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कहानी- किसका दोष? (Short Story- Kiska Dosh?)

“मम्मी, इसमें दोष किसी का नहीं है. पापा ने वही किया, जो दादाजी ने कहा. बुआ ने वही सहा, जो दादाजी ने उनके सपनों को छीन कर उन्हें दिया.” शशि की आंखों में नमी उतर आई थी. “बुआ तो सारे दिन अपनी पीड़ा अपने कटु शब्दों से उड़ेलती रहती हैं, पर पापा…” उसका मन भर आया. उनकी पीड़ा किसने समझी?

“अरी मुई करमजलियों, सारे दिन किताबें हाथों में लिए बैठी रहती हो. अच्छा बहाना है काम से बचने का! सारे दिन अक्षरों को बांचती रहोगी, तो काम करने को कौन कहेगा, यही सोचती हो न! और एक हम हैं, जो सारा दिन अपने हाड़-मांस जलाए जाते हैं चूल्हे में. बांस-सी लंबी होती जा रही हो, मैं पूछती हूं कि क्या कलक्टर बनोगी? नहीं है ऐसा रिवाज़ इस घर में. लड़कियां हो, लड़कियों की ही तरह रहो. बाड़ लांघकर क्यारी पार करने की कोशिश मत करो. अपने सपनों को किसी गठरी में बांधकर ऊपर म्यानी में डाल दो. अपने आप कुछ समय बाद उड़ान भरना भूल जाएंगे. थोड़ी और बड़ी हो जाओ, फिर देखना तुम्हारे आगे कैसे-कैसे बहानों की, मजबूरियों की गुच्छियां खोली जाएंगी. फिर बुनती रहना उनसे पुराने डिज़ाइनों के स्वेटर.” बुआ का बड़बड़ाना जारी था.
यह रोज़ की बात थी. पूरे दिन में एक बार वह अवश्य ही इस तरह के शब्दों को घर की हवा में घोलती थीं. उनके तानों के तरकश से निकलते तीरों की चुभन झेलती ही वे बड़ी हुई थीं. अपने पापा को बुआ के सामने कभी मुंह खोलते नहीं देखा था उन्होंने, चाहे बुआ ग़लत ही क्यों न हों तब भी. मां शुरुआत में अकेले में ज़रूर दो-चार आंसू बहा लेती थीं कि उनकी बेटियों को आख़िर वह क्यों सुनाती रहती हैं. बेटियों की क्या ग़लती है, जो हुआ अपने भाई से पूछो. लेकिन इसके बावजूद बुआ के प्रति उनके मन में कभी मैल नहीं उपजा. उपजता भी कैसे! जब से ब्याह कर आई हैं, सास यानी बुआ की ख़ुद की मां, और रिश्ते की ममिया, चचिया, ताई सास, मौसी सास, बुआ सास और बड़े कुनबे की सठियाई महिलाओं से वही उन्हें बचाती रही हैं. असीम प्रेम रखती हैं बुआ अपनी भाभी सुहासिनी के प्रति. बुआ बड़ी थीं अपने भाई से, जिसे वह दाऊ कहा करती थीं. इसीलिए पहले सुहासिनी की बड़ी बहन और मां के चले जाने के बाद ममतामयी, स्नेहिल मां बन गईं. पर दाऊ से कभी न तो प्रेम कर पाईं, न ही कभी स्नेह उड़ेल पाईं. बचपन में रहा होगा स्नेह का कोई तंतु जब वह नादान थीं. बचपन में तो भाई की सुरक्षा कवच ही बनकर घूमा करती थीं, पर धीरे-धीरे जब चीज़ों को जानने-समझने लगीं, तो अपने भाई को वह सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगी थीं और आज तक मानती हैं.
“तू ही है मेरे सपनों का बैरी. सपने छीन लिए, नींद छीन ली मेरी. भाई तो बहन के विश्‍वास का पहाड़ होता है, तू तो पत्थर निकला, एकदम नुकीला पत्थर.” फिर भी दाऊ उनकी हर बात सिर झुकाकर सुनते हैं. आत्मग्लानि से या बड़ी बहन का सम्मान करते हुए?
बचपन में जैसा उनके बाबूजी ने कहा, वैसा ही वह करते रहे. उस ज़माने में आज की तरह अपने मन के विचारों को व्यक्त करने का चलन नहीं था. बाबूजी का ़फैसला ही अंतिम आदेश और सही निर्णय हुआ करता था. कॉलेज में पढ़ने लगे थे, तब अवश्य ही अपनी दिद्दा के सामने अपना पक्ष रखा करते थे. ख़ुद को जस्टीफाई करने की कोशिश किया करते थे, लेकिन दिद्दा ने उन्हें जो एक बार दोषी ठहराया, तो फिर आज तक उस पर टिकी हैं.
पहले जब बुआ कहतीं, ‘करमजलियों, अच्छा ही है कि तुम्हारा कोई भाई नहीं है, वरना उसके भाग्य से तुम्हारी क़िस्मत लिखी जाती. लेकिन यह सोचकर चैन से न बैठना कि तुम्हारे भाग्य को कोई उलट-पुलट नहीं कर सकता. तुम्हारा बाप सब कसर पूरी कर देगा’, तो शशि और राशि को बहुत ग़ुस्सा आता था. दोनों जुड़वां थीं. एक-दूसरे से स्वभाव में विपरीत अवश्य थीं, पर यह बात सुन दोनों ही आगबबूला हो जाती थीं. राशि शांत रहती थी, हालांकि शशि हमेशा बम के गोले की तरह फटा करती थी.

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“न मालूम किस पर गई है यह. चलो ठीक भी है. कम से कम अपने हक़ के लिए लड़ने का जिगरा तो रखती है.” उसके ग़ुस्सैल स्वभाव के बावजूद बुआ उसे सराहतीं. आश्‍चर्य होता तब उसे, पर पापा और मम्मी को नहीं. बुआ क्या कहती हैं, क्यों कहती हैं, उनकी किस बात के पीछे कौन-सा दर्द छिपा है, कौन-सी कड़वाहट उनके मुंह पर आकर अंगार बरसाती है, वे जानते थे.
लेकिन वे कैसे सुन सकती थीं अपने पिता की बुराई! वह उनकी हर बात मानते थे, उन्हें बेटों जैसा दर्ज़ा देते थे. बेटियां हैं, यह सोचकर कभी किसी चीज़ में कटौती नहीं की थी, न कुछ करने से रोका था. बुआ द्वारा उपयोग किए जाने वाले बिंबों, प्रतीकों, उदाहरणों व उपमाओं को सुन दोनों बहनें दांतों तले उंगली दबा लेतीं. बेशक उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई, पर अनुभवों ने उन्हें विद्वान बना दिया था.
जैसे-जैसे वे बड़ी होती गईं, उन्हें बुआ की बातें चुभनी बंद हो गईं. वे समझने लगी थीं कि बुआ का यह आक्रोश उनके प्रति नहीं है. यह तो खीझ और झुंझलाहट है, जो उनके अंदर एक दर्द की तरह ़कैद है, जो कभी पानी के बुलबुलों की तरह फूटती है, तो कभी लावे की तरह.
अन्यथा बुआ की जान बसती थी दोनों में. उन्होंने लड़का पैदा न करने या दो जुड़वां लड़कियां जन्मने के बाद और बच्चा न करने के लिए सुहासिनी को कभी ताना नहीं दिया, न ही कुनबे में या आस-पड़ोस में किसी को इस बात को लेकर उंगली उठाने दी. बल्कि प्रसन्न थीं कि लड़कियों के ऊपर कोई लड़का नहीं है. शशि और राशि जब छोटी थीं, तो अक्सर उन्हें अपने अगल-बगल बिठा कहतीं, “सहेलियों के भाई हैं, यह सोचकर मन उदास मत किया करो. माना कि राखी, भैया दूज और बाकी त्योहारों पर कमी खलती है. लेकिन सच तो यह है कि कुबार्नियां नहीं देनी पड़ेंगी, मेरी तरह. यह बात अलग है कि तुम्हारे पिता ही कहीं उस भूमिका में उतर तुम्हारे सामने बाधाएं न खड़ी कर दें. हे भगवान! मैंने जो भुगता, इन बच्चियों को न भुगतना पड़े.” तब सुहासिनी अपनी दोनों बेटियों को ऐसे उनकी गोद में बिठा देतीं मानो वही उनकी जन्मदात्री हों.
बुआ का स्पर्श इतना कोमल था कि दोनों उनसे लिपट जातीं. हमेशा सूती साड़ी में लिपटीं बुआ उन्हें किसी परी की तरह लगती थीं. गोरा रंग, सुतवां नाक और कान के नीचे तिल. कानों में छोटे से बुंदे पहनती थीं और हाथों में सोने की पतली-पतली चूड़ियां. लंबे बाल किसी मायावी सुंदरी की तरह लहराते रहते. कभी लाड़ आता तो कहतीं, “बुआ, परी की कहानी सुनाओ न.” तब बुआ अपने मुलायम हाथों से उनके माथे को सहलाने लगतीं और वे दोनों कहानी पूरी सुने बिना ही सो जातीं.
सुहासिनी जब ब्याह कर आई थी, तो इस घर में बिन ब्याही बड़ी ननद यानी बुआ के होने की बात से हमेशा आशंकित रहती थीं. सुन रखा था कि ऐसी बिन ब्याही ननदें कुंठित होती हैं और किसी के सुख को, ख़ुशी को बर्दाश्त नहीं कर पाती हैं. और फिर सुहासिनी तो उनसे उम्र में भी छोटी थी. कितने समय तक सुहासिनी डरती रही थी. उनसे बात करने, उनके पास बैठने तक से कतराती थी. और जब देखती कि पति तो दिद्दा के सामने बिल्कुल भी ज़ुबान नहीं खोलते हैं, तो और सहम जाती. इसलिए उनकी कोई बात बुरी भी लगती, तो बहस में उलझने की बजाय चुप ही रहती. धीरे-धीरे वह दिद्दा को समझने लगी और जाना कि वह इस घर में उसकी सबसे बड़ी हिमायती और सुरक्षा कवच हैं, तो फिर तो वह उनसे अपने मन की हर बात बांटने लगी. और धीरे-धीरे उनके भीतर लहराते दर्द और कड़वाहट को समझ गईं. हालांकि दोषी कौन है और किसकी ग़लती है, इसका आकलन वह कभी न कर सकी. उसके पति और ननद दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे. व़क्त या फिर परिस्थितियों को ही दोषी कहा जा सकता है. वह स़िर्फ सुनती- पति के ख़िलाफ़ भी और दिद्दा की पीड़ा को भी.


दिद्दा जब सुहासिनी के सामने अपने बचपन की संदूकची खोलकर बैठतीं, तो उस समय उनकी आंखों में नमी उतर आती थी. शशि और राशि भी यहां-वहां दुबक उनकी बातें सुन लेतीं, वरना बुआ उनके सामने अपने दुख की परतें कभी नहीं उधेड़ती थीं.
“जानती है सुहासिनी, मुझे पढ़ने का बहुत शौक था. यह बात घर में सबको पता थी और सब मुझे इस बात के लिए शाबाशी भी देते थे कि पूरे गांव में मेरे जैसी बुद्धिमान लड़की और कोई नहीं है. अक्सर गांव की बुज़ुर्ग महिलाएं दूसरी लड़कियों को कहतीं, “देखो इस बृंदा को, घर के काम में भी मां का हाथ बंटाती है और पढ़ने में भी होशियार है. रोज़ स्कूल जाती है. तुम्हारी तरह नहीं कि स्कूल जाने के बहाने रास्ते में खेलने लग जाना, इमली तोड़ना, आम के पेड़ पर चढ़ना, तभी तो तुम्हारे माई-बाबू के पास रोज़ शिकायत आती है.” बाबू को भी इस बात पर गर्व था और मां तो निहाल रहती थीं मुझ पर. वह कहतीं कि वह भाग्यवान हैं, जो उन्हें ऐसी बेटी जन्मी है. रूप-गुण सभी दे दिया ईश्‍वर ने. कृपा तेरी प्रभु!” वह अक्सर कहतीं, “जब मैं पढ़ रही होती, तो मुझे निहारती रहतीं. उन्हें यह बात बहुत दुखी करती थी कि मुझे घर के काम में हाथ बंटाना पड़ता है. बाबू कोई धन्ना सेठ तो नहीं थे, जो घर में उनके लिए किसी को मदद करने के लिए रख पाते… तुम दोनों क्यों मंडरा रही हो यहां? चल सुहासिनी, हम छत पर चलकर बैठते हैं. अरे हमें भी तो वह चाहिए, क्या कहती हैं ये दोनों शैतान… हां स्पेस.” अचानक उनकी नज़रें शशि और राशि पर पड़ जातीं और बुआ उठ जातीं वहां से. वह अपने घावों को बच्चियों को नहीं दिखाना चाहती थीं. हालांकि कटु शब्द सुना देती थीं. लेकिन नहीं चाहती थीं कि उनकी आपबीती सुन उन दोनों का मनोबल टूटे.
सुहासिनी बिना कुछ कहे चुपचाप उनकी बात सुनती रहती. न किसी बात में हामी भरती न किसी बात पर तर्क करती. बुआ उनके सामने पति की बुराई करती रहतीं, उसे दोष देती रहतीं और सुहासिनी मूक श्रोता की तरह सब सुनती रहती. उसके लिए किसी एक का भी पक्ष लेना वैसा ही था कि इधर कुआं उधर खाई. पति की कोई ग़लती न होने पर भी वह सदा दिद्दा के सामने सिर झुकाए रहते हैं, तो वह उनका विरोध कैसे कर सकती थी. उन्हें कैसे कहती कि वर्षों से जिस भाई को आप दोषी मानती आ रही हो, वह निरपराध है. आपके भाई ने परिवार की परंपराओं का पालन किया, अपने पिता के आदेशों का पालन किया. उस उम्र में जब वह पिता पर आश्रित थे, चाहकर भी विरोध कर पाना असंभव था. वैसे भी आपके समय में बच्चे कहां माता-पिता के सामने मुंह खोलने की हिम्मत रखते थे. तो आपके भाई आपके हक़ के लिए कैसे लड़ते.


शशि और राशि जितना प्यार अपने पापा से करती थीं, उतना ही बुआ से भी. दोनों के बीच व्याप्त दूरी उन्हें बहुत खलती थी. बुआ अपने ही छोटे भाई को लेकर इतनी कटु क्यों हैं, जबकि उनके पापा एक शब्द भी उनके विरुद्ध नहीं निकालते. इतना सम्मान करते हैं उनका. हर छोटी-बड़ी ज़रूरत का ध्यान रखते हैं. फिर भी अपराधबोध से घिरे रहते हैं. आज के ज़माने में कौन रिश्तों को ऐसे सहेज कर रखता है? वह क्या देखती नहीं कि उनके रिश्तेदारों, सहेलियों या परिचितों के घरों में कितने झगड़े होते हैं. कुंआरी बहनों के साथ भाई-भाभी कितना दुर्व्यवहार करते हैं. अपमानित कर घर से निकाल देते हैं. जबकि मम्मी-पापा दोनों ने ही बुआ को इज्ज़त के ऊंचे आसन पर बिठा रखा है. हर काम उनसे पूछ कर करते हैं. उनकी शादी नहीं हुई, क्या इसलिए? प्रश्‍न उन्हें मथते रहते थे. चाहे बुआ उनसे कितने ही लाड़ क्यों न लड़ाती हों, उनसे पूछने की उनमें हिम्मत नहीं थी और पापा से पूछने का मतलब था उन्हें और परेशान करना. लेकिन उनके बीच की दूरियां तो मिटानी ही थीं.
“मम्मी, आप बताओ न कि बुआ के साथ ऐसा क्या हुआ था जिसका दोष वह आज तक पापा को देती आ रही हैं?”
“क्या करोगी गड़े मुर्दे उखाड़कर? दिद्दा के ज़ख्म बहुत गहरे हो चुके हैं, वे उन पर मरहम लगाने को भी तैयार नहीं हैं और तुम्हारे पापा ख़ामोशी तोड़कर उनके सामने अपना दिल खोलने को तैयार नहीं होंगे. जैसा चल रहा है चलने दो.”
“आप नहीं बताओगी, तो हम पापा से पूछेंगे. बहुत हुआ.” शशि भड़क उठी थी. सुहासिनी उसकी ज़िद से परिचित थी, न जाने कैसा धमाका कर दे!
“दिद्दा को पढ़ने का बहुत शौक था. स्कूल में हमेशा अव्वल आती थीं. सब तुम्हारे
दादा-दादी से यही कहते कि पढ़-लिखकर बृंदा तुम्हारा नाम रोशन करेगी. ख़ूब ऊंचाइयां छूएगी. तुम्हारे पापा को पढ़ने का खास शौक नहीं था. वह क्रिकेट खेलने में व़क्त बिताते, वही उनकी दुनिया थी. पर बाऊजी चाहते थे कि वह आईएएस बनें. दिद्दा जब ग्यारहवीं में थीं, तो तुम्हारे पापा के लिए ट्यूशन रखने और नौवीं क्लास से ही विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए उन्होंने दिद्दा की पढ़ाई छुड़वानी पड़ी. दोनों बच्चों की पढ़ाई का ख़र्च उनके लिए उठाना संभव नहीं था. बेटा ही पढ़ेगा, यह बात बिना कुछ कहे-सुने तय हो गई थी. लड़की को तो पराए घर जाना है, उस पर क्या पैसा ख़र्चना. बेटा पढ़ेगा तो अच्छा कमाएगा और उनके बुढ़ापे का सहारा बनेगा. बस यही बात दिद्दा को चुभ गई. तुम्हारे पापा आईएएस तो नहीं बन पाए, लेकिन सरकारी नौकरी पा ली.
दिद्दा कुढ़ती रहीं और जब बाऊजी ने उनकी शादी करनी चाही, तो अड़ गईं कि
वह कहीं नहीं जाएंगी. सारी उम्र उन पर और दाऊ पर बोझ बनकर रहेंगी.”
“पर बुआ बोझ कहां हैं मम्मी? उनके बिना यह घर एक दिन भी न चले.” राशि ने हैरानी से पूछा.


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“अरे वह तो कहने की बात थी. लेकिन भाई की वजह से उनके पंख कुतर दिए गए, जबकि वह उनसे कहीं ज्यादा काबिल थीं, यह बात उन्हें आज भी किरचों जैसी चुभती है. वह कहती हैं आख़िर क्यों लड़कों को लड़कियों से ज़्यादा अहमियत दी जाती है? तभी तो तुम दोनों को उन्होंने सिर पर चढ़ा रखा है. तुम्हारे पापा ग्लानि में जीते हैं कि उनकी वजह से दिद्दा के साथ ऐसा हुआ. न वह पढ़ पाईं न ही उन्होंने शादी की.”
“मम्मी, इसमें दोष किसी का नहीं है. पापा ने वही किया, जो दादाजी ने कहा. बुआ ने वही सहा, जो दादाजी ने उनके सपनों को छीन कर उन्हें दिया,” शशि की आंखों में नमी उतर आई थी.
“बुआ तो सारे दिन अपनी पीड़ा अपने कटु शब्दों से उड़ेलती रहती हैं, पर पापा…” उसका मन भर आया.
“उनकी पीड़ा किसने समझी?”
“लो बुआ, यहां साइन कर दो.” शशि ने उन्हें पेन पकड़ाते हुए कहा.
“अरी करमजली, किन काग़ज़ों पर साइन ले रही है? मेरे पास कौन-सी जायदाद या जेवर हैं, जो हड़पना चाहती हो? जब तक ज़िंदा हूं इस घर से कहीं नहीं जाने वाली.”
“बुआ, साइन कर दो प्लीज़.” राशि ने संयत स्वर में कहा.
“आप अब से पत्राचार द्वारा पढ़ाई करोगी. जितना चाहो पढ़ना. चाहो तो कलक्टर बन जाना.” शशि ने उनके गालों को चूमते हुए कहा.
“पहले बारहवीं पूरी कर लो, फिर कहोगी तो कॉलेज में ही एडमिशन दिलवा देंगे.”
“मुई करमजलियों, मज़ाक करती हो मुझसे.” साइन कर फॉर्म पकड़ाते हुए बुआ ने कहा.
सुहासिनी ने देखा सामने खड़े अपने दाऊ को देख पहली बार दिद्दा की आंखों में रोष नहीं उभरा था. चाहे वह कितना कड़वा क्यों न बोलती हों, लेकिन रिश्ते मरते नहीं हैं. और फिर दाऊ तो उनकी आंखों का तारा था. उसकी पीड़ा क्या वह नहीं समझतीं, लेकिन किसका दर्द ज़्यादा पैना है, यह तौला तो नहीं जा सकता.
राशि और शशि ने पापा के अगल-बगल खड़े हो उनके हाथ पकड़ लिए थे. आश्‍वासन का वह स्पर्श शायद बुआ को भी छू गया था. वह उठीं और धीरे-धीरे चलते हुए ठीक अपने दाऊ के क़रीब से निकलते हुए भीतर कमरे में चली गईं.

सुमन बाजपेयी

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Usha Gupta

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