Short Stories

कहानी- कब तक? (Story- Kab Tak)

“आनंद चाहता, तो आठ साल पहले तुम्हारे द्वारा अस्वीकार किए जाने के बाद एक नई शुरुआत कर सकता था, पर उसने तुम्हारी माफ़ी का लंबा इंतज़ार किया है. साथ ही तुम्हारी मर्ज़ी को देखते हुए उसने अपने बच्चों से भी दूरी रखी. कब तक तुम जान-बूझकर इन नागफनी के कांटों को गले लगाओगी?”

”अब कैसा लग रहा है तुम्हें?” लतिका के पूछने पर कुमुद ने धीरे से सिर हिलाकर जवाब दिया, “अब मैं ठीक हूं, तुम भी अपना घर देखो. मैं संभाल लूंगी ख़ुद को, वैसे भी तीन-चार दिन में मुझे डिस्चार्ज कर ही देंगे.”
“विहान और मान्या को कुछ दिनों के लिए बुला लूं?”
“नहीं लतिका, विहान की नई-नई नौकरी लगी है और मान्या को ससुराल गए छह महीने ही तो हुए हैं. मैं नहीं चाहती कि उनकी ज़िंदगी में कोई उथल-पुथल हो. अभी यहां आनंद भी हैं, क्या सोचेंगे बच्चे?”
“क्या सोचेंगे मतलब? कुमुद, आनंद पति है तुम्हारा, मान्या और विहान का पिता है. इसमें सोचने जैसी क्या बात है?” लतिका आवेश में आ गई थी.
“लतिका, अब बहुत देर हो चुकी है. बच्चों को क्या जवाब दूंगी कि टूट गई मैं आनंद की माफ़ी के आगे. वैसे भी मैंने अपनी ज़िंदगी अपने तरी़के से जी है. मैं भावुकता में आकर आनंद को अपने अकेलेपन का फ़ायदा नहीं उठाने दूंगी.”
“कुमुद, वो तुम्हारे अकेलेपन का फ़ायदा नहीं उठाना चाहता है. मेरे कहने के बावजूद इन पंद्रह दिनों में एक क़दम भी नहीं रखा उसने तुम्हारे घर में. अपने मन की दुविधा को दूर करके पूछो अपने मन से कि वो क्या चाहता है? क्या एक मौक़ा तुम और नहीं दे सकती आनंद को?”
“नहीं…” कहकर कुमुद ने आंखें मूंद लीं. “प्लीज़ कुमुद, आठ साल से वो तुम्हारी माफ़ी का इंतज़ार कर रहा है. नफ़रत को गले लगाकर तुम थकी नहीं. मैं जानती हूं कि अभी भी आनंद के लिए तुम्हारे दिल में जगह है.”
“जगह थी, तुमसे बेहतर कौन जानता है? मैंने इन आठ सालों में उनसे कितनी नफ़रत की है, क्या तुम नहीं जानती?”
“कुमुद, आनंद के प्रति तुम्हारे प्यार ने ही इस नफ़रत को जन्म दिया है, वरना यूं नीम बेहोशी की अवस्था में तुम्हारे होंठों पर आनंद का नाम नहीं आता.” लतिका के खुलासे पर कुमुद ने अपने कान बंद कर लिए, तभी नर्स भीतर आ गई और लतिका से बोली, “मैडम, आप बाहर जाइए. अभी डॉक्टर सान्याल राउंड पर हैं.” लतिका बाहर आई, तो आनंद मिल गया, “अब कैसी है कुमुद?”
“ठीक ही है.”
“तुम बहुत थकी लग रही हो.” आनंद ने पूछा तो वह बोली, “थकी नहीं, परेशान हूं मैं, कुमुद की वजह से.”
“चाय पियोगी?” आनंद ने पूछा, तो उसने हामी भर दी. चाय का घूंट भरते हुए लतिका कुछ खोई हुई-सी बोली, “आनंद, जानते हो मुझे अब इस बात की ग्लानि होती है कि मैंने कुमुद को तुम्हारे ख़िलाफ़ इस हद तक भड़का दिया कि अब वो मेरी भी कोई बात सुनने को राज़ी नहीं है. काश! तुम्हारे और नेहा के रिश्ते के बारे में मैं आवेश में आकर कुमुद को कुछ न बताती, तो अच्छा होता. कम से कम नेहा से मोहभंग होने पर तुम्हारा कुमुद के पास वापस आना इतना मुश्किल तो न होता.”
“नहीं लतिका, जो मैंने किया है, वो माफ़ी के क़ाबिल नहीं है, इसलिए तुम ख़ुद को दोषी मत समझो. मेरे प्रति तुम सबकी नफ़रत मैं डिज़र्व करता हूं. मैं तुम्हारी सहेली को जानता हूं, वो मुझे कभी माफ़ नहीं करेगी. कुमुद माने या न माने, पर मैं अब भी उससे बहुत प्यार करता हूं. इंतज़ार तो मैं उसका हमेशा करूंगा और अब मैं इसी शहर में रहूंगा, क्योंकि मान्या और विहान उसके साथ नहीं हैं. ऐसे में उसका अकेले रहना ठीक नहीं है.”
कुछ देर की चुप्पी के बाद लतिका बोली, “आनंद सच-सच बताना, कुमुद के प्रति आज तुम्हारी जो भावनाएं हैं, कहीं वो उसके प्रति जन्मी कोई हमदर्दी तो नहीं? तुम्हारे अंदर बैठे गिल्ट को दूर करने का ज़रिया मात्र तो नहीं है?”
“नहीं लतिका, ये मेरा प्यार ही है, जो आठ साल से माफ़ी का इंतज़ार कर रहा हूं. और कितना साबित करूं मैं ख़ुद को. कुमुद के प्यार और समर्पण के बावजूद नेहा के प्रति मेरा आकर्षित होना निस्संदेह ग़लत था. ऐसा क्यूं हुआ, मुझे नहीं पता, पर कुमुद इस बात को कभी नहीं समझेगी कि नेहा की तरफ़ झुकने के बावजूद कुमुद के लिए मेरे मन में प्यार और सम्मान बना रहा. जब कुमुद ने मुझे अपने जीवन से निकाला, तब मुझे एहसास हुआ कि उसके बिना मेरा जीवन एक बड़ा शून्य है.”
आनंद का गला भर आया था. कुछ देर की चुप्पी के बाद वह बोला, “लतिका, तुमने कुमुद का बहुत साथ दिया है. क्या तुम कुछ और दिन उसके साथ रह सकती हो?” “आनंद, मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है, पर आज मेरा दिल्ली जाना बहुत ज़रूरी है. मुझे जैसे ही मौक़ा मिलेगा, मैं कुमुद के पास आ जाऊंगी. तुम तो कुमुद के पास हो ही. आज मेरी डॉ. सान्याल से बात हुई थी. वो बता रही थीं कि कल-परसों तक कुमुद को हम घर ले जा सकते हैं. तुम उसे घर तक छोड़ देना. मैं आज ही घर जाकर शांताबाई को समझा दूंगी, बाकी वो संभाल लेगी.”
दूसरे दिन सिस्टर मारिया गुलाब के फूलों का गुलदस्ता लेकर आई, तो कुमुद पूछ बैठी, “ये गुलाब किसने भेजे हैं?” तो मारिया मुस्कुराकर बोली, “आपकी सहेली ने. वो आज नहीं आ पाएंगी, आपके नाम ये चिट्ठी दे गई हैं.” कहते हुए उसने एक लिफ़ाफ़ा उसे पकड़ा दिया.
“अरे, उसने मुझे बताया भी नहीं. मैं घर कैसे…?” कुमुद की बात को बीच में ही काटते हुए नर्स बोली, “अरे! आपके हसबैंड हैं न? भई मानना पड़ेगा. आपकी इतनी सेवा की है, जिसकी कोई मिसाल नहीं है. जब आप होश में नहीं थीं, तब एक पल के लिए भी उन्होंने आपको अकेला नहीं छोड़ा. आप बहुत ख़ुशक़िस्मत हैं कि वे इतना ज़्यादा प्यार करते हैं आपसे.” नर्स की बात पर कुमुद कराह उठी. “अरे क्या हुआ, आज शायद पेनकिलर नहीं लगा है. अब थोड़ा दर्द तो सहना पड़ेगा.”
“दर्द ही तो सहती आई हूं अब तक और कितना…?” आगे के शब्द हिचकियों में डूब गए. सिस्टर कुछ सहम-सी गई थी, “मैं अभी डॉक्टर को बुलाकर लाती हूं.” मारिया के जाने के बाद कुमुद ने लतिका का पत्र खोला, जिसमें लिखा था- कुमुद मुझे माफ़ करना, मैं तुम्हे बिना बताए जा रही हूं, पर मेरा जाना ज़रूरी है. आनंद हैं, इसलिए मुझे तुम्हारी फ़िक्र नहीं है. एक समय था, जब मैंने कहा था कि आनंद को कभी माफ़ मत करना. तुम तो मेरे स्वभाव को जानती थी. मेरी नज़र में इंसान या तो ग़लत होता है या सही. वो कभी परिस्थितियों का शिकार भी हो सकता है, इस बारे में मैंने सोचा ही नहीं.
एक बात तुम्हें माननी पड़ेगी कि आनंद चाहता, तो आठ साल पहले तुम्हारे द्वारा अस्वीकार किए जाने के बाद एक नई शुरुआत कर सकता था, पर उसने तुम्हारी माफ़ी का लंबा इंतज़ार किया है. साथ ही तुम्हारी मर्ज़ी को देखते हुए उसने अपने बच्चों से भी दूरी रखी. कब तक तुम जान-बूझकर इन नागफनी के कांटों को गले लगाओगी? ये गुलाब के फूल देख, मैंने बड़े ध्यान से एक-एक कांटों को चुनकर निकाल फेंका है. अगर कोई रह गया हो, तो हिम्मत दिखाते हुए उसे तुम निकाल देना. मैं जल्दी वापस आऊंगी.
– लतिका
पत्र पढ़कर कुमुद आंखें बंदकर लेट गई. उसे याद आया एक दिन अस्पताल में जाने किस भावुक क्षण वो आनंद से पूछ बैठी थी, “क्या कमी रह गई थी आनंद, मेरे और बच्चों के प्यार में?” तो उसकी बात के जवाब में आनंद फफक पड़ा था. “एक बार मुझे माफ़ करके देखो कुमुद, तुम्हें शांति मिलेगी और मुझे जीवन.” पर इतना आसान कहां था आनंद को माफ़ करना. उसे याद आया, मान्या की शादी से पहले आनंद मान्या से मिलने घर आए थे, तो विहान ने कितनी बेरुखी दिखाते हुए कहा था, “आप क्यूं बार-बार मम्मी को परेशान करने आ जाते हैं? आपके लिए इस घर में कोई जगह नहीं है.” विहान की बात पर क्यूं कुमुद की सांस अटक-सी गई थी. आख़िर यही तो वह चाहती थी. बच्चों के मन में पिता के प्रति नफ़रत उसने ही तो पोषित की थी.
जब आनंद पहली बार माफ़ी की फ़रियाद लेकर आए थे, तो मान्या ने डरते-डरते कुमुद सेे कहा, “मां, प्लीज़ पापा को माफ़ कर दो न.” जवाब में कुमुद का करारा तमाचा उसके गाल पर पड़ा था. उस दिन के बाद आनंद को माफ़ कर देने की बात कभी नहीं उठी. कुमुद के रोष भरे आंसुओं में हमेशा यही प्रश्‍न होता कि क्यूं गए थे तुम, जब मुझे तुम्हारी सबसे ़ज़्यादा ज़रूरत थी? बड़े होते मान्या और विहान को पिता के मार्गदर्शन और संरक्षण की ज़रूरत थी. उम्र के उस पड़ाव में अपने से इतनी छोटी नेहा के आकर्षण में कैसे पड़ गए? काश! उनके बीच टिका ये क्षणिक रिश्ता वो जान ही न पाती, तो अच्छा होता. कम से कम समाज और बच्चों के सामने शर्मिंदा तो न होना पड़ता, पर ये बातें छिपती कहां हैं.


ऑफिस ट्रिप के बहाने साथ बिताए नेहा और आनंद के अंतरंग क्षणों के सबूत उसकी प्रिय सहेली लतिका ने दिए, तो शर्म से गड़ गई थी कुमुद. आनंद द्वारा किए गए विश्‍वासघात ने उसके वजूद के मानो टुकड़े कर डाले थे. उस वक़्त समाज, बच्चे, लतिका सब कुमुद के पाले में थे, पर वो किसे बताए कि एक आनंद के न होने से उसका पलड़ा हवा में तैरता प्रतीत होता था. व़क़्त के साथ सभी ने आनंद को माफ़ कर दिया, लेकिन संघर्षपूर्ण रास्ता तय करती कुमुद ने आनंद के प्रति रोष को जीवंत रखा.
विहान ने मां को अच्छा जीवन देने के लिए दिन-रात एक कर दिया. मान्या शुरू से ही होनहार थी. विवाह जैसी संस्था के प्रति उसका मोहभंग हो चुका था. ऐसे में जब आयुष मान्या के जीवन में आया और परिणति विवाह के रूप में हुई, तब कुमुद ने भी चैन की सांस ली.
विहान ने इंजीनियरिंग करके पुणे में अपने पैर जमा लिए थे. ज़िंदगी जैसी भी थी, चल तो रही थी, फिर उसकी ज़िंदगी को दोबारा उथल-पुथल करने आनंद क्यूं आ गए? अस्पताल में बिताए पंद्रह दिनों में वो शारीरिक और मानसिक रूप से कमज़ोर तो नहीं हो गई, जो दोबारा आनंद के प्रति तहों में दबी भावनाएं सिर उठाने लगी हैं. यदि ऐसा है भी, तो वह भयभीत क्यूं है? और किससे है? कहीं वह अपने ही बच्चों को जवाब देने से तो नहीं डर रही है? या डर है उसे आठ साल पहले ख़ुद से किए हुए उस वादे के ख़िलाफ़ जाने का कि वो आनंद को इस जीवन में माफ़ नहीं करेगी. कुमुद का सिर दर्द से फटने लगा था.
दूसरे दिन तमाम हिदायतों के साथ उसे डिस्चार्ज मिल गया था. “कुमुद, अपना ख़्याल रखना.” आनंद के शब्दों के प्रत्युत्तर में कुमुद उसे रोकना चाहती थी, पर उससे पहले ही गाड़ी की आवाज़ सुनकर शांताबाई दौड़ती हुई आई, उसे सहारा देकर अंदर ले आई. कुमुद ने पीछे मुड़कर देखा, तो आनंद दिखाई नहीं दिए. कुमुद ने कमरे में जैसे ही क़दम रखा. ‘वेलकम बैक’ की सम्मिलित आवाज़ ने उसे सुखद आश्‍चर्य में डुबो दिया. “अरे, विहान-मान्या तुम यहां…”
“मम्मी, मैं भी हूं.” आयुष कुमुद के पैर छूते हुए बोला.
“तुम लोग कब आए?”
“दो दिन पहले मेमसाब.” शकुंतला ने बताया, तो कुमुद विस्मय से बोली, “तुम लोग अस्पताल क्यूं नहीं आए?”
“क्योंकि हमें पता चला कि वहां पापा भी थे. हम तो डर गए थे कि कहीं पापा आपके अकेलेपन का फ़ायदा उठाकर आपकी ज़िंदगी में वापस न आ जाएं.” मान्या ने कहा, तो आयुष ने जवाब दिया, “इसमें बुरा क्या है मान्या?”
“तुमने मेरी मम्मी की तकलीफ़ देखी नहीं है आयुष.”
“पापा भी तो आठ साल से तुम लोगों से अलग रहने की सज़ा भोग रहे हैं. अगर इतनी शिद्दत से हम रिश्तों को बचाते, तो इन तकलीफ़ों से किसी को न गुज़रना पड़ता.” आयुष की बात कुमुद को चीर गई थी. सच ही तो कहा है इसने, आनंद की माफ़ी कहां कुमुद के ग़ुस्से को ठंडा कर पाई थी. आशा के विपरीत विहान शांत लगा, मानो हृदय में कोई मंथन चल रहा हो.
दो-तीन दिन सब साथ रहे. आनंद की कोई बात न होना कुमुद को अस्वाभाविक लग रहा था. आज सुबह-सुबह लतिका भी आ गई थी. विहान के पुणे जाने का समय पास आ गया था, एक रात पहले वह कुमुद से बोला, “मम्मी, आज मैं आपके साथ सो जाऊं.” कुमुद भीग-सी गई थी. तभी मान्या की आवाज़ आई, “आज मैं भी आपके साथ सोऊंगी.” कुमुद ने दोनों को प्यार से सीने से लगा लिया.
कुछ देर की चुप्पी के बाद अचानक विहान बोला, “मम्मी, क्या पापा का कसूर इतना बड़ा है कि हम उन्हें माफ़ नहीं कर सकते?”
“लोग क्या कहेंगे?” अनायास कुमुद के मुंह से निकला, तो विहान बोला, “जब पापा गए थे, तब भी तो लोगों ने कुछ नहीं कहा था.”
“पर तुम लोग तो ख़िलाफ़ थे न आनंद के?” तभी विहान ने कुमुद का हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, “पापा ने जो किया, उससे आप बहुत आहत थीं. ये हम जानते थे. आप हमें स्वार्थी न कहें इस वजह से हमने उन्हें अपने क़रीब आने नहीं दिया, पर मम्मी वो हमारे पापा हैं. हर बच्चे की तरह हम भी चाहते हैं कि आप दोनों साथ रहें. बचपन में आपके भय ने हमें उनसे दूर रखा, अब ऐसा तो नहीं कि हमारा भय आपको पापा से दूर रख रहा हो.” कुमुद अपने अंतर्मुखी बेटे के मुंह से यह सुनकर अवाक् रह गई. कितनी आसानी से मानवीय रिश्तों के मनोविज्ञान को वह समझ गया था.
तभी मान्या बोली, “उस दिन जान-बूझकर पापा के लिए मेरे कहे शब्दों पर आप विचलित हो गई थीं न मम्मी? हम पापा का विरोध करके यह देखना चाहते थे कि उनके प्रति आपके मन में क्या है. मम्मी, पापा को बुला लो, आपके साथ हम भी उनका सामीप्य पाना चाहते हैं.” कहते हुए वह रो पड़ी, तो कुमुद भी स्वयं को रोक नहीं पाई, तभी लतिका आयुष के साथ अंदर आते हुए बोली, “कुमुद, हम तुम पर कोई दबाव नहीं डालेंगे लेकिन एक बार अपने पूर्वाग्रह से बाहर निकलकर सोचो. बच्चे तुम्हारी एक हां का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं.” कुमुद फूट-फूटकर रो पड़ी, तो लतिका ने इशारे से सभी को उसे चुप कराने के प्रयास को मना कर दिया.
कुमुद के बहते आंसू आनंद के प्रति नफ़रत को बहाते रहे. लतिका जानती थी कि अपनों की रज़ामंदी ने आनंद के प्रति जबरन दबाए प्यार को हवा दे दी है, ये बहते आंसू उसी सुकून के प्रतीक हैं. जहां कुमुद का अवचेतन मन इस पल का इंतज़ार कर रहा था, वहीं आनंद को कुमुद और अपने बच्चों की एक पुकार का इंतज़ार था.

         मीनू त्रिपाठी

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Usha Gupta

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