Short Stories

कहानी- चाभी वाली गुड़िया (Short Story- Chabhi Wali Gudiya)

कार गन्तव्य की ओर बढ़ी जा रही थी और वो फिर से विचारों के तूफ़ान में फंसती चली जा रही थीं. ‘एक बार भी नहीं पूछा कि रिपोर्ट आयी या नहीं? सब कुछ याद रहता है, पर मैं नहीं.’ एक प्रश्‍न हथौड़े की तरह मन में टकराया था, ‘क्या मेरी बीमारी के बारे में सुनकर पति और बच्चों के व्यवहार में बदलाव आएगा?’ मस्तिष्क ने कहा, ‘शायद’. पर दिल ने कहा, ‘बिल्कुल नहीं.’ छठी इंद्री ने कहा, ‘मुखौटे पहने हुए लोगों को सत्य और यथार्थपरकता दिखती है क्या?’

एक बड़े से महलनुमा मकान के लंबे-चौड़े लॉन में कुर्सी पर वे अकेली बैठी थीं. शाम को विदा देती रात्रि बांहें पसारने लगी थी. चारों ओर का नीरव सन्नाटा एक रहस्यमयी ख़ामोशी में तब्दील होता जा रहा था. पर बाहर के सन्नाटे और एकांत से अलग उनके मन में भारी कोलाहल था. कई आवाज़ें एक-दूसरे को पछाड़ती हुई आपस में मिल-जुल गयी थीं.

माथे पर चुहचुहा आए पसीने की बूंदों को आंचल से पोंछकर वो कुछ सहज हुईं तो उठकर चहलक़दमी करने लगीं. अपने विशाल बंगले की ओर उनकी दृष्टि गयी तो एक विद्रूप-सी मुस्कान अधरों पर खेल उठी. इतना बड़ा बंगला… सुख के सारे साधनों और अकूत धन-वैभव से परिपूर्ण होकर भी क्या कभी उनके लिए ‘घर’ बन पाया? मकान को घर में बदलने की भीतरी  ख़्वाहिश लिए वो ख़ुद मकान में पड़ी निर्जीव वस्तुओं में कब शामिल हो गयीं, पता ही नहीं चला. अपरिमित वैभव होते हुए भी उन जैसा दरिद्र दुनिया में और कौन होगा? उनकी मुट्ठी तो हमेशा सुख की संपदा के हल्के से स्पर्श को भी तरसती रही है. जाने कितनी बार उन्होंने छोटे-छोटे सुखों को अपनी हथेली में सहेजना चाहा, पर हर बार बड़ा-सा आघात लगा है उन्हें. उनकी स्थिति पिंजरे में बंद बुलबुल से कम पीड़ादायक नहीं. दुख से आर्द्र आंखों को फिर आंचल से पोंछ कर उन्होंने पलट कर देखा, लंबी चमचमाती मर्सीडीज़ पोर्टिको में आकर रुक गयी थी. उनके पति ने कार का दरवाज़ा लॉक करते हुए दरबान से पूछा था, “मेमसाहब कहां हैं?”

“जी, लॉन में हैं.” दरबान ने अदब से उत्तर दिया. वो सहज होने का प्रयास करती हुईं वापस कुर्सी पर आकर बैठ गयीं. पर ये क्या…? वो चौंक पड़ीं. उनके पति लॉन में न आकर घर के भीतर चले गए थे. एक ठंडी सांस लेकर वो टेबल पर पैर फैलाकर कुर्सी पर अधलेटी-सी हो गयीं.

अभी कुछ देर पहले ही उनका फैमिली डॉक्टर उनके हाथ में जांच रिपोर्ट थमाकर कह गया था,

“मैं आपको किसी भ्रम में नहीं रखना चाहता सरिताजी, आपका ब्रेस्ट कैन्सर दूसरे स्टेज में पहुंच चुका है. आपको अस्पताल में जल्द-से-जल्द भर्ती हो जाना चाहिए. आपने इलाज में बहुत देर कर दी. अगर समय पर इलाज हो गया होता तो….”

यह भी पढ़ें: 40 के बाद महिलाएं हो जाएं सावधान: जानें ब्रेस्ट कैंसर के ख़तरे को और इसे रोकने का आसान तरीक़ा (40+Women Alert: Know The Breast Cancer Risk Factors And Preventive Measures)

“सच कितना भी कड़वा हो डॉक्टर, एक शांति का सृजन तो कर ही जाता है. मन का ऊहापोह शांत हो जाता है. एक बोझ-सा उतर जाता है मन से…” उन्होंने धीमी-सी मुस्कुराहट के साथ कहा था.

डॉक्टर के जाने के बाद वे जड़ की भांति निश्‍चेष्ट-सी बैठी रह गयी थीं. मन का दर्द आंखों में उतर आया था. कितना मुश्किल होता है, हृदयगत पीड़ा को दबा कर जबरन मुस्कुराना, वो जानती थीं. जीवनभर यूं ही तो मुस्कुराती आयी थीं वो. अपने से दोगुने उम्र के व्यक्ति को अपना जीवनसाथी बनाना उनकी मजबूरी थी. पर भारी दहेज के भार से बाल-बाल बचे पिता का ख़ुशी से दमकता चेहरा देखकर एक अनजानी-सी मुस्कुराहट उनके थरथराते अधरों का स्पर्श कर गयी थी. पिता की उम्रवाले पति का प्रथम स्पर्श उनकी ओढ़ी हुई मुस्कान में समा कर उन्हें किस कदर सिहरा गया था, क्या वो आज तक ‘वो क्षण’ भूल पायी हैं?

“मेरी बिटिया के तो भाग खुल गए… जो राजा वीरेन्द्रप्रताप सिंहजी के पोते के साथ इसका ब्याह हुआ…” पिता की गरीबी जब ख़ुशी बनकर छलकती तो एक मार्मिक मुस्कान सरिता को अपने आगोश में ले लेती थी.

अपनी प्रथम संतान की पहली आहट अपने भीतर महसूस करके वो ठीक से ख़ुश भी नहीं हो पायी थीं कि उन्हें अपनी सास और पति के राजशाही फरमान के आगे सर झुकाना पड़ा. गर्भ की जांच हुई… कन्या भ्रूण, जो ठीक से सांस भी नहीं ले पाया था… गर्भपात के ज़रिए दुनिया से ही मिटा दिया गया. असीम पीड़ा को मन में समेटे वो मुस्कुराती रहीं. आख़िर खानदान की इ़ज़्ज़त का सवाल था. जमींदार परिवार की बहू… पहली और इकलौती बहू… बेटा जनना उनका फ़र्ज़ था. बेटा न हुआ तो भला वंश कैसे चलेगा?

दो बार गर्भपात की असहनीय और अकथनीय पीड़ा को झेला है उन्होंने. अपनी अजन्मी कन्याओं का हृदयविदारक रुदन वो आज भी कानों में पिघले शीशे-सा उतरता महसूस करती हैं. कभी-कभी वो सोचतीं, उनसे ज़्यादा सुखी और संतुष्ट तो उनकी नौकरानी कमली है. समाज के तथाकथित उच्च वर्ग की निगाहों में कौंधती हेय दृष्टि को झेलती… गरीब… निम्न तबके की स्त्री… कमली… क्या इसे वंश चलाने का भय नहीं खाता?

एक दिन मुस्कुराते हुए उन्होंने उससे पूछ ही लिया था, “क्यों री, तेरे दो बेटियां हैं… क्या तेरे परिवारवाले एक बेटे की आस नहीं करते?”

“बहूरानी, गरीब के लिए क्या बेटा और क्या बेटी. जितने बच्चे हों, उतने जोड़ी हाथ कमाने वाले हो जाते हैं. बेटा होता तो बाहर से कमाकर लाता… बेटिया हैं तो इन्हें आस-पास के घरों में काम पर लगा दूंगी.”

“पर बेटा न हुआ तो तेरा वंश कैसे चलेगा?” उन्होंने मुस्कान के पीछे दर्द छिपाकर पूछा.

यह भी पढ़ें: हर महिला को पता होना चाहिए रिप्रोडक्टिव राइट्स (मातृत्व अधिकार)(Every Woman Must Know These Reproductive Rights)

“गरीबों का केवल पेट होता है बहूरानी. वंश… बेटा… ये सब बड़े लोगों के चोंचले हैं.” कमली ने निर्विकार भाव से कहा और पोछा लगाने लगी. वो हतप्रभ रह गयी थीं, ये क्या कह डाला कमली ने? एक अजीब-सी मुस्कान होंठों पर लिए वो सोच रही थीं,

“बिल्कुल ठीक कहती है कमली, वंश… खानदान… ये शब्द मन में गहरे तक उतरे गर्व और राजमद का प्रतीक हैं. कभी-कभी सत्य उस नश्तर की तरह होता है जो मन में किसी सोच के रूप में उभरे फोड़े का मवाद बहाकर असीम शांति का सर्जक बन जाता है.” जब उन्हें पहला बेटा हुआ था तो परिवारवालों के गर्वोन्मत्त चेहरे पर झलकती ख़ुशी देख वो भी एक फीकी हंसी हंस दी थीं. पर मन में वेदना का ज्वार-भाटा उमड़ रहा था. पांच वर्षों में ही वो तीन पुत्रों की मां बन गयी थीं. “तीन-तीन चिराग़ हैं हमारे खानदान में.” ससुर का ये वाक्य उन्हें तीर-सा दंश देता था. आत्मा छलनी हो जाती थी उनकी. मन करता चीखकर पूछें, “शमाओं को बुझाने वाले लोगों को चिराग़ के रौशन होने पर ख़ुश होने का क्या अधिकार है?”

पर आंसुओं से अवरुद्ध कंठ और अधरों पर मुस्कान लिए वो मौन खड़ी रह जातीं, मानो भीतर-ही-भीतर एक बार फिर मृत्युतुल्य यंत्रणा भोग लेतीं.

जब हृदयगत पीड़ा को शब्दों में ढालना बेहद दुश्कर हो जाता है तो वेदना का तीव्र प्रवाह हृदय के भीतर एक आंच का सृजन करता है… ऐसी आंच का, जो व्यक्ति का सर्वस्व जला डालती है… आत्मस्वाभिमान पर लगी चोट इस आंच को और सुलगा देती है. कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है उनके पास. बस एक चीज़ है… बड़े खानदान की बहू होने का तमगा, जिसे वो न तो फेंक सकती हैं, न ही लाख छिपाने पर भी छिपा सकती हैं. कहीं अकेली आ-जा नहीं सकतीं… किसी से खुलकर हंस-बोल नहीं सकतीं… हर जगह खानदान आड़े आ जाता है.

सर्वाधिक दुख तो उन्हें इस बात पर था कि उनके बेटे भी खानदानी परंपरा को जीवंत बनाने में पूर्ण सक्रिय थे. दिन ढले घर आना, सुरापान, क्लब, जुआ बात-बात में दिखावा.

“बाय मम्मा! हमें देर हो जाएगी.” सुबह-सुबह ये वेद वाक्य सुनना उनकी नियति बन चुकी है और पति तो बस रिश्तों की खानापूर्ति करते हैं. उन्हें लगता जैसे उनकी सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं. उस व़क़्त अपने विशाल ड्राइंगरूम के क़ीमती शोकेस में सजी गुड़िया उन्हें बिल्कुल अपना प्रतिरूप लगती. चाभी भरते ही मुस्कुराती हुई नृत्य करती गुड़िया मानो जीवंत हो उठती और चाभी ख़त्म होते ही स्पंदनहीन. वे भी तो खानदान के शोपीस में सजी एक चाभी वाली गुड़िया हैं, जो किसी-न-किसी के एक इशारे की चाभी उन्हें हंसने-रोने, बोलने-चलने, सोचने और संवरने को यंत्रवत मजबूर कर देती है. गुड़िया और अपने बीच बस एक अंतर महसूस करती हैं वो- धड़कनों का. पर कभी-कभी ये फ़र्क़ भी उन्हें मिटता नज़र आता है, जब उनका स्वाभिमान आहत होता है.

वे बहुत देर से लॉन में अकेली बैठी थीं. विचारों का प्रवाह रह-रह कर विगत की ओर मुड़ जाता था. पिता ने कितने प्यार से उनका नाम सरिता रखा था. पर क्या उनका जीवन कभी सरिता के निश्छल, नीरव, निर्द्वन्द्व और अनवरत प्रवाह के समतुल्य बन पाया? बचपन से ही मन की अभिलाषाओं और इच्छाओं को मन में ही दबाकर जीती आयी थीं वो.

कितना चाव था उन्हें बचपन से ही लाल रंग के कपड़े, चूड़ियां, बिंदी और महावर लगाने का. पर ये इच्छा भी सात परतों में दब गयी थी.

“जब देखो लाल रंग के कपड़े पसंद करती हो, गंवारूपन इतनी जल्दी कैसे जाएगा? मुझे ये रंग सख़्त नापसंद है. तुम नीले और सुनहरे रंगों के कपड़े पहनो. ऊंची सोसायटी में उठती-बैठती हो, रंग और क्वालिटी पहचानना सीखो. मुझे क्या पसंद है और क्या नापसंद, जल्दी जान जाओ तो आपके लिए अच्छा होगा.”

“और मेरी पसंद-नापसंद?” ये प्रश्‍न आंसुओं के अविरल प्रवाह में बह गया था. परंपरा… खानदान… पति की इच्छा… पिता की इच्छा… सारी चीज़ें उन्हें चाभी के समान दिखती थीं. ऐसी चाभी जो उनके स्पंदनहीन वजूद में कंपन पैदा कर, उनके अस्तित्व को किसी दूसरे की मुट्ठी में कैद कर जाती थी.

“सरिताजी, अभी तक आप यहीं बैठी हैं? मैंने बताया था न, आठ बजे हमें कला भवन पहुंचना हैं.” पति का भारी स्वर सुनकर उनकी तंद्रा भंग हुई. वो यंत्रवत उठीं और तैयार होकर कार में पति की बगल में बैठ गयीं. कार गन्तव्य की ओर बढ़ी जा रही थी और वो फिर से विचारों के तूफ़ान में फंसती चली जा रही थीं. ‘एक बार भी नहीं पूछा कि रिपोर्ट आयी या नहीं? सब कुछ याद रहता है, पर मैं नहीं.’ एक प्रश्‍न हथौड़े की तरह मन में टकराया था, ‘क्या मेरी बीमारी के बारे में सुनकर पति और बच्चों के व्यवहार में बदलाव आएगा?’ मस्तिष्क ने कहा, ‘शायद’. पर दिल ने कहा, ‘बिल्कुल नहीं.’ छठी इंद्री ने कहा, ‘मुखौटे पहने हुए लोगों को सत्य और यथार्थपरकता दिखती है क्या?’

कार झटके से कला भवन के गेट पर रुकी, तो उनकी तंद्रा भंग हुई. पंद्रह अगस्त  की पूर्व संध्या पर आयोजित कार्यक्रम बेहद मनोरंजक था. सारे लोग कार्यक्रम में डूब से गए थे, तभी उद्घोषक ने घोषणा की.

“अब आप लोगों के सामने राजकीय अंध विद्यालय की छात्रा दीपा स्वरचित कविता सुनाने आ रही है. जन्म से अंधी होने पर भी दीपा में जीवन से जूझने का ज़ज़्बा कायम है. अनेक मुश्किलें झेलकर भी इसने अपनी पढ़ाई जारी रखी है. दीपा हाईस्कूल की होनहार छात्रा है. कृपया ज़ोरदार तालियों के साथ इस बच्ची का हौसला बढ़ाएं. ईश्‍वर ने यदि दीपा को आंखें दी होतीं तो ये लड़की न जाने किन आयामों को छू लेती.”

दीपा का मासूम चेहरा और उसकी भावविभोर कर देने वाली कविता ने सबके मन को छू लिया था. और सरिता? उन्हें तो लगा जैसे दीपा के स्वर ने उनकी आत्मा को स्पर्श कर लिया हो. कविता की अंतिम पंक्तियां रह-रह कर उनके कानों में गूंज रही थीं.

“महसूस तो हर चीज़ को किया करती हूं लेकिन, आंखें अगर होतीं तो क्या बात हुई होती…”

घर पहुंचते-पहुंचते ग्यारह बज गए थे. बच्चे अब तक नहीं आए थे. नौकर ने खाना टेबल पर लगा दिया था. खाना खाते हुए अचानक उनके पति को जैसे कुछ याद आया, उन्होंने पूछा, “रिपोर्ट मिल गयी?”

“हूं.”

“सब ठीक है न?”

“कुछ भी ठीक नहीं, आज तक क्या ठीक हुआ है मेरी ज़िंदगी में? मुझे ब्रेस्ट कैन्सर है, वो भी सेकेंड स्टेज में…” वो एक सांस में कह गयी थीं.

“क्या…?” उनके पति के हाथ में रखा चम्मच कांप उठा. इस कंपन से उन्हें न जाने कैसी ख़ुशी अनुभूत हुई. उनके पति कहते जा रहे थे, “सरिताजी, आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए, मैं बड़े-से-बड़े डॉक्टर को दिखाऊंगा. बड़े अस्पताल में ले जाऊंगा. पानी की तरह रुपया बहा दूंगा.”

पर उन्होंने जैसे कुछ सुना ही नहीं, वो तो पति के स्वरों में छिपी थरथराहट को, दुख को महसूस कर आल्हादित हो रही थीं. चलो, मेरी आसन्न मृत्यु का भय तो इन्हें है… फिर शुरू हुई जीवन से जूझने की यंत्रणामयी प्रक्रियाएं. महंगे-से-महंगा इलाज होने पर भी उनकी दशा बिगड़ती ही जा रही थी. मृत्यु को बिल्कुल निकट जानकर उन्होंने अस्पताल में रहने से इन्कार कर दिया, “मैं अपने घर में, अपनों के बीच अंतिम सांस लेना चाहती हूं.”

कुछ दिनों से उनके बाल बुरी तरह झड़ने लगे थे. सांस रह-रह कर उखड़ जाती थी. कई बार सांस लेने में इतनी तकलीफ़ होती कि आंखों के आगे गहरा अंधकार छा जाता. एक सुबह वो चुपचाप बिस्तर पर लेटी थीं. नर्स तुरंत दवा खिलाकर और कई इंजेक्शन लगा कर गयी थी.

उनके मन में झंझावात-सा उठा था, “पूरा जीवन व्यर्थ ही गुज़ार दिया, पर मृत्यु को व्यर्थ नहीं जाने दूंगी. मेरे मन में कई दिनों से जो विचार बार-बार उमड़ रहा है, उसे धरातल पर उतारने का व़क़्त आ गया है. अब मैं वही करूंगी, जो मैंने सोचा है.”

रात में उन्होंने अपने पति से कहा, “कल वकील साहब को बुला लीजिए, मुझे अपनी वसीयत बनवानी है.”

“वसीयत?” पूरा परिवार आंखों में प्रश्‍न लिए खड़ा था. पर सारे प्रश्‍नों को उन्होंने अपने मौन से परे धकेल दिया था.

“मैं सरिता सिंह, धर्मपत्नी श्री बलदेव प्रसाद सिंह… पूरे होशोहवास में ये निर्णय ले रही हूं कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी आंखें अंध विद्यालय की छात्रा दीपा को दे दी जाएं. ऑपरेशन का पूरा ख़र्च और दीपा की पढ़ाई का ख़र्च मेरे उन रुपयों से हो, जो मेरे नाम विभिन्न बैंकों में जमा हैं.”

यह भी पढ़ें: क्यों पुरुषों के मुक़ाबले महिला ऑर्गन डोनर्स की संख्या है ज़्यादा? (Why Do More Women Donate Organs Than Men?)

“ये आप क्या कह रही हैं? नहीं नहीं मेरे जीते जी ये नहीं हो सकता. मृत्यु के बाद हमारे खानदान की बहू के शरीर का अपमान? आंखें निकाल ली जाएंगी? नहीं, मैं इसकी इज़ाज़त नहीं दूंगा.”

उनके पति गरज पड़े थे. पर स्वर में कंपन स्पष्ट था.

“मैं आपकी अनुमति नहीं मांग रही. भले ही मेरे तन के साथ-साथ मेरी भावनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं पर आपका एकाधिकार रहा हो, लेकिन मेरी आत्मा पर आपका कोई अधिकार नहीं.” जीवन में पहली बार उन्होंने पति की बात काटी थी.

“एक अनजान लड़की के लिए इतनी ममता क्यों?” बड़े बेटे के इस प्रश्‍न पर उन्होंने कहा, “वो अनजान नहीं रहेगी, मेरी आंखें होंगी उसके पास.” वो बुरी तरह हांफ उठी थीं. वकील के हाथ से वसीयतनामा लेकर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिए और निढाल होकर बिस्तर पर लेट गयीं.

पूरा परिवार स्तब्ध था. पर वो ख़ुश थीं. जीवन में शायद पहली बार उनके अधरों पर शांति, संतुष्टि और सहजता से ओतप्रोत मुस्कान खेल रही थी. इसी एक मुस्कान के लिए ही तो वो जीवनभर तरसी थीं.

उनकी सांस बुरी तरह उखड़ने लगी थी. आसन्न मृत्यु का आभास पाकर उन्होंने नज़रें घुमाकर चारों ओर ख्रड़े लोगों पर दृष्टि डाली. पति के चेहरे पर धुंधलायी आंखें गड़ाकर उन्होंने अस्फुट शब्दों में कहा, “मैंने… जीवनभर चाभी वाली गुड़िया की तरह आपकी हर बात मानी है. मेरी एक इच्छा, अंतिम इच्छा… ज़रूर पूरी कर दीजिएगा. मुझे लाल रंग की साड़ी… लाल चूड़ियां… लाल बिंदी लगाकर चिता पर चढ़ाइएगा. मेरे पांवों में महावर, हाथों में…”

सांसें उनका दामन छोड़ने लगी थीं. परिवार के सदस्यों के धुंधले चेहरों के बीच उन्हें दीपा का दमकता चेहरा साफ़ दिख रहा था. दीपा की आंखों में सारी दुनिया समाती चली जा रही थी.

धीरे-धीरे उनकी आंखों के आगे गहरा अंधेरा होता चला गया. चेहरे पर एक ओजस्वी मुस्कान लिए वे संसार से विदा हो गयीं… एक नयी दुनिया को फिर से देखने की तमन्ना लिए. पर जीवनभर ख़ुद को चाभी वाली गुड़िया समझने वाली सरिता ने मृत्यु के अंतिम पलों में उन्मुक्त, निर्बाध जीवन का स्पंदन भली-भांति महसूस कर लिया था.

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें –

अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

“राशी खूप हॉट दिसत आहे ” तमन्ना कडून राशीच्या लूकच कौतुक (Tamannaah Bhatia praises Raashi Khanna’s look in Armani 4 song ‘Achchacho)

अरनमानाई 4' ची सहकलाकार राशि खन्ना हीच सर्वत्र कौतुक होत असताना तमन्ना आणि राशी दोघी…

April 20, 2024

काय सांगता? जय हो गाणं ए आर रहमानचं नाहीच! लोकप्रिय दिग्दर्शकाचा खळबळजनक दावा ( Oscar Winning Song Jai Ho Was Not Composed By A R Rahman Said Ram Gopal Verma)

ए आर रहमानने ज्या गाण्यासाठी ऑस्कर जिंकला ते गाणे खरे तर त्यांनी संगीतबद्ध केलेले नव्हते.…

April 20, 2024

सकारात्मक मानसिकतेची गरज (The Need For A Positive Mindset)

-दादासाहेब येंधे टेन्शन, डिप्रेशन आणि त्यातून क्वचितप्रसंगी उचलले जाणारे आत्महत्येसारखे टोकाचे पाऊल… अशा अनेक घटना…

April 20, 2024
© Merisaheli