कुदरत ने इंसान को ज़ुबान दी ज़रूरतें ज़ाहिर करने और एहसास बयां करने के लिए शब्द दिए, लेकिन अभिव्यक्ति के लिए शब्दों से भी बढ़कर जो नेमत इंसान को हासिल हुई, वह है ख़ामोशी. सचमुच हमारे जिन भावों को व्यक्त करने में अल्फाज़ भी नाक़ाम हो जाते हैं, उन्हें बड़ी ख़ूबी से ख़ामोशी बयां कर जाती है. इसीलिए ख़ामोशी को दिल की ज़ुबान कहा गया है. ख़ासकर बच्चे तो शब्दों की पकड़ में न आनेवाले ख़ालिस एहसासात को व्यक्त करने के लिए अक्सर ख़ामोशी का सहारा लेते हैं.
बच्चे जिन एहसासात को शब्दों में नहीं बांध पाते, उन्हें वे ख़ामोशी के ज़रिए तो बयां करते ही हैं, साथ ही वे उन मनोभावों को भी चुप्पी की चादर से ही झलकाते हैं, जिन्हें खुलकर ज़ाहिर करना वे ठीक नहीं समझते. इसके अलावा डर, पछतावा, ग़ुस्सा, अपमान, उपेक्षा व लालच जैसी भावनाओं की जकड़न भी बच्चों को चुप्पी साध लेने पर मजबूर कर देती है.
डॉ. ए. के. सिंह बताते हैं, “बच्चे किन मामलों में ख़ामोशी अख़्तियार करेंगे, यह उनके परिवेश पर निर्भर करता है. यह माहौल उन्हें आमतौर पर तीन जगहों से मिलता है- स्कूल, सोसायटी और घर-परिवार. स्कूल में टीचर व क्लासमेट्स के बर्ताव और ख़ुद के परफ़ॉर्मेंस संबंधित कई मामलों में बच्चे चुप्पी ओढ़ लेते हैं. ऐसे ही मोहल्ले व आसपास की घटनाएं, दोस्तों के साथ खेल-कूद और शैतानियों की बातें भी ज़रूरी नहीं कि बच्चे बताएं ही. परिवार में माता-पिता, भाई-बहन व अन्य सदस्यों के व्यवहार, आपसी संबंध और उनसे नज़दीकी पर भी निर्भर करता है कि बच्चे किन बातों पर खुलकर बोलेंगे और किन पर मौन धारण करेंगे. इस पूरे परिवेश में जो बातें बच्चे की ज़ुबान पर ताला जड़ देती हैं, उन्हें कुछ ख़ास केटेगरी में रखा जा सकता है.
बच्चे अक्सर सज़ा के डर से चुप्पी साध लेते हैं. जब तक हो सके, ग़लती को छुपाकर रखना चाहते हैं. उन्हें डांट खाने या मार खाने का डर तो होता ही है, साथ ही बेइ़ज़्ज़ती से भी डर लगता है. कई बार बच्चे इसलिए भी अपनी राय नहीं ज़ाहिर करते कि उन्हें बेवकूफ़ न समझा जाए. बच्चे डर की वजह से अपनी ग़लतियां ही नहीं छुपाते, बल्कि कभी-कभी अपने किसी क़रीबी को बचाने के लिए भी ख़ामोश हो जाते हैं.
बच्चे शिकायत करने से बचने के लिए ख़ामोशी का सहारा लेते हैं. ऐसा फैसला वे अपने विवेक से, अपनी मर्ज़ी से भी कर सकते हैं और किसी अन्य के मना करने या धमकाने से भी. ये बातें वे अपने किसी विश्वासपात्र को तो बता सकते हैं, लेकिन ऐसे व्यक्ति को हरगिज़ नहीं, जो उन्हें दूर तक फैला दे. ऐसे में सावधानीवश बच्चे चुप रहना ही ठीक समझते हैं. कई बार बच्चे किसी वाकये की जानकारी इसलिए भी नहीं देते, क्योंकि उन्हें कोई लालच देकर ख़ामोश कर दिया जाता है.
गर्मी की छुट्टियां हो चुकी थीं. बबलू से पापा ने पूछा कि छुट्टियों में घूमने के लिए वह कहां चलना पसंद करेगा. बबलू चुप रहा. घर में एक-दो बार और इस विषय पर चर्चा हुई, लेकिन बबलू ने कोई राय ज़ाहिर नहीं की. घर के लोगों ने समझा कि बबलू की आउटिंग में कोई रुचि नहीं है, लेकिन ऐसा है नहीं. बबलू कहीं बाहर जाने की ख़बर से ही रोमांचित है, लेकिन कुछ इसलिए नहीं कह रहा कि पिछली दो छुट्टियों की तरह उसे फिर निराश न होना पड़े. पिछले दो सालों से बबलू से पूछा जा रहा है कि वह कहां घूमने जाएगा, उसके बताने और ख़ुशी-ख़ुशी पूरी तैयारी कर लेने के बाद भी किसी न किसी वजह से प्रोग्राम कैंसल कर देना पड़ा है. इस बार ‘क्या फ़ायदा’ सोचकर बबलू ख़ामोश ही है. जब बच्चे की राय को तवज्जो ही नहीं दी जाती, उसकी भावनाओं की क़द्र ही नहीं होती, सलाह पर अमल ही नहीं किया जाता, तो ऐसे में बच्चा बोलने की बजाय चुप रहना ही ठीक समझता है. पारिवारिक मामलों में ऐसा अक्सर देखने को मिलता है.
परिवार में बोलना-बतियाना, सच्चाई से पेश आना ‘इस हाथ दे-उस हाथ ले’ जैसा होता है. जिस हद तक आप बच्चे से खुले होंगे, उसी हद तक बच्चा भी आपसे खुलकर बात करेगा. बच्चे इसलिए भी चुप्पी साध लेते हैं कि ‘क्यों बताऊं? क्या आप मुझे बताते हैं?’ इस तरह की ख़ामोशी बच्चे का स्थायी स्वभाव बन जाए, तो व्यक्तित्व के विकास में बड़ी बाधा खड़ी हो जाती है. ऐसे बच्चे जल्दी किसी से घुलते-मिलते नहीं. वे अव्यावहारिक हो जाते हैं और आख़िरकार एकाकीपन व अवसाद के शिकार हो जाते हैं.
ग़ुस्सा, अपमान, पछतावा, उपेक्षा, क्षोभ व आक्रोश जैसी भावनाओं का तीव्र आवेश भी बच्चे की ज़ुबान पर ताला लगा देता है. इनकी गिरफ़्त में जकड़ा बच्चा कुछ या सब कुछ कहना तो चाहता है, लेकिन इस डर से कि वह फट न पड़े, चुप ही रहता है. बाहरी तौर पर गुमसुम नज़र आनेवाला बच्चा भीतर ही भीतर घुलता रहता है. ऐसे में ख़ामोशी के बावजूद उसका तमतमाया चेहरा, डबडबाई आंखें व निगाहें न मिलाने जैसी तमाम बातें, बिना कुछ कहे, बहुत कुछ कह डालती हैं.
* यदि बच्चा आपसे कुछ पूछना या कहना चाहे, तो उसे ध्यान से सुनें. कई बार बच्चों के सवाल या जिज्ञासाओं को हम टाल देते हैं या फिर उन्हें डांट-डपट कर चुप करा देते हैं. इससे अगली बार वे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं करते और चुप रहना ही बेहतर समझते हैं.
* बच्चों के सामने पैरेंट्स झगड़ा न करें. इसका बच्चे के दिलो-दिमाग़ पर बुरा प्रभाव पड़ता है. वे असुरक्षित व डरा हुआ महसूस करने लगते हैं और अधिकतर ख़ामोश रहने लगते हैं.
* बच्चों को उनके दोस्तों के सामने न डांटें और न ही भला-बुरा कहें.
* यदि बच्चे कभी कोई ग़लती करें, तो उन्हें खरी-खोटी सुनाने, उलाहना देने की बजाय उन्हें उनकी ग़लतियों के बारे में प्यार से बताएं. इससे बच्चे ख़ामोश रहने की बजाय खुलकर अपनी बात कहेंगे.
* हाल ही में कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एमआरआईजी व एमईजी टेकनीक की मदद से यह पता लगाया है कि एक साल की उम्र से ही बच्चों में शब्दों को समझने के लिए ज़रूरी मस्तिष्क संरचना का विकास पूरी तरह से हो चुका होता है यानी एक साल के बच्चों में शब्दों को सुनने की प्रक्रिया किसी वयस्क की तरह ही होती है. वे इस उम्र से ही बड़ों की बातें समझने लगते हैं.
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