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कहानी- विश्‍वास हो तुम मेरा… (Short Story- Vishwas Ho Tum Mera…)

तुम्हारा निश्छल प्यार मेरे मन के एक कोने में सदा बसा रहेगा. किस रूप में, कह नहीं सकता, क्योंकि मेरे प्यार पर पहला अधिकार मेरी पत्नी का है. मैं उसे धोखा नहीं दे सकता. नियति तो देखो- मैं तुम्हें भी धोखा नहीं देना चाहता. विश्‍वास का कोना सुरक्षित रहेगा कनिका, मेरे भीतर. विश्‍वास हो तुम मेरा.

उस छुअन में कुछ था… अकस्मात् हुआ वह स्पर्श… लेकिन ऐसा लगा, मानो जिस्म में अनगिनत फूलों की ख़ुशबू बस गई हो. बारिश की हल्की-हल्की फुहारों का एहसास था उस छुअन में. कभी-कभी क्षण भर में भी जीवन के अनंत पलों को एक साथ जीया जा सकता है. मैंने उस पल वही महसूस किया. ख़ूबसूरती और इच्छा का संगम… भर-सी गई मैं उस स्पर्श से. किसे पता था कि वह एक छुअन मेरी ज़िंदगी की दिशा को ही बदल देगी, ढेर सारे रंग भरकर, फिर उसे…
नहीं, अभी वो सब नहीं वरना ख़ूबसूरती का मर्म कम हो जाएगा. कुछ पल आंखों में तैरता प्यार भी कभी-कभी पूरी ज़िंदगी जीने के लिए काफ़ी होता है. क़िताबी बातें नहीं, ज़िंदगी का सच है यह. लेकिन सिर्फ ख़ुशनुमा लम्हे को जीने वाले ही इस बात को समझ सकते हैं.
प्रिंसिपल सर को कुछ काग़ज़ देकर लौट ही रही थी कि उन्होंने एक फ़ाइल थमाते हुए कहा, “कनिका, ये ज़रा प्रो़फेसर मधुकर को दे देना. अर्जेंट हैं. चपरासी को दूंगा तो वह उन्हें ढूंढ़ने में ही व़क़्त लगा देगा.”
मधुकर! इस नाम का भी कोई प्रो़फेसर है क्या कॉलेज में! कॉलेज यूनियन की प्रेसीडंेंट होने की वजह से मैं अमूमन हर प्रो़फेसर को पहचानती थी. मेरी नज़रों में तैरते सवाल को पढ़ते हुए प्रिंसिपल साहब तुरंत बोले, “नए आए हैं. साइंस के प्रो़फेसर हैं. तुम ठहरी मनोविज्ञान की छात्रा, कैसे जानोगी? अभी साइंस लैब में होंगे, पहचानने में दिक़्क़त नहीं होगी.”
मैं सीधे साइंस लैब की ओर बढ़ गई. सोचा था कि कोई अधेड़, बहुत ही गंभीर क़िस्म का प्रो़फेसर चीर-फाड़ या किसी नए प्रयोग में लगा होगा. साइंस लैब में जाकर खड़ी हो गई थी मैं. सन्नाटा था हर तरफ़. दोपहर बाद वैसे भी उपस्थिति थोड़ी कम हो जाती थी. आख़िरी पीरियड के लिए स्टूडेंट्स कम ही रुकते थे. कॉलेज से बंक मारने का अपना एक अलग ही लुत्फ़ होता है, मस्ती और शरारत…
“यस?” एक स्वर गूंजा. मुझे लगा, जैसे एक साथ कई घंटियां बज गई हों, जैसे झरना कल-कल करता बहने लगा हो, जैसे किसी ने बांसुरी पर मीठी तान छेड़ दी हो. मैं हड़बड़ा गई और उसी हड़बड़ाहट में जब मैंने उन्हें फ़ाइल पकड़ाई तो हाथ छू भर गया उनसे. उस छुअन से मेरे जिस्म में एक मादक लहर-सी दौड़ गई.

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भरपूर नज़रों से देखा उन्हें. जाने क्या हो गया था मुझे उस पल? न कोई संकोच, न डर, न किसी क़िस्म की झिझक… कुछ भी तो मुझे रोक नहीं रहा था. आवाज़ औैर छुअन की तरह उनके चेहरे में भी एक कशिश थी. काम देवता हों जैसे! हां, यही ख़याल आया था मेरे मन में.
फाइल दे दी. काम ख़त्म… पर मन था कि वहीं ठहरे रहने के लिए मजबूर कर रहा था. बात करने के लिए भी तो कोई विषय या बहाना चाहिए होता है. कोई स्टूडेंट हो तो दस निरर्थक बातें भी की जा सकती हैं. या फिर बेवजह हंसी-ठहाके ही लगाए जा सकते हैं, लेकिन वे तो प्रो़फेसर थे. उस पर पहली मुलाक़ात, वह भी बिना परिचय के. फिर भी ढीठ बनी खड़ी रही वहीं. कोई 28-29 साल का एक स्मार्ट प्रो़फेसर ठीक मेरे सामने खड़ा था. कपड़ों से उसकी परिष्कृत रुचि की झलक मिल रही थी. हर चीज़ में एक पऱफेक्शन था. शर्ट पर एक क्रीज तक नहीं थी.
“और कुछ काम है? मैं मधुकर हूं- साइंस का प्रो़फेसर. तीन दिन पहले ही ज्वाइन किया है.”
क्या अंदाज़ था! मानो हर शब्द क़दमताल करता चल रहा हो, जैसे फिसलने की जल्दी न हो शब्दों को भी.
“नहीं.” मैं बुरी तरह से झेंप गई थी. क्या सोच रहे होंगे प्रो़फेसर भी? कैसी लड़की है?
“मैं कनिका… सेकंड ईयर की स्टूडेंट हूं. सायकोलॉजी ऑनर्स.” मैंने अटक-अटक कर जवाब दिया था.
चेहरे पर मुस्कान फैल गई थी उनके. ओह! दिल किया कि किसी तरह से उस मुस्कान को अपनी हथेलियों में कैद कर सदा के लिए अपने पास संजोकर रख लूं.
“मन की बातें पढ़ती हो, भई हम तो शरीर विज्ञानी हैं. शरीर का चीर-फाड़ कर उसका अध्ययन करते हैं, मन के भावुक व कोमल तंतुओं को पहचानने की, पकड़ने की समझ नहीं है हममें. सोच रही होगी कि कितना बोरिंग प्रो़फेसर है, एकदम क्रूर.” फिर वही मादक हंसी उनके होंठों के सौंदर्य को छलकाते हुए फैल गई.
‘कामदेव का रूप हैं और मन के भावों को न समझने की बात कर रहे हैं! नहीं, मैं मान ही नहीं सकती.’ मेरे दिमाग़ में संवादों के बीच भी उठा-पटक चल रही थी. ‘यह व्यक्ति कहीं से भी बोरिंग नहीं हो सकता. भावनाओं का अथाह समुद्र इसके अंदर तेज़ गति से हिलोरें लेता होगा. यह मान नहीं रहे, सो बात अलग है.’ मन ने फिर झुठलाया मुझे.
“क्या सोचने लगीं?” प्रो़फेसर ने टोका. वह कुछ हैरान-से दिखे थे, शायद मेरा व्यवहार व चेहरे की प्रतिक्रिया देखकर.
“कुछ नहीं सर, चलती हूं.” तेज़ क़दमों से चलते हुए और अपनी सांसों को नियंत्रित करते हुए मैं जब साइंस लैब से निकली तो महसूस हुआ कि मेरे अंतरतम का एक हिस्सा कहीं पीछे छूट गया है.
“कहां चली गई थी? कितनी देर से ढूंढ़ रही हूं तुझे.” सामने से आती माही ने दनादन प्रश्‍न दाग़ दिए. 
“कहीं नहीं.” चाहती थी, मुझे उस क्षण बिल्कुल अकेला छोड़ दिया जाए.
“क्या बात है? कुछ बदली-सी लग रही है. क्या खो गया है तेरा?” माही ने चुटकी ली.
 “कहा न कुछ नहीं, मैं लायब्रेरी जा रही हूं. बाय.” जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर लगभग भागती हुई मैं लायब्रेरी में घुस गई. एक खाली कोने में बैठी काफ़ी देर तक ख़ुद को संयत करने की कोशिश करती रही. यह क्या हो रहा था मेरे साथ?
पहली बार तो किसी पुरुष को नहीं देखा था मैंने! कॉलेज यूनियन की प्रेसीडेंट थी, इसलिए एक बिंदासपन भी आ गया था मुझमें. अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने को हमेशा तैयार रहती थी. हर समय कुछ न कुछ करने की धुन सवार रहती थी मुझ पर. कभी कैैंटीन में बेहतर स्नैक्स की व्यवस्था को लेकर, कभी लेडीज़ स्पेशल, तो कभी लाइब्रेरी में क़िताबों को लेकर… मेरे एजेंडा की लिस्ट लंबी-चौड़ी थी. ऐसे में कभी किसी पुरुष को लेकर भावनाओं का ज्वार-भाटा उठा ही नहीं था मन में.
बहुत कोशिश की पढ़ने में दिल लगाने की, पर लग रहा था जैसे उनकी छुअन मेरे शरीर में बस गई है और मुझे सहला रही है.

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घर पहुंचकर सीधे पलंग पर जाकर लेट गई… अपने हाथों को देखा, जिसमें प्रोफेसर मधुकर का स्पर्श था. सब कुछ बहुत संगीतमय लग रहा था. पायल की रुनझुन मेरे ह्रदय के तारों के साथ लय मिला रही थी. शीशे के सामने खड़े होकर स्वयं को निहारा. गालों पर गुलाबी रंगत छा गयी थी. आंखों में सपने खुमार बनकर तैर रहे थे.
अगले दिन जब कॉलेज पहुंची, तो महसूस हुआ कि रातभर में मैं बदल-सी गई हूं.
“हाय कनिका, क्या हुआ? रातभर सोई नहीं थी क्या?” माही ने पूछा.
“कुछ भी तो नहीं.” मेरी अल्ह़ड़ता और बिंदासपन को जैसे विराम लग गया था. आंखों में शरारत के बजाय स़िर्फ तलाश समा गई थी.
“आज सब पिक्चर देखने का प्रोग्राम बना रहे हैं. तुम चलोगी न?”
 “नहीं, मैं नहीं जाऊंगी माही.”
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे रहे थे. पढ़ाई में तो क्या मन लगता, फ्री पीरियड होते ही क़दम साइंस लैब की ओर मुड़ गए. हमेशा मेरे साथ रहने वाली माही को यह बहुत अजीब लगा.
“प्लीज़, अभी मैं तुम्हें कुछ नहीं समझा सकती और मुझे यक़ीन है कि मेरी दोस्त होने के नाते तुम मुझे समझने की कोशिश करोगी.”
माही की आंखों में ढेरों प्रश्‍न व चेहरे पर परेशानी की शिकन देख मैं उसे समझाने लगी, पर जानती थी कि मैं उसे नहीं, ख़ुद को समझा रही थी.
“किसे ढूंढ़ रही हो?” साइंस लैब में झांकते हुए जैसे मेरी चोरी पकड़ी गई. पलटी तो देखा, प्रो़फेसर मधुकर खड़े थे.
“नहीं… वो… मैं…”
“लगातार तीन पीरियड थे. अभी फ्री हुआ हूं. लैब में सामान रखना था, सो चला आया. आओ, तुम्हें अपने हाथ की बनी कॉफ़ी पिलाता हूं. अभी बहुत लोगों से मेरी दोस्ती नहीं हुई है, तुम ही साथ दे दो.”
मैंने देखा, प्रो़फेसर ने लैब में ही कॉफी बनाने का सामान रखा हुआ था. परक्यूलेटर में पानी डालते हुए बोले, “दरअसल मैं जिस कॉलेज में रहूं, मेरा ़ज़्यादा व़क़्त लैब में ही बीतता है, इसलिए कॉफी का प्रबंध करके रखता हूं. यही एक बुरी आदत है मुझमें.”
वही प्यारी-सी हंसी होंठों पर तैर गई थी. मेरा मन बेचैन हो उठा. उनके चेहरे को हाथों में भर चूमने को जी कर उठा.
अपने ही ख़्यालों से मैं कांप उठी थी. कप पकड़ते हुए भी हाथ कांपे.
“माना कि मनोविज्ञान की छात्रा हो, पर हमेशा खोए-खोए रहना या सोचते रहना भी ठीक नहीं है. हंसो भई.” फिर वही खिलखिलाहट. नहीं, नहीं बैठ सकती अब और. कप रखते हुए बोली, “चलती हूं.”
“कुछ काम याद आ गया क्या?”
“हां, नोट्स बनाने हैं… इसलिए.” बात अधूरी छोड़ मैं तेज़ी से बाहर निकल आई. माथे पर आई पसीने की बूंदों को पोंछते हुए मैं तेज़ सांसों को संभालने की कोशिश करने लगी.
प्यार के रेशे मन से होते हुए शरीर में समा गए थे. प्रो़फेसर का चेहरा, उनकी बातें, उनकी हंसी… ओफ! प़ढ़ती तो अक्षर पर वही सब उभर आता. बुलंद आवाज़ में अपने व दूसरों के हक़ के लिए लड़ने वाली मैं, अब जब भी यूनियन की किसी मीटिंग में बैठती तो ध्यान लग ही नहीं पाता.
माही के आगे सब कुछ उड़ेल गई थी एक दिन. दिल हल्का हो गया था.
“कह दे न उस प्रो़फेसर को दिल की बात. इतनी बिंदास हुआ करती थी तू. उसके सामने आते ही क्यों तेरी आंखें झुक जाती हैं? ब़र्फ की तरह पिघल जाती है. तू कहे, तो मैं बात करूं?”
“न, कभी नहीं.” घबराकर उठ खड़ी हुई थी मैं. अपने और उनके बीच मैं किसी को नहीं आने दे सकती.
चार महीने कशमकश में ही बीत गए. सर्दियां आ गई थीं. लगातार तीन छुट्टियां थीं. हम दोनों के बीच वार्तालाप का सिलसिला बेशक कायम था, पर अधिकतर प्रोफेसर ही वक्ता होते थे. मैं चुप बैठी उनकी बातों को सुनती रहती थी. बहुत हुआ तो ‘हां-हूं’ में जवाब दे देती.
उस दिन लास्ट पीरियड अटेंड कर जब मैं निकली तो बस स्टैंड पर कोई नहीं था. माही उस दिन आई नहीं थी. मैंने सोचा, इस व़क़्त अगर प्रो़फेसर आ जाएं तो करवट बदलती रात की बेचैनी कम हो जाए.
“आओ, मैं तुम्हें ड्रॉप कर देता हूं.”
कार से झांकते हुए प्रो़फेसर मधुकर ने आवाज़ लगाई. लगा कि मैं फूलों के बिस्तर पर लेटी हूं और ख़ुशबू मेरी सांसों में बस गई है. मुराद पूरी हो गई थी मेरी! काश, उस वक़्त कुछ और मांगा होता, तो शायद वह भी मिल जाता.
“मैं इन तीन दिनों की छुट्टियों में घर जा रहा हूं.”
“कहां?” मुझे तो यह तक नहीं पता था कि वह कहां रहते हैं? कितनी बेवकूफ़ हूं मैं भी. सच तो यह था कि मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं जानती थी.
“देहरादून में है मेरा परिवार, वहीं जा रहा हूं.”
“आपके परिवार में कौन-कौन हैं?” डरते-डरते मैंने पूछा.
“मेरी पत्नी, मां और एक छोटी बहन है.”

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झनाक! कुछ टूटा था मेरे भीतर. सब कुछ धंसने लगा था मेरे भीतर. आंसू पलकों पर तैर गए. मैंने सपने देखे थे, बिना यह जाने कि मधुकर की ज़िंदगी में और कौन है? ग़लती मेरी थी. प्रो़फेसर ने तो कभी किसी तरह का वादा नहीं किया था. न ही उनकी बातों से कभी लगा कि वह भी…? एक प्रोफेसर और छात्र का रिश्ता ही तो वह अभी तक निभाते आ रहे थे.
“जानती हो, किसी से दोस्ती होने के बीच एक केमिस्ट्री काम करती है कनिका, वरना हमें जीवन के कारवां में अनगिनत लोग मिलते हैं, अच्छे-बुरे सभी तरह के. हम अपनी पसंद के हिसाब से उन्हें फिल्टर कर लेते हैं. बस, कुछ लोग ख़ास बन जाते हैं, जैसे तुम.” एक दिन बातों-बातों में इतना कहा ज़रूर था उन्होंने. तब ख़ास होने का गर्व चेहरे को गुलाबी कर गया था. लेकिन ख़ास होने का अर्थ मैंने अपने मन से, अपनी इच्छा व चाहत के अनुसार प्यार से लगाया, तो उनका क्या दोष है?
 “यहीं उतार दीजिए, ” रुंधे गले से किसी तरह ख़ुद को संयत कर मैंने कहा. मधुकर ने बिना कोई सवाल पूछे गाड़ी रोक दी.
 “कल दोपहर 2 बजे की मेरी ट्रेन है. छोड़ने आओगी?” उनकी आवाज़ में अनुरोध था या फिर दर्द… यह समझने की शक्ति मेरे भीतर से चुक गई थी. वह काली रात मेरे सर्वांग को झिंझोड़ गई थी. प्यार का स्पंदन महसूस तो किया था मैंने, पर मेरी चाह अधूरी ही रह गई थी. उनके चेहरे को हाथों में भर चूमने की चाह. उनकी बांहों के घेरे में लिपट किसी घने पेड़ की छाया में बिना कुछ कहे-सुने मौन से ही तृप्त होने की चाह.
स्टेशन पर वह एक जगह यूं खड़े थे, मानो मेरा ही इंतज़ार कर रहे हों. तेज़ी से बढ़ी थी मैं उनकी ओर.
“यक़ीन था, तुम आओगी.” मेरे बस में नहीं रह गया था इस व़क़्त ख़ुद को संभाल पाना. बह ही निकले आंसू. 
 “मैं चाहता तो तुम्हें रोक सकता था, पर तुम्हारी आंखों में जो प्यार का समंदर हिलोरें मारता है न, वह मुझे हर बार डगमगाता रहा. हर बार चाहा नहीं मिलता. ज़रूरी भी नहीं कि मिलकर ही पूर्णता प्राप्त हो. हमारा जो मन है न, उसमें बहुत सारे कोने होते हैं और हर कोने की एक अलग अहमियत होती है. कोई जगह प्यार की होती है, तो कोई कोना दोस्ती का, कोई स्नेह व लगाव का, तो कोई नफ़रत का भी. तुम्हारा निश्छल प्यार मेरे मन के एक कोने में सदा बसा रहेगा. किस रूप में, कह नहीं सकता, क्योंकि मेरे प्यार पर पहला अधिकार मेरी पत्नी का है. मैं उसे धोखा नहीं दे सकता. नियति तो देखो- मैं तुम्हें भी धोखा नहीं देना चाहता. विश्‍वास का कोना सुरक्षित रहेगा कनिका, मेरे भीतर. विश्‍वास हो तुम मेरा.
मुझसे वादा करो, अपने को बिखरने नहीं दोगी. मैंने कल सच नहीं कहा था. मैं छुट्टियों पर नहीं जा रहा हूं. मैंने ट्रांसफ़र करा लिया है. इसे मेरी कमज़ोरी या पलायन मत समझना. नज़दीक रहता तो तुम्हारा मन रोज़ नए सपने बुनता रहता, जिन्हें मैं चाहकर भी पूरा नहीं कर पाता.”
मैं स़िर्फ सुन रही थी. शब्द-शब्द अपने आंसुओं के साथ पी रही थी.
“मनोस्थिति समझने की विद्वता है तुममें, जानता हूं मैं. संभाल लोगी अपने आपको. एक योग्य मनोचिकित्सक के रूप में देखना चाहता हूं तुम्हें. मेरा विश्‍वास झुठलाओगी तो नहीं न?” झील-सी गहरी उनकी आंखों में पनीलापन और चेहरे पर उदासी फैल गई. स्टेशन की गहमागहमी, आती-जाती ट्रेनों का शोर, कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. अगल-बगल से तेज़ी से निकलते लोगों के बीच भी लगा कि हम दोनों एक किनारे पर खड़े हैं. आसपास फूलों की लंबी कतारें हैं और संगीत की मधुर लहरियां हमारे बीच हिलोरें ले रही हैं.
मैंने उनके चेहरे को हाथों में भरकर चूम लिया. 
  

सुमन बाजपेयी

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Usha Gupta

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