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कहानी- प्रायश्‍चित (Story- Prayshchit)

पत्र पढ़कर सुधीर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए. सपना के प्रस्ताव पर दिल और दिमाग़ में द्वंद्व आरंभ हो गया. जहां दिल इसे नकारने की ओर प्रेरित कर रहा था, वहीं दिमाग़ इसे दूरदृष्टि से ग्रहण कर स्वीकारने की प्रेरणा दे रहा था. उसका मानना था कि सपना अपनी ग़लती की काफ़ी सज़ा भुगत चुकी है. अगर अब वह उसका प्रायश्‍चित करना चाहती है, तो उसे अवसर दिया जाना चाहिए.

 

शादी के पश्‍चात बेटी की बिदाई परिवार में किस कदर एकाकीपन, सूनापन व उदासी ला देती है, इसे सुधीर बाबू शिद्दत से महसूस कर रहे थे. उनकी एकमात्र संतान सुहानी को बिदा हुए सात दिन ही हुए हैं, लेकिन उन्हें लग रहा है पता नहीं कितना लंबा अरसा हो गया सुहानी से मिले हुए. दो-तीन दिन तो घर में मेहमान थे, इसलिए अकेलापन महसूस नहीं हुआ. अब जब सब जा चुके हैं तो सुधीर नितांत अकेले रह गए हैं. पिछले वर्ष ही दिल का दौरा पड़ने पर उनकी पत्नी मौत के मुंह में समा गई थीं. अचानक हुए हादसे से पिता-पुत्री को सहज होने में का़फ़ी व़क़्त लगा था. जब सुहानी की शादी तय हुई तो उसने कहा, “पापा, इतनी जल्दी क्या है? मेरे जाने के बाद आप एकदम अकेले पड़ जाएंगे.” सुधीर बोले, “जीवन इसी का नाम है. यहां सुख-दुख का मेला लगा ही रहता है. कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा.”
दोपहर का खाना खाकर सुधीर अपनी पसंद की क़िताब पढ़ने लगे. पढ़ने का शौक़ उन्हें शुरू से ही रहा. कई बार पत्नी कहती भी थी, “ये तुम्हारी क़िताबें तो मेरी सौतन की तरह हैं. उनमें डूब जाते हो, तो मुझसे बात करने की फुर्सत ही नहीं मिलती.” वे मुस्कुरा देते. फिर क़िताब बंद कर एक ओर रखते हुए कहते, “लो छोड़ दिया तुम्हारी सौतन को, अब तो ख़ुश हो.” फिर स्वयं ही कह उठते, “जब रिटायरमेंट के बाद कुछ काम नहीं होगा, व़क़्त नहीं कटेगा, तब यही पढ़ने का शौक़ बहुत काम आएगा, समझी…?” पत्नी भी मुस्कुरा देती.
अभी मुश्क़िल से दो पृष्ठ ही पढ़ पाए थे, तभी दरवाज़े की घंटी बजी. देखा तो पोस्टमैन रजिस्ट्री लाया था. हस्ताक्षर करके चिट्ठी ली. भेजनेवाले के नाम की जगह ‘सपना’ पढ़ा तो चौंक गए. क्या सचमुच यह वही सपना है? लेकिन पच्चीस वर्षों के बाद इसे अचानक कैसे और क्यों मेरी याद आई? पच्चीस साल पहले उसने स्वयं ही सारे संबंध तोड़ लिए थे. फिर आज अचानक चिट्ठी भेजने का क्या कारण हो सकता है? वे वापस अपने कमरे में आए. कुर्सी पर बैठे और कौतूहल से चिट्ठी खोलने लगे. काफ़ी लंबी चिट्ठी लिखी हुई थी. सुधीर ने चश्मा लगाया और पढ़ने लगे.

प्रिय सुधीर,
समझ नहीं आ रहा शुरुआत किस तरह करूं? हालांकि पी.एच.डी. करके डॉक्टर की उपाधि पा चुकी हूं, लेकिन कई बार ऐसे पदवीधारी भी अपनी छोटी-सी बात को प्रभावी ढंग से पेश नहीं कर पाते. खैर, जीवन की सांध्य-बेला में पीछे मुड़कर देखती हूं, तो महसूस होता है कि पाने से अधिक खोया ही है. इस खोने के पीछे शायद मेरा अहम्, ज़िद्दीपन, अहंकार ही है, यह अब समझ आ रहा है. जब तुम बार-बार इस ओर इंगित करके मुझे संभलने के लिए कहते थे, तब मुझे बहुत बुरा लगता था. एकदम बिदक उठती थी मैं. ग़ुस्सा नाक पर धरा होता था. तुम्हारे कुछ कहने-समझाने में मुझे अपना अपमान महसूस होता था, क्योंकि मैं स्वयं को तुम्हारे खानदान से बहुत श्रेष्ठ, बल्कि श्रेष्ठतम मानती थी. जब हमारी शादी हुई, उस व़क़्त मैं एम.एड. कर रही थी. तुम पी.डब्ल्यू.डी. में जूनियर इंजीनियर के पद पर नौकरी कर रहे थे. तुमसे बड़ी दोनों बहनें अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं और छोटी भी अभी दसवीं में थी. घर में, बल्कि ख़ानदान में तुम एकमात्र डिग्रीधारी व्यक्ति थे और परिवार में अकेले पुत्र. इस कारण तुम्हें बहुत महत्व दिया जाता था. शुरू में मुझे भी अच्छा लगता था, जब पूरा परिवार तुम्हें हाथों हाथ लेता था, तुम्हारे आगे-पीछे दौड़ता था. लेकिन कुछ समय बाद मुझे महसूस होने लगा कि इतनी पढ़ी-लिखी, सुंदर व स्मार्ट होने के बावजूद मुझे वह इ़ज़्ज़त और मान नहीं मिल रहा है, जिसकी मुझे अपेक्षा थी. मैं मन ही मन इस बात को लेकर कुढ़ने लगी. फिर बहुत सोच-विचार के बाद मैंने निर्णय लिया कि अपनी शिक्षा, क़ाबिलियत के बल पर अपनी अलग पहचान बनाऊंगी.
ज़िद्दी तो मैं बचपन से ही थी. अकेली संतान होने के कारण मेरी हर मांग, हर ज़िद पूरी कर दी जाती थी. मैंने निश्‍चय किया और कॉलेज में प्राध्यापिका के पद के लिए आवेदन कर दिया. मेरा चयन हो गया. जब घर में यह बात पता लगी, तो सभी ने इसका विरोध किया.
सबसे पहले तुमने ही पूछा था, “मुझसे पूछे ब़ग़ैर तुमने आवेदन कैसे कर दिया? इतना बड़ा निर्णय घर के, परिवार के सदस्यों की अनुमति के ब़ग़ैर लेकर तुम क्या सिद्ध करना चाहती हो?” मैं भी आवेश में आ गई थी, “मैंने इतनी पढ़ाई इसलिए तो नहीं की कि घर बैठकर चूल्हा-चौका करूं और बच्चे पैदा करके उन्हें पालती रहूं! आख़िर मेरी भी कोई पहचान होनी चाहिए.” बात आगे न बढ़ जाए, इसलिए उस व़क़्त तुम चुप लगा गए थे, फिर एकांत में मुझे समझाने लगे थे, ‘सास-ससुर चाहते हैं कि मैं इकलौती बहू होने के कारण पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाऊं, उनकी सेवा करूं, घर-गृहस्थी की बागडोर संभालूं. अब जीवन की सांध्य-बेला में वे भी कुछ आराम चाहते हैं.’
मैं ताव खा गई थी, “अपना करियर चौपट करके घर-गृहस्थी में पिसने में मुझे कोई रुचि नहीं है. मैं तो नौकरी करूंगी ही. हां, जितना बन सकेगा, उतना घर के कामों में सहयोग दे दूंगी. बस, इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना.” तुमने फिर भी अपनी ओर से समझाने का प्रयास किया था, “अभी कुछ समय रुक जाओ. सब कुछ व्यवस्थित हो जाएगा, तो अगले साल इस विषय पर सोचेंगे. शायद तब तक मम्मी-डैडी भी इसके लिए तैयार हो जाएं.” लेकिन मैं अपनी ज़िद पर अड़ी रही. अगले महीने से ही मैंने कॉलेज जाना शुरू कर दिया था.
हमारी शादी हुए छह महीने बीत चुके थे. अगले छह महीने बीतने के बाद मैंने महसूस किया कि जिस शिक्षा, क़ाबिलियत, नौकरी के दम पर मैं सबको प्रभावित करके मान-सम्मान पाना चाहती थी, लोकप्रिय होना चाहती थी, वैसा कुछ भी नहीं हुआ. विपरीत इसके सास-ससुर के चेहरे पर कभी तृप्ति नहीं दिखी. एक-दो बार तो उन्होंने कह भी दिया, “सबेरे नौ बजे से शाम पांच बजे तक तो बाहर रहती है. वापस लौटती है, तो थकी-हारी अपने कमरे में बंद हो जाती है. हमारे साथ न ढंग से बातचीत करती है, न घर के कामों की ज़िम्मेदारी उठाती है. बहू लाकर क्या सुख मिल रहा है हमें?” तुम भी चुप लगा गए थे, लेकिन मुझे काफ़ी क्रोध आया था. मैं बोल पड़ी थी, “आख़िर मुझे भी अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जीने का अधिकार है. आप लोग बेकार ही छोटी-छोटी बातों पर आपत्ति करते हैं.” तुमने उस व़क़्त तो कुछ नहीं कहा, लेकिन रात को अपने कमरे में आते ही आवेश से भर उठे थे, “सपना, मम्मी-डैडी से इस तरह बोलने से पहले सोच तो लिया होता. शादी का दूसरा नाम ही समझौता है. हर वह लड़की, जो माहौल के अनुरूप स्वयं को ढाल लेती है, जीवन में स्वयं भी सुखी रहती है और परिवार को भी ख़ुशियां देती है. आख़िर तुम स्वयं को समझती क्या हो और चाहती क्या हो?”
मैं भी पलटकर बोल उठी थी, “मुझे स्वयं को बदलने में कोई रुचि नहीं है. मैं जैसी भी हूं, अच्छी हूं. मैं ऐसी ही रहूंगी. अगर आपको पसंद नहीं, तो मैं अपने घर चली जाती हूं.” तुमने क्रोध से कहा था, “अपने मायके का रौब झाड़ना बंद करो. अब यही तुम्हारा घर है और सबसे मिल-जुलकर रहना सीखो.” लेकिन मैं तो अड़ियल, हठी थी ही. तुम्हारी ओर उपेक्षाभरी दृष्टि डालकर मुंह फेरकर सो गई थी. ऐसी घटना हर महीने में एक-दो बार हो जाती थी.
डेढ़ वर्ष बीत चुका था. तुम्हारे माता-पिता चाहते थे घर में एक बच्चा आ जाए, तो माहौल ख़ुशनुमा हो जाएगा, लेकिन मैं इसके लिए तैयार नहीं थी. मुझे बच्चे से अधिक अपना करियर बनाने में रुचि थी. अपनी अलग पहचान, छवि बनाना चाहती थी मैं. इस बात पर भी तकरार, मनमुटाव होने लगे थे. मेरा दम घुटने लगा था. एक दिन किसी मुद्दे पर तुम्हारे साथ गरमा-गरम बहस हो गयी थी. कुछ दिन हमारी बातचीत बंद रही. उन्हीं परिस्थितियों के बीच मैंने अलग होने का फैसला ले लिया. दूसरे दिन अपना सारा सामान इकट्ठा कर जब मैंने तुम्हें अपने फैसले के बारे में बताया, तो तुमने आख़िरी कोशिश करते हुए कहा था, “मैंने अच्छी तरह से सोच-समझकर ही फैसला लिया है. जब दिल ही नहीं मिल रहे, तो रिश्तों को जबरन ढोने का नाटक क्यों करें? मैं जा रही हूं.” मैं तैश में बोली. तुम्हारे माता-पिता को भी मैंने अनदेखा कर दिया और घर से बाहर निकल गई.
मायके आने पर मम्मी-डैडी ने शुरू में तो हाथों हाथ लिया, लेकिन जब उन्हें वास्तविकता पता लगी, तो वे भी ज़माने की ऊंच-नीच समझाते रहे, मुझे वापस लौटने के लिए मनाते रहे. मगर मैंने तो तुम्हारे साथ न रहने का निर्णय कर लिया था. मामूली-सी औपचारिकताओं के बाद हमारा तलाक़ हो गया.
अब मैं एकदम स्वतंत्र होकर कॉलेज में अध्यापन की नौकरी करने लगी थी. जिस प्रकार आज़ाद, स्वच्छंद, मनमर्ज़ी से जीवन जीना चाहती थी, अब उसी प्रकार जी रही थी. मम्मी-डैडी ने न पहले कभी मुझ पर प्रतिबंध लगाए थे, न वे अब लगा रहे थे. सहजता से जीवन की गाड़ी चल रही थी. दो वर्ष बीत गए. इस बीच किसी संबंधी से पता लगा कि तुम्हारी दूसरी शादी हो गई है और एक बेटी भी पैदा हो गई है. क्षणभर के लिए मन में कुछ चुभन, कुछ खोने जैसा एहसास हुआ था, लेकिन मैंने फौरन उसे निकाल फेंका था.
इधर मम्मी-डैडी मेरी शादी के लिए चिंतित होने लगे थे. उन्होंने इस दिशा में प्रयास तेज़ कर दिए, लेकिन मुझ पर लगे ‘तलाक़शुदा’ के लेबल के कारण कई अच्छे रिश्तों के मुझ तक पहुंचने के द्वार बंद हो जाते थे. पांच वर्ष इसी तरह बीत गए. मम्मी-डैडी मेरे कारण बेहद तनाव में रहने लगे थे. कॉलेज में जब मेरी कोई सहकर्मी अपने पति-बच्चों के बारे में बात करती, तो मेरे मन में कसक उठने लगती. लगता शायद मैंने तुमसे अलग होकर ग़लत क़दम उठा लिया.
फिर पता नहीं कैसे कॉलेज के वरिष्ठ प्राध्यापक कमलाकांत से हुई मुलाक़ात धीरे-धीरे आत्मीयता में बदलने लगी. सालभर हमने एक-दूसरे को अच्छी तरह परखने के पश्‍चात शादी करने का निर्णय ले लिया. अब की बार मैंने मन बना लिया था कि थोड़े-बहुत समझौते करने पड़े, तो कर लूंगी. अपनी ज़िद व अहम के चलते एक बार तो बसा-बसाया घर तोड़ दिया था, दोबारा ऐसा नहीं करूंगी.
शादी में एक सप्ताह रह गया था. कमलाकांत किसी सेमीनार के सिलसिले में दो दिन के लिए शहर से बाहर गए थे. वापस लौटते व़क़्त उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई और घटनास्थल पर ही उनकी मौत हो गई. समाचार सुनकर मेरी हालत पागलों की तरह हो गई. अब सब कुछ ख़त्म हो चुका था. इस सदमे से उबरने में लंबा व़क़्त लगा था. मैंने निर्णय कर लिया कि अब ज़िंदगी अकेली ही काटूंगी. पहले शादी करके मैने स्वयं अपनी ज़िंदगी को उजड़ने के रास्ते पर डाला, दूसरी बार नियति ने ख़ुशियां देने से पहले ही छीन लीं.
मेरी स्थिति से मम्मी-डैडी को बेहद मानसिक तनाव रहने लगा था. पांच वर्ष के भीतर ही पहले डैडी, फिर मम्मी दोनों का निधन हो गया. अब मैं नितांत अकेली रह गई थी और भीतर से टूट चुकी थी. अपने व्यवहार पर अब पछतावा होता था, लेकिन उससे क्या होना था? कहते हैं न समय ही ज़ख़्मों को भरने की दवा है. धीरे-धीरे मैंने भी जीवन के साथ समझौता कर लिया. फिर समय काटने, व्यस्त रहने के लिए दो-तीन सामाजिक संस्थाओं से जुड़ गई. साथ ही पीएचडी की तैयारी भी शुरू कर दी. जीवन फिर से सहज होने लगा था. दस वर्ष बीतने के बाद कॉलेज में मुझे प्रिंसिपल के पद पर नियुक्ति मिल गई. इस बीच दो-चार बार लोगों से तुम्हारे बारे में ख़बरें मिलती रहीं कि तुम्हारी पत्नी को दिल का दौरा पड़ा, कुछ दिन अस्पताल में रही थी. तुम्हारी बेटी भी काफ़ी बड़ी हो गई है. कॉलेज में पढ़ती है आदि. मन के कोने से आवाज़ आई थी एक बार अस्पताल जाकर तुम्हारी पत्नी की तबियत पूछ आऊं, मगर तुरंत ही दिमाग़ ने चेताया. इतने वर्षों तक कोई संबंध न होने पर और पहले किए दुर्व्यवहार के कारण पता नहीं तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया हो? तुमने अपनी पत्नी को मेरे बारे में न जाने कैसी जानकारी दी होगी. कहीं अपमानित होकर वापस न लौटना पड़े. इसलिए मन की आवाज़ को वहीं दबा दिया.
अगले वर्ष ही मुझे पता चला कि तुम्हारी पत्नी का देहांत हो गया है. उस समय भी मन ने बहुत उकसाया था. इंसानियत के नाते दुख-संवेदना प्रकट करने मुझे जाना चाहिए, लेकिन दिमाग़ की चेतावनी के कारण फिर ख़ामोशी से विचारों को झटक दिया. सालभर और बीत गया. इस बीच अभी पता लगा कि तुम्हारी बेटी की शादी तय हो गई है. अगले पंद्रह दिनों में शादी हो जाएगी और वह ससुराल चली जाएगी. उसके बाद तुम नितांत अकेले रह जाओगे और इस अकेलेपन की पीड़ा मुझसे बेहतर कौन जानेगा? बरसों से अकेलेपन का बोझ उठाए जीवन जी रही हूं.
तुम सोच रहे होगे जिसे पत्नी बनाकर दो वर्ष साथ रहकर भी अपनेपन का एहसास नहीं हुआ, सुख-दुख से लेना-देना नहीं रहा, उसमें अब बीस वर्षों के बाद कैसे आत्मीयता, सहानुभूति पैदा हो रही है? मैं मानती हूं अपने अहं तथा नादानी के कारण मैंने तुमसे रिश्ता तोड़ लिया, लेकिन कुछ वर्षों बाद पछतावा भी होने लगा था, पर तब कुछ नहीं हो सकता था. अब जब तुम भी अकेले रह गए हो, तो अपनी ग़लती का प्रायश्‍चित करने का मौक़ा समझकर तुमसे कुछ कहना चाहती हूं. मैं मानती हूं कि तुम पर मेरा कोई अधिकार नहीं, लेकिन इंसानियत के नाते, प्रायश्‍चित के नाते तुम्हारे सामने प्रस्ताव रख रही हूं, ‘क्या हम दोनों जीवन की सांध्य-बेला में दुबारा मिलकर नहीं रह सकते? मैं अपनी ग़लतियों की माफ़ी तो मांग ही चुकी हूं. परिपक्वता आने पर, जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच काफ़ी अनुभव हुए हैं, जिन्होंने मुझे सीख दी है. अब तुम्हें शिकायत का मौक़ा नहीं दूंगी. तुम्हारी बेटी को शायद इससे ऐतराज़ हो सकता है, मगर वह भी तुम्हारे अकेलेपन के बंटने पर राज़ी हो जाएगी. तुम गहराई से इस विषय पर विचार कर लो, फिर मुझे सूचित करना. तुम्हारी स्वीकृति का इंतज़ार रहेगा.”

– सपना

पत्र पढ़कर सुधीर किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गए. सपना के प्रस्ताव पर दिल और दिमाग़ में द्वंद्व आरंभ हो गया. जहां दिल इसे नकारने की ओर प्रेरित कर रहा था, वहीं दिमाग़ इसे दूरदृष्टि से ग्रहण कर स्वीकारने की प्रेरणा दे रहा था. उसका मानना था कि सपना अपनी ग़लती की काफ़ी सज़ा भुगत चुकी है. अगर अब वह उसका प्रायश्‍चित करना चाहती है, तो उसे अवसर दिया जाना चाहिए. इस समय दोनों अकेले हैं और इस उम्र में साथी की अधिक दरकार होती है. इस प्रस्ताव को मानने से दोनों का जीवन सहज हो जाएगा. काफ़ी सोच-विचार के बाद आख़िर सुधीर ने निर्णय ले लिया कि सपना के प्रस्ताव को स्वीकारने में कोई बुराई नहीं. अब वह इस पर विचार करने में जुट गए थे कि बेटी को किस तरह समझाएंगे और सपना से कैसे पेश आएंगे.

    नरेंद्र कौर छाबड़ा
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Usha Gupta

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