पेंशन से उसकी पढ़ाई आगे बढ़ रही थी. इंटर का फॉर्म भरते समय उसकी मां ने अपना आख़िरी सहारा अपने कंगन भी बेच डाले थे.
इंटर में वह बहुत अच्छे नंबरों से पास हुई, तो नाना ने उसका एडमिशन कॉलेज में करवा दिया और हिंदी ऑनर्स की कक्षा में मैं आशा से मिली. मेरी उस सहेली की मदद से आशा को तीन वर्ष तक के लिए स्कॉलरशिप मिल गई. उसकी पढ़ाई सुचारू रूप से चलने लगी. उसे अब किसी से कुछ मांगने की आवश्यकता नहीं थी. वो जब भी मेरे पास आती, मैं उसका हौसला बढ़ाने की कोशिश करती. कभी-कभी मुझे लगता कि मैं क्या उसका हौसला बढ़ाऊंगी, जिस बच्ची के हौसले स्वयं ही इतने बुलंद है, जो अपनी मां को उस नर्क से निकालना चाहती है, जो अपने पिता से मिलना चाहती हैे, जो कुछ कर दिखाना चाहती है.
एक दिन उसने मुझसे कहा था, “मैं जानती हूं भले ही मेरे पापा मेरी मां के साथ नहीं रह पाए, पर मैं जब जीवन में कुछ बड़ा बन जाऊंगी ना, कुछ अच्छा करके दिखाऊंगी, तो वो ज़रूर मेरी पीठ थपथपाने आएंगे.” कहते-कहते वो अनंत उत्साह से भर जाती. एक दिन कॉलेज में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, तो उसने भी एक बहुत अच्छा सा आलेख तैयार किया और अपनी कॉपी मुझे देते हुए बोली, “मैम, प्लीज़ इसे देख लीजिए कि यह सही है कि नहीं. मैं चाहती हूं कि मैं जो भी करूं, वह सर्वश्रेष्ठ हो.”
मैंने कहा, “कॉपी यहां रख दो मैं देख लूंगी.” वह कॉपी रखकर चली गई. सुंदर सी कॉपी का मुखपृष्ठ भी आकर्षक था. सुंदर-सुंदर पक्षी सागर तट पर उड़ान भर रहे थे. बेहद ख़ुशनुमा माहौल था. पर… वह कॉपी नहीं पीड़ा का एक दस्तावेज़ था, जो मेरे सामने खुल चुका था. आशा ग़लती से अपनी वह कॉपी मेरे पास छोड़ गई थी, जिसमें वह प्रतिदिन अच्छी या बुरी स्वयं से संबंधित घटनाओं का ज़िक्र किया करती थी. मैंने कुछ पन्ने पलटे, एक पेज़ पर दृष्टि ठिठक गई…
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2/2/2018
आज मेरा जन्मदिन है. मैं 16 साल की हो चुकी हूं, पर इन 16 वर्षों में मेरा जीवन गहरे खालीपन से भरा रहा है. मैं हर क्षण प्रतिपल अपने पिता के लिए तरसती हूं. काश मेरे पापा भी मेरे साथ रहते, तो छोटी-छोटी चीज़ों के लिए मुझे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाने पड़ते. पर मैं जब भी अदालत में पापा को देखती हूं, वह कभी भी मेरी ओर स्नेह की दृष्टि से नहीं देखते. किंतु मैं उनकी बेटी तो हूं ना… काश! मैं दौड़ते हुए उनकी तरफ़ जाऊं और वो मुझे गले लगा लें. मेरी पीठ पर स्नेह भरी थपकी दें… कितना सुंदर क्षण होगा वह मेरे लिए. हे ईश्वर, मुझे मेरे पिता से मिला दे.
4/3/2018
मैंने कई बार मां को छुप-छुप कर रोते देखा है. मैं जानती हूं मामा-मामी कुछ कह देते हैं, तो मां की आत्मा पर गहरी चोट लगती है. हे ईश्वर, मुझे इतनी शक्ति देना कि मां को मैं उन सभी तरह की पीड़ाओं से उबार सकूं, जो भोगने पर वो आज विवश है. मैं अपने बूढ़े नाना-नानी की सेवा कर सकूं, मां के जीवन में ख़ुशियां लौटा सकूं. आज मामी ने कितनी आसानी से मां को एहसास दिला दिया कि उसकी स्थिति इस घर में केवल एक नौकरानी की है… ऊपर से छोटी मामी की वह व्यंग्यात्मक हंसी, “कुछ तो कमी रही होगी, जो पति ने त्याग दिया! हमारे सिर पर हमेशा के लिए गठरी पटक दी…”
मैं पन्ना पलटते जा रही थी और आशा की हृदयगत पीड़ाओं का प्रवाह मेरे सामने खुलता जा रहा था… निरंतर बहता जा रहा था.
15/4/2018
छोटी-छोटी चीज़ों के लिए मेरी मां का भीतर से परास्त हो जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. न जाने कब मैं जीवन में कुछ कर सकूंगी और अपनी मां के सपने को पूरा कर सकूंगी?
कल मां के साथ बाज़ार गई थी. एक सुंदर सी लाल रंग की ड्रेस पर मेरी दृष्टि पड़ गई. मां ने मेरी दृष्टि को अपनी दृष्टि से तोला और उनके चेहरे पर जो वेदना मिश्रित हंसी कौंधी थी, उसे मैं कभी भूल नहीं पाऊंगी. नहीं चाहिए मुझे लाल ड्रेस… मुझे अपनी मां के चेहरे पर मुस्कान चाहिए. मुझे कुछ करना है. कुछ कर दिखाना है. हे ईश्वर! शक्ति देना..!
23/10/2018
यह आस-पड़ोसवाले, दुनिया-समाजवाले लोग कितने ख़राब हैं, मुझसे कभी मेरी पढ़ाई, मेरी पुस्तकों और मेरी ख़ुशियों के बारे में कहां पूछते हैं? क्या तुम्हें तुम्हारे पापा की तरफ़ से मुआवज़ा मिला? तुम्हारी मां मायके में रहकर ख़ुश है क्या? तुम दोनों मां-बेटी कैसे रहती हो? अपना अलग घर क्यों नहीं ले लेते? जब तक नाना-नानी हैं, तब तक तो ठीक है, उसके बाद तुम्हारा क्या होगा? सारा समाज ही जैसे हमारा शुभचिंतक बन कर बैठा हुआ है. इतने शुभचिंतक हैं, फिर हमें मदद क्यों नहीं मिलती?
हमारा कैसा समाज है, सच कहती हूं मैं मां, तुम पापा द्वारा छोड़ दिए जाने पर भी कितने स्नेह और आदर से अपने माथे में सिंदूर लगाती हो. बिंदी सजाती हो, चूड़ियां पहनती हो. क्यों? किसके लिए?
मैं मौन… पन्ने पलटती जा रही थी. वेदनाओं का दस्तावेज़ मुखर था.
2/2/2019
मां… मां… तुम्हारी बेटी 18 साल की हो चुकी है. कुछ समय में वह ग्रैजुएट होगी. उसकी मेहनत रंग लाएगी. मैं जानती हूं शिक्षा कितना बड़ा धन है. अगर तुम शिक्षित होतीं, तो आज अपने पांव पर खड़ी होतीं और हम दोनों मां-बेटी अपने जीवन को अच्छी तरह जी रहे होते. क्या तुम्हें नहीं लगता, तुम्हारी अशिक्षा ने तुम्हारे पांव में बेड़ियां डाल दी थीं?
नाना-नानी ने जितना ख़र्च तुम्हारे विवाह पर किया, उससे अच्छा तो वह तुम्हारी शिक्षा पर करते, तो आज हम दोनों मां-बेटी ऐसा जीवन जीने को विवश नहीं होते. तुम ठीक कहती हो, मैं बहुत बोलती हूं. पर क्या करूं. एक परित्यक्ता मां की अकेली बेटी, जिसके सिर पर उसके पिता का साया ना हो, उसे जीवन में जीना कम, लड़ना ज़्यादा पड़ता है. तुम भी अच्छी तरह समझती हो. तभी तो बिंदी-सिंदूर लगाकर समाज में परित्यकता का जीवन जीने पर विवश हो… इस तर्क के साथ कि अभी तलाक़ नहीं हुआ है..?
मां! एक प्रश्न और… एक जननी बेटी पत्नी के रूप में जीवन होम कर देने पर भी एक स्त्री का महत्व उसके पति के लिए कौड़ी के तुल्य भी नहीं होता… वहीं दूसरी ओर पति एक बिंदी या सिंदूर के रूप में… सब कुछ त्याग देने पर भी… दंश देता रहता है, जैसे मेरे पिता ने तुम्हें दिया… समाज में ऐसी विषमता क्या अशिक्षित होने के कारण नहीं है? अब नहीं मिलना मुझे ऐसे पिता से… नहीं लेना उनका आशीर्वाद. नहीं चाहिए अपनी पीठ पर उनकी थपकी…
21/10/2019
और यह क्या नाना-नानी मेरे लिए रिश्ते भी लाने लगे? मामा-मामी और नाना-नानी को तुम्हें बताना चाहिए कि वह एक बार पहले जो ग़लती कर चुके हैं, वह दोबारा न करें. 18 साल की उम्र में मैं शादी नहीं करूंगी. मैंने तुमसे कहा तो तुम बोलीं, “हो सकता है तुम्हारा भाग्य सुधर जाए.” अभी भी ग़लती कर रही हो मां! एक लड़की का भाग्य शिक्षा से जागता है, शादी से नहीं, यह मैं अच्छी तरह से समझ गई हूं. मुझे पढ़ना है, जीवन में आगे बढ़ना है.
21/1/2020
आज मैं बहुत ख़ुश हूं. आज मुझे तुम्हारे आशीर्वाद से और ईश्वर की कृपा से स्कॉलरशिप मिल गई है, जिससे मैं बहुत अच्छी तरह से अपनी बीए की पढ़ाई पूरी कर सकूंगी. उसके बाद मुझे पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में बैठना है. बहुत बड़ा अफसर बनना है. तुम्हारी बहुत सारी सेवा करनी है. तुम्हें ज़िंदगी के सभी दुखों से हटाकर सुख की ओर मोड़ना है. मुझे आशीर्वाद दो कि मैं अपने हर लक्ष्य में सफल हो सकूं.
25/3/2020
हे ईश्वर! आख़िरकार मेरे भाग्य में आपने क्या लिखा है? कितनी तकली़फें लिख डाली हैं? पहले ही कम कष्ट था, जो कोरोना की विषम भयावह स्थिति से लड़ने के लिए पूरे विश्व को छोड़ दिया है. किसी तरह मैं ट्यूशन करके और मां कपड़े सिलकर अपना घर चलाते थे. अब कोरोना के कारण इस पूरे लॉकडाउन ने हमारी क़िस्मत पर भी जैसे ताला जड़ दिया है.
1/4/2020
बार-बार लॉकडाउन खुलने की अवधि बढ़ाई जा रही है. सड़कों पर पसरा सन्नाटा हमारे मन में बस गए सन्नाटे से कम थोड़े ही है. ऊपर से मेरी मां के मन में समाया भीषण सन्नाटा, जिसकी कौंध मुझे मां की आंखों में दिखाई देती है और मेरे दिल में उतर कर एक भयावह भविष्य की ओर ले जाने लगती है. हमेशा हर परिस्थिति से जूझनेवाली मैं इस विकट परिस्थिति में एक-एक पल मोहताज़ होकर मामा-मामी और नाना-नानी की आश्रित बनी पड़ी हूं और मेरी मां की तकलीफ़ों का तो कहना है क्या?
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12/8/2020
आज का दिन कभी भूल नहीं पाऊंगी. आज घर में साफ़ कह दिया गया- दोनों मां-बेटी अपने भोजन का इंतज़ाम कर लो. पास में पैसा नहीं होता, तो शब्द भी चुभ जाते हैं. हमें बड़े से मकान के पीछे वाला कमरा दे दिया गया है, जहां मैं और मां जीवन से जंग लड़ रहे हैं… लड़ रहे हैं भूख से जंग.
22/10/2020
कब खुलेगा यह लॉकड़ाउन? कैसे चलेगा ख़र्च? हे ईश्र! ऐसा पिता किसी को मत देना… मां का शिक्षित होना कितना ज़रूरी है अब समझ पा रही हूं…
16/12/2020
मां की खांसी रात में सोने नहीं देती.. मुझे पता है उन्हें कफ सिरप की ज़रूरत है और हमारे पास इतने पैसे नहीं… हे ईश्वर! कोई ना कोई रास्ता दिखाइए! किसी जन्म में ऐसा पिता ना मिले.
2/2/2021
19 वां जन्मदिन… और भगवान से प्रश्न… क्यों.. कब तक.. कैसे…???
13/9/2021
जीवन धीरे-धीरे पटरी पर आने लगा है. तीन ट्यूशंस मुझे मिले हैं. मां के चेहरे पर बहुत दिनों के बाद मुस्कान अच्छी लगी, आख़िरकार कफ सिरप आ ही गया.
2/2/2022
बीस वर्ष की आशा हूं मैं… पढ़ रही हूं… बढ़ रही हूं. अखिलेश्वर है अवलंबन को…
मैं पढ़ती जा रही थी और मेरी आंखें भीगती जा रही थीं. कितना जीवट है इस लड़की में.
थोड़ी ही देर में वो भागती हुई आई. घबराते हुए बोली, “मैम! मैं ग़लत कॉपी दे गई थी. ये सही है, आप देख लीजिएगा.”
“ओह हां, मैंने तो देखा ही नहीं अभी तक!”
वो आश्वस्त होकर चली गई. मेरी अंतर्रात्मा में गुंजन हुआ. वो ग़लत नहीं सही कॉपी थी. धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी और उसने बीए ऑनर्स की परीक्षा फर्स्ट क्लास से पास कर ली. उसकी ख़ुशी की सीमा नहीं थी. उसने उत्साहित होते हुए मुझे बताया, “अब मैं आराम से पब्लिक सर्विस कमिशन की तैयारी करूंगी, क्योंकि मुझे बहुत आगे बढ़ना है…”
“हां क्योंकि तुम अपने पिता से मिल सको और वह तुम्हारी पीठ थपथपा सकें, है ना?” मैं हंस पड़ी थी.
“नहीं मैम, अब मुझे उनकी थपकी नहीं चाहिए. मुझे मेरी मां की सुंदर ज़िंदगी चाहिए. एक ऐसी ज़िंदगी जो कैनवास की तरह मेरे सामने फैली हो और जिसमें मैं मनचाहे रंग भर सकूं.” उसका उत्साह उसकी आंखों से छलक रहा था.
“मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है.” मैंने उसे आशीर्वाद दिया था. उसने एम.ए में एडमिशन ले लिया. छोटे-छोटे बच्चों को टयूशन पढ़ाकर अब वह अपना ख़र्च निकालने लगी थी. घर के कामों में मां का हाथ भी बंटाती थी और दिन-रात पढ़ाई में जुटी रहती.
समय पंख लगाकर उड़ता गया. उसकी मेहनत रंग लाई. आज उत्साह से भरी एक दूसरी आशा के रूप में वो मेरे समक्ष खड़ी थी.
उसकी आंखों में आत्मविश्वास की अलौकिक चमक कौंध रही थी. मैं जानती थी कि वह जल्दी ही अपने लक्ष्य को पा लेगी. जिस दिन एक लड़की यह जान जाती है कि यह जीवन उसका अपना कैनवास है और वह उस पर मनचाहे रंग भर सकती है. किसी भी विकट परिस्थिति से लड़ सकती है. अपनी वेदना को ढाल बना सकती है, तो वो कुछ भी कर सकती है… कुछ भी..!
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