फेसबुक खोलते ही फ्रेंड रिक्वेस्ट पर नज़र गई. सौरभ वर्मा… नाम पढ़ते ही मैंने उत्सुकता से उसकी प्रोफाइल खोली. ‘ओह, यह तो वही है जिसका पता सालों से खोज रही थी. मेरा मन मयूर नाच उठा. ख़ुशियों की सैंकड़ों कलियां चटख गईं. उस पल मैंने मन ही मन फेसबुक के जन्मदाता मार्क जुकरबर्ग को सैंकड़ों दुआएं दीं, जिनकी वजह से न जाने कितने बिछड़े मित्र मिल जाते हैं. बिना विलंब किए मैंने उसकी रिक्वेस्ट एक्सैप्ट कर ली. बचपन के न जाने कितने ख़ूबसूरत लम्हें, वो शरारतें मन में मीठे झरने की तरह बहने लगे. तभी उसका एक स्माइली के साथ मैसेज आया, ‘जिसे ढूंढ़ा गली गली, वो फेसबुक पर मिली.’
मैं मुस्कुरा दी. सौरभ मेरे पापा के मित्र जिन्हें हम चाचाजी कहते थे, का बेटा था. हमारा बचपन एक साथ गुज़रा था. एक ही पड़ोस और एक ही स्कूल होने के कारण हमारा रात-दिन का साथ था. पड़ोसियों के पेड़ों पर चढ़कर अमरुद तोड़ना, गिल्ली डंडा, क्रिकेट हमारे प्रिय खेल थे.
जब मैं दसवीं में थी, चाचाजी का ट्रांसफर हो गया. प्रारम्भ में छुट्टियों में एक-दूसरे से हम मिलते रहे, किंतु धीरे धीरे जीवन की आपाधापी में सब खोकर रह गया. पहले विवाह और फिर बच्चे, गृहस्थी में मैं ऐसी रमी कि सब कुछ भूल गई और अब जबकि दोनों बच्चे बाहर चले गए थे, अक्सर बचपन की स्मृतियों को अपने पति अंकित के साथ साझा करती थी.
शाम को अंकित आफिस से लौटे, तो मैंने सौरभ के बारे में बताया. वह मुस्कुराए, ‘‘तुम उसे इतनी शिद्दत से याद करती थी, तभी उससे तुम्हारा फिर से सम्पर्क हुआ है.” अगले दिन से नित्य सौरभ का फोन आने लगा. उसने प्री मैच्योर रिटायरमेंट ले लिया था, इसलिए वह दिनभर खाली रहता था. हम दोनों अपने बचपन से लेकर दुनिया जहान की बातें करते. जल्द ही हम एक-दूसरे से खुलकर अपने सुख-दुख साझा करने लगे. छह माह कब बीत गए पता ही नहीं चला.
एक दिन सौरभ का फोन आया. वह अत्यंत गम्भीर था. उसने कहा, ‘‘निधि, मुझे तीस हज़ार रुपयों की सख्त ज़रुरत है. क्या दे सकोगी? जल्द ही लौटा दूंगा.”
‘‘अंकित से पूछूंगी,’’ मैंने कहा. शाम को मैंने अंकित से पूछा, तो वह गंभीर हो गए और बोले, ‘‘निधि, तुम्हारी इच्छा है, तो मैं इंकार नहीं करुंगा किंतु मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा.”
‘‘आप व्यर्थ ही सशंकित हो रहे हैं. अरे, मैं बचपन से उसे जानती हूं. हम लोग साथ खेलकर बड़े हुए हैं. वह फैमिली कोई ऐसी वैसी नहीं है.” बेमन से ही सही अंकित ने तीस हज़ार रुपए सौरभ को दे दिए. उसने अत्यंत आभार प्रकट किया.
क़रीब दस दिनों तक सौरभ का फोन आता रहा. फिर यकायक उसका फोन आना बंद हो गया. मैं फोन मिलाती, तो वह व्यस्तता की बात करके जल्द ही फोन रख देता. फिर धीरे धीरे उसने फोन उठाना बंद कर दिया.
एक दिन मैंने अंकित से आशंका जताई, ‘‘क्या पता सौरभ बीमार हो या फिर कोई और वजह…’’
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मेरी बात पर अंकित मुस्कुराने लगे फिर बोले, ‘‘निधि, तुम बहुत सरल मन की हो. उसे कुछ हुआ होता, तो क्या वह तुम्हें बता नहीं देता? वषों से तुम उससे मिली नहीं हो. यह आवश्यक नहीं कि बचपन में वह जैसा था, अब भी होगा. सीधी सी बात है, उसने तुम्हें बेवकूफ़ बनाकर तुमसे रुपए ऐंठ लिए हैं.
देखना अब वह तुम्हें फोन नहीं करेगा.” और सचमुच सौरभ का फिर कभी फोन नहीं आया. उसने फेसबुक से भी मुझे ब्लॉक कर दिया. एक दिन मैंने अंकित से कहा, ‘‘मेरी वजह से तीस हज़ार रुपयों का भी नुक़सान हो गया.” अंकित ने मेरा हाथ थामकर कहा, ‘‘निधि, बात रुपयों की नहीं, उसने तुम्हारा विश्वास तोड़ा है. इसका मुझे दुख है और सच पूछो, तो नुक़सान तुम्हारा नहीं, उसका हुआ है. तुम्हें तो एक अनुभव प्राप्त हुआ है कि बहुत अधिक भावुकता दिखाना ठीक नहीं और उसने एक सच्चा मित्र खोया है.
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