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कहानी- वसुधैव कुटुम्बकम (Short Story- Vasudhaiva Kutumbakam)

पिछले कुछ महीनों से इस स्टेशन पर यह आधा घंटा गुज़ारना कितना भारी हो चला था मेरे लिए, ये बस मेरा दिल ही जानता था. एक अनजाने भय… एक आशंका से मन भयभीत रहता. यही तो वो स्टेशन था जहां कुछ दिनों पहले मेरी ही तरह अकेले बैठे ट्रेन का इंतज़ार कर रहे मेरे एक एशियन सहकर्मी को कुछ पियक्कड़ अंग्रेज़ युवाओं ने बुरी तरह पीटा था. वो इतना बुरी तरह घायल हुआ था कि उसे कुछ दिन आई.सी.यू. में रखना पड़ा था. शरीर पर लगे घाव तो धीरे-धीरे भर रहे थे, मगर आत्मा पर लगे घाव अभी भी नासूर बने हुए थे. इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था.

संबर महीने का अंतिम पक्ष चल रहा था. पूरे यूरोप में इन दिनों का अर्थ है, ख़ूब सारी छुट्टियां… मौज़-मस्ती… मिलना-मिलाना, जश्‍न मनाना… सड़कों पर देर रात तक युवाओं का घूमना… झूमना… क्रिसमस हॉलीडेज़ और नया साल आने के उत्साह में जैसे पगला जाते हैं यहां के लोग… ऐसा ही हाल यहां लंदन में भी था.

सर्द, कंपकंपाती, ठिठुरन भरी शामें, जो किसी भी आम भारतीय की नसों में दौड़ रहे रक्त प्रवाह को ब़र्फ की तरह जमा देने में सक्षम हैं, पर ये सर्द हवाएं ना जाने क्यों इन उधम मचाते अधनंगे अंग्रेज़ों पर बिल्कुल बेअसर हैं… कौन-सी घुट्टी पिलाती है इनकी मांएं इन्हें बचपन में… दुहरी ऊन के स्वेटर, ऊपर से ओवर कोट, लेदर कैप और दस्तानों के आवरण में दुबका मैं जब कभी देर रात ऑफ़िस से घर लौटता, तो मन में अक्सर ऐसे मंथन चलते रहते.

इन फेस्टिव दिनों में देर रात भी सड़कों पर कुछ चहल-पहल दिखाई दे जाती थी, वरना सामान्य दिनों में तो रात के दस-ग्यारह बजे जब कोई बस या कार पास से तेज़ी से गुज़रती तो उनकी भांय-भांय ही सुनाई देती थी. मेरे क़दम तेज़ी से ब्रोमली साउथ स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे, मैं जल्द-से-जल्द स्टेशन पर पहुंच कर अपनी ट्रेन पकड़ लेना चाहता था, क्योंकि इस ट्रेन के छूटने का मतलब था अगली ट्रेन के इंतज़ार में स्टेशन पर कम-से-कम आधे घंटे बैठना.

पिछले कुछ महीनों से इस स्टेशन पर यह आधा घंटा गुज़ारना कितना भारी हो चला था मेरे लिए, ये बस मेरा दिल ही जानता था. एक अन्जाने भय… एक आशंका से मन भयभीत रहता. यही तो वो स्टेशन था जहां कुछ दिनों पहले मेरी ही तरह अकेले बैठे ट्रेन का इंतज़ार कर रहे मेरे एक एशियन सहकर्मी को कुछ पियक्कड़ अंग्रेज़ युवाओं ने बुरी तरह पीटा था. वो इतना बुरी तरह घायल हुआ था कि उसे कुछ दिन आई.सी.यू. में रखना पड़ा था. शरीर पर लगे घाव तो धीरे-धीरे भर रहे थे, मगर आत्मा पर लगे घाव अभी भी नासूर बने हुए थे. इस घटना ने मुझे हिला कर रख दिया था. इस स्टेशन पर जितनी देर मुझे रुकना पड़ता था, वो घटना मेरे ज़ेहन पर हावी रहती… यदि दो-चार अंग्रेज़ों का ग्रुप आस-पास आकर रुक जाता, तो मैं भयग्रस्त हो जाता था. ख़ैर… सही-सलामत अपनी ट्रेन पकड़ कर मैंने राहत की सांस ली.

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यक़ीन नहीं होता, जहां अब राह चलते भी भय लगता है, कुछ महीनों पहले उसी जगह आने के नाम से ही ख़ुशी के मारे उछल पड़ा था मैं… कितना उत्साहित हुआ था जब पता चला कि मुझे सालभर के लिए लंदन के ब्रांच ऑफ़िस में भेजा जा रहा है. कितना कुछ सुना था लंदन के बारे में, आंखो के सामने हिंदी फ़िल्मों के वो दृश्य तैरने लगे थे, जिनमें लंदन को बड़ी ख़ूबसूरती के साथ फ़िल्माया गया था, थेम्स नदी के किनारे सीना ताने खड़ा विशाल बिग-बेन. दो पाटों में बंटकर खुलने-बंद होने वाला टॉवर ब्रिज, विशालकाय गोल झूला मिलेनियम व्हील, ट्रफलगर स्क्वायर… इन सबको साक्षात देखने की कल्पना मात्र से ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा था.

और यहां आकर लंदन के बारे में जितना सुना था, उससे बढ़कर पाया. मैं इसके सौंदर्य और भव्यता पर मंत्रमुग्ध हो चला था… इतना मंत्रमुग्ध कि दिल के किसी कोने में एक इच्छा जागृत होने लगी थी, यहां की नागरिकता लेकर यहीं बस जाने की. इसी इच्छा के चलते मेरी नज़रें वहां के रोज़गार समाचार पत्रों को भी टटोलने लगी थीं.

वो कहते हैं ना, दूर के ढोल सुहावने होते हैं और जब पास आओ तो.. कुछ समय व्यतीत होने के बाद ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी होने लगा. धीरे-धीरे यहां की एशियन विरोधी हवाएं मुझे छूकर गुज़रने लगीं. बसों में, ट्रेनों में, क्लब और पबों में…. और भी अनेक जगहों पर मैंने गोरे लोगों की नज़रों में अपने लिए हीनता का भाव महसूस किया. कई बार तो राह चलते भद्दी फब्तियों अर्थात् बुलिंग का भी निशाना बनना पड़ा. मेरे कुछ एशियन सहकर्मी जो यहां पहले से रह रहे थे, मुझे सलाह देते कि कभी तुम्हें कोई बुलिंग करें तो चुपचाप आंखें नीची किये वहां से गुज़र जाओ, क्योंकि विरोध करने पर बात मारपीट तक भी पहुंच सकती है. इन सब बातों से मेरा आत्मविश्‍वास डगमगाने लगा और मैं यहां रुकने के निर्णय पर पुनर्विचार करने को मजबूर हो गया.

मैंने जिन नौकरियों के लिए आवेदन दिये थे, उनके इंटरव्यू कॉल आने शुरू हो गए थे. वहां भी मैंने पाया कि एशियन्स को अंग्रेज़ों के मुक़ाबले कम वेतन दिया जाता है और यदि कभी कर्मियों की छटनी का प्रश्‍न आता है, तो भी गाज एशियनों पर ही गिरती है. ऐसे नस्लवाद से रंगे माहौल में रहने का क्या फ़ायदा, जहां अधिक सक्षम होने के बावजूद मुझे इसलिए कम वेतन दिया जाए, क्योंकि मेरी चमड़ी भूरी है, जहां मुझे इसलिए हेयदृष्टि का सामना करना पड़े, क्योंकि मैं एशियन हूं…  इससे तो अपना हिंदुस्तान ही भला. माना वहां जीवन की गुणवत्ता यहां जैसी नहीं, मगर वहां कम-से-कम मैं राह चलते स्वयं को एक उपेक्षित, आउटसाइडर तो नहीं महसूस करता… इतना सुकून ही बहुत है मेरे लिए….

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वहां की नस्लवादी मानसिकता ने लंदन की चकाचौंध का पर्दा भी मेरी आंखों से हटा दिया था और मुझे अपना वतन बेहद याद आने लगा. अतः मैंने अपना असाइनमेंट पूरा होने के बाद वापस हिंदुस्तान लौटने का निश्‍चय किया. अपनी वापसी को सार्थक बताने और दोस्तों को जवाब देने के लिए कुछ तर्क गढ़े थे मैंने जैसे- अपनी उच्च शिक्षा का लाभ मैं अपने ही मुल्क को दूंगा, किसी ग़ैरमुल्क को नहीं… यहां की खुली संस्कृति में नैतिकता का अभाव है… इत्यादि.

लंदन में मेरा मित्र सुनील जो यहां लगभग 6-7 साल से रह रहा था, मेरे निर्णय से सहमत नहीं था. उसने मुझे पलायनवादी करार दिया. उसकी नज़रों में मेरे वापस जाने का निर्णय मेरा देशप्रेम नहीं, बल्कि मेरी कमज़ोरी थी, जो मुझे मुसीबतों से जूझने के बजाय वापस भेज रही थी. उसने मुझे समझाया कि आज का युग ग्लोबलाइजेशन का युग है, जहां पूरा विश्‍व एक ही मंच पर खड़ा हुआ है. आज का युग ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ की हमारी प्राचीन सांस्कृतिक अवधारणा को साकार कर रहा है, जिसमें एक मुल्क की तऱक़्की किसी-न-किसी दूसरे मुल्क की तऱक़्की पर निर्भर है. अतः तुम कहीं भी रहो, यदि अच्छा काम कर रहे हो तो इसका फ़ायदा तुम्हारी जड़ों तक ज़रूर पहुंचेगा. रही बात नस्लवाद की, तो इंसानों के बीच ये भेदभाव, ये दुर्भावना किसी-न-किसी रूप में हर जगह मौजूद है. माना तुम्हारे आस-पास दो-चार अप्रिय हादसे हुए हैं, मगर स्थिति इतनी भी बुरी नहीं जितनी तुम सोच रहे हो. एक नये देश में, नयी संस्कृति के बीच कुछ समय रहकर उसकी अच्छाइयां देखो, कुछ नया सीखो, खट्टे-मीठे अनुभव बटोरो और फिर वापस जाकर उनसे अपने देश को लाभान्वित करो.

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सुनील के समझाने का मुझ पर कोई असर नहीं हुआ. मैं एक प्रकार की हीनता से ग्रस्त हो गया था, जिससे मुक्ति पाने के लिए मेरे सामने वापसी के सिवा दूसरा कोई चारा नहीं था. मैंने वापसी की टिकट बुक करा ली और भारत में अपने सगे-संबंधियों और दोस्तों के लिए ग़िफ़्ट ख़रीदने में व्यस्त हो गया. अपने सबसे प्यारे दोस्त राघव के लिए मैंने लंदन की विश्‍वप्रसिद्ध इमारत बिग-वेन का सुविनर मॉडल ख़रीदा. मैं उसे पैक ही कर रहा था कि तभी पोस्टमैन एक पत्र डालकर गया. पत्र भारत से मेरे उसी दोस्त राघव का था. पत्र में लिखा था-

मेरे प्यार दोस्त,

तेरे लंदन चले जाने के बाद मैं यहां भावनात्मक रूप से अकेला पड़ गया हूं. पिछले कुछ महीनों में तीन-चार नौकरियां बदल चुका हूं, मगर कहीं भी संतुष्टि नहीं पाता. हर जगह यही देखता हूं कि इंसान की योग्यता पर परस्पर संबंध, जातिवाद… क्षेत्रियता… गंदी राजनीति ज़्यादा हावी है.

हिंदुस्तान के हर कोने में नौकरी करके देख चुका हूं, मगर सब जगह एक-सा ही हाल है. ऐसे माहौल में मेरा दम घुटने लगा है. सोच रहा हूं, तेरे पास आकर वहां कोई अच्छी नौकरी कर लूं. कम-से-कम वहां तो मुझे मेरी योग्यता के बल पर आंका जाएगा. कंसल्टेंट के द्वारा यू.के. से कुछ अच्छे ऑफ़र मिले हैं, मगर कुछ भी फ़ाइनल करने से पहले एक बार तुझसे मशवरा करना चाहता हूं. इसलिए हो सके तो फ़ोन से या पत्र के द्वारा जल्द-से-जल्द संपर्क करना.

राघव का पत्र पढ़कर मैं अपना सिर पकड़कर बैठ गया. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं… कहां जाऊं…. कहां तक भागूं इस इंसान की इंसान के प्रति नफ़रत से… सुनील ठीक ही कहता था. ऐसी समस्याएं विश्‍व के हर हिस्से में किसी-न-किसी रूप में मौजूद ही हैं, कहां तक बचोगे इनसे और फिर मैंने अपने बिखरे आत्मविश्‍वास को बंटोर कर एक निर्णय लिया. मैं वापस जाऊंगा, मगर ऐसे पलायन करके नहीं. मैं इन विपरीत परिस्थितियों के बीच रह कर उन्हें अनुकूल बनाने का प्रयास करूंगा… नये देश में, नयी संस्कृति के बीच रहकर कुछ नया सीखूंगा, खट्टे-मीठे अनुभव बटोरूंगा और फिर वापस जाकर उन अनुभवों से अपने देश के लिए कुछ बेहतर करने की कोशिश करूंगा.         

दीप्ति मित्तल

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