जीवन में प्रेम जब दस्तक देता है तो उसका एहसास अत्यंत ख़ूबसूरत होता है और वो भी मेरे जैसे नीरस इंसान के लिएजिसके लिए प्रेम और उसका एहसास मात्र लैला-मजनू, हीर-रांझा वाले किताबों के काल्पनिक क़िस्से थे, पर जब तुम्हें पहली बार देखा तो मैं भी प्रेम के एहसास से रु-ब-रु हो गया. वो काल्पनिक क़िस्से मुझे यथार्थ से लगने लगे थे. मुझे किंचित भी आभास न हुआ कि कब तुम मेनका बन आयी और मेरी विश्वामित्रि तपस्या भंग कर मेरे दिल में समाती चली गईं. उस दिन जब पहली बार तुम्हें मेले में चूड़ियों की दुकान परदेखा था तो मंत्र-मुग्ध-सा तुम्हें देखता ही रह गया. सलोना-सा मासूम चेहरा, कज़रारी आंखें और खुले लम्बे काले बालतुम्हारी सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे. तुम्हारे हाथों में ढेर सारी चूड़ियां, उनकी खनखनाहट मेरे कानों में सरगम का रस घोल रहीं थीं. हर बात पर तुम्हारा चूड़ियों का खनखनाना मुझे मंत्रमुग्ध कर रहा था. उस दिन तुम सफ़ेद कलमकारी वाली कढ़ाई वाले सूट में अनछुई चांद की चांदनी लग रही थी. अनिमेश दृष्टि से तुम्हें देखता मैं जड़ चेतन हो गया था. तुम्हारी चूड़ियों की खनक से मैं वापिस यथार्थ के धरातल पर आ गया. मैं भी अपनी बहन के लिए चूड़ियां ख़रीदने आया था, तभी इत्तेफाकन ही हम दोनों ने एक लाल रंग की चूड़ी पर हाथ लगा कर अपनी पसंद दुकानदार को ज़ाहिर कर दी. तुम्हारे कोमल हाथों के स्पर्श से मैं एकदम सिहर-सा गया. तुम तो वहां से चली गईं, साथ में मेरा दिल और चैन भी ले गई. मैं मोहब्बत के अथाह सागर की गहराइयों मेंगोते खाने लगा. मुझे तुम्हारा नाम-पता कुछ भी नहीं मालूम था. मैं बस तुम्हारी एक झलक पाने के लिए बेचैन-सा रहने लगा था. कहते हैं ना मन की गहरियों से ढूंढ़ो तो भगवान भी मिल जाते हैं, अंतत: मैंने तुम्हारे बारे में पता लगा ही लिया. तुम तो मेरे सामने वाले कॉलेज में पढ़ती थीं और रोज़ बस से कॉलेज जाती थी. इतना नज़दीक पता मिलने से मेरी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. मैं रोज़ तुम्हारी चूड़ियों की खनखनाहट सुनने के लिए बस स्टॉप पर तुम्हारा इंतज़ार करने लगा… और तुम, तुम तोमुझे देख कर भी अनदेखा करने लगी. तुम्हारी अनदेखी मुझे बहुत तकलीफ़ देती थी, लेकिन फिर एक दिन मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई और अपने दिल की बात बताने की ठानी, लेकिन तब तुमसे बात करने की कोशिश में पता चला ईश्वर ने तुम्हें फ़ुर्सत से गढ़ा था, पर वोतुम्हें आवाज़ देना भूल गया…और यही चूड़ियों की खनक ही तुम्हारी आवाज़ थी…तुम्हारी भाषा थी. तुम्हें डर था कि तुम्हारा यह सचजानकर कहीं मैं तुम्हें छोड़ न दूं, पर कहते हैं न "मोहब्बत कभी अल्फ़ाज़ों की मोहताज नहीं होती, ये तो वो ख़ूबसूरत एहसास है जिसमें आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती" मैंने तो तुम्हें मन की गहराइयों से निस्वार्थ प्रेम किया था. और प्रेम तो समर्पण और त्याग की मूरत है और मैं इतना स्वार्थी नहीं था. धीरे -धीरे मैंने भी तुम्हारी और तुम्हारी चूड़ियों की भाषा सीख ली. तुम्हारी इन चूड़ियों की खनक में सम्पूर्ण जीवनगुज़ारने का एक सुंदर सपना संजोने लगा. समय के साथ कब तुम्हारा कॉलेज पूरा हो गया पता ही नहीं चला. तुम आगेपढ़ना चाहती थीं… एक शिक्षिका बन कर अपने जैसे मूक लोगों के लिए प्रेरणा बन उन्हें राह दिखाकर उन्हें उनकी मंज़िल तक पहुंचाना चाहती थीं. बस फिर क्या था, तुम्हारे इसी हौसले और हिम्मत के आगे मैं नतमस्तक हो गया. एक-एक दिन तुम्हारे इंतज़ार और मिलनेकी आस में काट रहा था और आख़िर तुम्हारा सपना पूरा हो गया. मैंने भी अपने सपने को पूरा कर तुम्हें अपना हमसफ़र बना लिया और तुम्हारी इन चूड़ियों की खनक को हमेशा के लिए अपने जीवन की सरगम बना लिया. "मोहब्बत हमसफ़र बने इससे बड़ी ख़ुशनसीबी नहीं, रूह से रूह का बंधन हो तो इससे बड़ी इबादत नहीं" कीर्ति जैन
कंपकपाती ठंड से परेशान होकर नाश्ता करने के बाद मैं छत पर चला आया. बाहर गुनगुनी धूप पसरी हुई थी जो बड़ी भली लग रही थी. मैं मुंडेर के पास दरी बिछाकर उस पर लेट गया. धूप चटक थी लेकिन मुंडेर के कारण हल्की सी छांव के साथ सुहावनी लग रही थी. ठंडसे राहत मिलते ही कंपकपी बंद हो गई. धूप की गर्माहट से कुछ ही समय में आंखें उनींदी होने लगी और मैं पलकें मूंदकर ऊंघने लगा. यूंभी पिछले साल भर से किताबों में सर खपा कर मैं बहुत थक चुका था और कुछ दिनों तक बस आराम से सोना चाहता था, इसलिए लॉकी परीक्षा देने के बाद अपनी मौसी के यहां कानपुर चला आया था. अभी हल्की-सी झपकी लगी ही थी कि अचानक मुंह पर पानी की बूंदे गिरने लगी. मैंने चौक पर आंखें खोली, आसमान साफ था. नीलेआसमान पर रुई जैसे सफेद बादल तैर रहे थे. तब मेरा ध्यान गया कि पानी की बूंदें मुंडेर से झर रही हैं. दो क्षण लगे नींद की खुमारी सेबाहर आकर यह समझने में कि पानी किसी के लंबे, घने काले बालों से टपक रहा है. शायद कोई लड़की बाल धोकर उन्हें सुखाने केलिए मुंडेर पर धूप में बैठी थी. एक दो बार खिड़की से झलक देखी थी. एक बार शायद गैलरी में भी देखा था, वह मौसी के पड़ोस वालेघर में रहती थी. उसके भीगे बालों से शैंपू की भीनी-भीनी सुगंध उठ रही थी. मैं उस सुगंध को सांसों में भरता हुआ अधखुली आंखों से उन काले घने भीगेबालों को निहारता रहा. बूंद-बूंद टपकते पानी में भीगता रहा जैसे प्रेम बरस रहा हो, सद्धयः स्नात प्रेम… कितना अनूठा एहसास था वह. भरी ठंड में भी पानी की वह बूंदें तन में एक गर्म लहर बनकर दौड़ रही थी. मेरे चेहरे के साथ ही मेरा मन भी उन बूंदों में भीग चुका था. तभी उसने अपने बालों को झटकारा और ढेर सारी बूंदें मुझ पर बरस पड़ी. मेरा तन मन एक मीठी-सी सिहरन से भर गया. मैं उठ बैठा. मेरेउठने से उसे मेरे होने का आभास हो गया. वह चौंककर खड़ी हो गई. उसके हाथों में किताब थी. कोई उपन्यास पढ़ रही थी वह धूप मेंबैठी. मुझे अपने इतने नज़दीक देखकर और भीगा हुआ देखकर वह चौंक भी गई और सारी बात समझ कर शरमा भी गई. उसे समझ हीनहीं आ रहा था कि इस अचानक आई स्थिति पर क्या बोले. दो पल वह अचकचाई-सी खड़ी रही और फिर दरवाज़े की ओर भागकरसीढ़ियां उतर नीचे चली गई. पिछले पांच दिनों में पहली बार उसे इतने नज़दीक से देखा था. किशोरावस्था को छोड़ यौवन की ओर बढ़ती उम्र की लुनाई से उसकाचेहरा दमक रहा था. जैसे पारिजात का फूल सावन की बूंदों में भीगा हो वैसा ही भीगा रूप था उसका. रात में मैं खिड़की के पास खड़ा था. इस कमरे की खिड़की के सामने ही पड़ोस के कमरे की खिड़की थी. सामने वाली खिड़की में रोशनीदेखकर मैंने उधर देखा. उसने कमरे में आकर लाइट जलाई थी और अलमारी से कुछ निकाल रही थी. उसने चादर निकाल कर बिस्तर पररखी, तकिया ठीक किया और बत्ती बुझा दी. मैं रोमांचित हो गया, तो यह उसका ही कमरा है, वह मेरे इतने पास है. मैं रात भर एकरूमानी कल्पना में खोया रहा. देखता रहा उसके बालों से बरसते मेह को. एक ताज़ा खुशबूदार एहसास जैसे मेरे तकिए के पास महकतारहा रात भर. मैं सोचता रहा कि क्या उसके मन को भी दोपहर में किसी एहसास ने भिगोया होगा, क्या वह भी मेरे बारे में कुछ सोच रहीहोगी? जवाब मिला दूसरे दिन छत पर. जब मैं छत पर पहुंचा, तो वह पहले से ही छत पर खड़ी इधर ही देख रही थी. हमारी नज़रें मिली औरउसने शरमा कर नज़रें झुका लीं. कभी गैलरी में, कभी खिड़की पर हमारी नज़रें टकरा जाती और वह बड़े जतन से नज़रें झुका लेती. उनझुकी नज़रों में कुछ तो था जो दिल को धड़का देता. नज़रों का यह खेल एक दिन मौसी ने भी ताड़ लिया. मैंने उन्हें सब कुछ सच-सच बता दिया. फिर तो घर में बवाल मच गया और मुझेसज़ा मिली. सज़ा उम्र भर सद्धयः स्नात केशों से झरती बूंदों में भीगने की और मैं भीग रहा हूं पिछले छब्बीस वर्षों से, उसके घने कालेबालों से झरते प्रेम के वे सुगंधित मोती आज भी मेरे तन-मन को सराबोर कर के जीवन को महका रहे हैं और हम दोनों के बीच का प्रेमआज भी उतना ही ताज़ा है, उतना ही खिला-खिला जैसा उस दिन पहली नज़र में था, एकदम सद्धयः स्नात. विनीता राहुरीकर
हम तेरे शहर में आए हैं मुसाफिर की तरह.. यूट्यूब पर चलती ग़ज़ल और उसके शहर से गुज़रता हुआ मैं… दिल में यादों का सैलाब औरआंखों में नमी अनायास उतर आती है. ऐसा नहीं था कि उसके शहर से मेरा कोई राब्ता था या कोई जान-पहचान थी. मानचित्र में दर्ज वहशहर मेरे लिए नितांत अजनबी था. यह इत्तेफाक ही था कि उससे मुलाकात उसके शहर में उसके घर पर हुई. बात नब्बे के दशक की है. मैं आईएएस में सलेक्शन होने के बाद ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद जा रहा था. मैं इतना बेफिक्र और लापरवाह थायह भी नहीं जानता था कि इस हफ्ते मेरी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेने जा रही है. नई दुनिया के सतरंगी सपनों की नींद तब टूटी जब ट्रेन नेतेज़ी से हिचकोले खाकर अपनी रफ्तार रोक दी. गहन बीहड जंगल, जहां इंसान दूर-दूर तक नहीं थे, में ट्रेन का रुक जाना दहशत पैदाकर रहा था. भय के इस माहौल में पता चला कि ट्रेन के कुछ पहिये पटरी से उतर गए. कब तक ट्रेन दुरूस्त होगी इसकी जानकारी किसीके पास नहीं थी. एक या दो दिन लग सकते हैं. वक्त काटने के लिए मैं यूं ही टहलता हुआ दूर निकल आया. ढाणियों से आच्छादित यह गांव अपने रंग में रंगा हुआ था. शहर कीआबोहवा से दूर एक ढाणी में ढोल नगाड़े बज रहे थे. मै कौतूहलवश देखने लगा तभी पीछे से पीठ पर थपथपाहट हुई. मुड़कर देखा तो देखता ही रह गया. गुलाबी लहंगा-चुनर ओढ़े, गुलाबी आंखों में गुलाबी चमक लिए और गौर वर्ण हथेलियों में गुलाबीचूड़ियां खनक रही थी. सादगी में सौन्दर्य निखर रहा था. कौन हो बाबू? क्या चाहिए? ऐसे एकटक क्या देख रहे हो… मखमली आवाजेड में वह ढेरों सवाल पूछ रही थी और मैं बेसुध खड़ा सुना रहा था. गांव की लड़कियां शहरी लड़कों के हृदय में प्रेम काअंकुरण करती हैं वैसे ही कुछ मैंने महसूस किया. उसने मुझे झंझोड़ते हुए फिर से अपना सवाल दोहराया, मैं वर्तमान में लौटा. ट्रेन हादसे के बारे में उसे बताया. उसने अपने पिता को मेरीस्थिति समझाई. सरल हृदय के धनी उन लोगों ने मुझे अपने यहां रुकने का आग्रह किया- ‘जब तक ट्रेन ठीक नहीं हो जाती बाबू तबतक आप यहां आराम से रह सकते हैं. घर में शादी है आप शरीक हों, हमें अच्छा लगेगा.’ न जाने क्यों मैंने उनका आमंत्रण स्वीकार करलिया. शादी की रस्मों में गुलाबी लड़की थिरकती उन्मुक्त-सी उछलती-कूदती कुछ न कुछ गुनगुनाती रहती. मेरा दिल उसे देखकर धड़क जाता. यह लड़की कुछ अलग थी. कुछ बात थी जिसके कारण मेरा दिल मेरा नहीं था. रात के समय जब मै गांव के अंधेरे को निहार रहा था, तो वह मेरे पास आ बैठी. हम दोनों देर तक बातें करते रहे. मैं अपने कॉलेज केकिस्से सुनाता रहा. आगे की ट्रेनिंग के बारे में बताया और वह अपनी ज़िंदगी के अनछुए पहलुओं से अवगत करा रही थी. उसकी बातेंजादू थी, मैं डूब रहा था. अचानक उसने मेरा हाथ थाम लिया. ‘जो सितारे रात में तेज चमकते हैं वे प्रेम में चोट खाए हुए प्रेमी हैं. जाने-अनजाने में जब प्रेम किया और उसे पाने में खुद को असमर्थपाया. प्रेम कह देने में नहीं है बाबू. यह देह की भाषा से परिलक्षित हो जाता है. मैं तुम्हारे लिए नहीं बनी हूं. इसलिए अपनी आंखों में कोईख्वाब मत संजोना. कल मेरी शादी है.’ ‘तुम्हारी शादी… तुम तो दुल्हन जैसी नहीं लग रही.’ पूछ बैठा उससे. ‘हां बाबू, मुझे नहीं पता मेरा आने वाला समय कैसा होगा, मैं हर पल को जीना चाहती थी. तुम्हारे मन को पढ़ा तो बता देना ज़रूरीसमझा.’ मै आसमां से सीधे ज़मीं पर आ गिरा. अभी तो प्रेम कहानी शुरू भी नहीं हुई थी कि खत्म होने की बात आ गई. ‘एक सवाल पूछने कीहिमाकत कर सकता हूं? क्या तुम भी मुझसे…’ मेरी बात बीच में काटती हुई बोली- ‘उन प्रश्नों का कोई अर्थ नहीं होता जिनका जवाब देने में एक उम्मीद जग जाए, मैं कोई उम्मीद नहींहूं, दरख़्त हूं, तुम्हारे लिए हरी नहीं हो सकती.’ उसकी आंखें छलछला गई. हारा हुआ दिल लेकर मैं दो क़दम पीछे हटकर मुड़ा ही था कि उसकी आवाज़ गूंजी- ‘बाबू मेरी शादी का उपहार नहीं दोगे?’ ‘क्या चाहिए इस अजनबी से, बोलो?’…
‘अरे बहनजी एक बात बतानी थी. आज सुबह मैं मिसेज़ गुप्ता के घर गई थी और मैंने देखा कि उनका बेटा झाड़ू-पोछा कर रहा था. मैं तोहैरान हो गई, भला ये भी कोई लड़कों का काम है?’ मिसेज़ मिश्रा ने ये बात मिसेज़ जोशी को बताई तो मिसेज़ जोशी की बेटी ने कहा- ‘आंटी इसमें क्या ग़लत है. गुप्ता आंटी को दो दिन से बुख़ार है और उनकी काम वाली भी छुट्टी पर है, तो बेटा ही करेगा न और अपने ही तो घर का काम किया है.’ ‘देखो बेटा मुझे पता है तुम ज़्यादा ही मॉडर्न हो लेकिन कुछ काम सिर्फ़ लड़कियों के ही होते हैं, लड़कों को शोभा नहीं देता कि वो घर काझाड़ू-पोछा भी करें.’ मिसेज़ मिश्रा ने तुनककर कहा. दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा कुछ ऐसा बना हुआ है कि हम कभी भी महिला और पुरुष को समान नज़रों से नहीं देखते. अगर किसीघर में कोई लड़का झाड़ू लगाता या किचन में ख़ाना पकाता दिख जाए तो वो इसी तरह गॉसिप का विषय बन जाता है. हमारे परिवारों में आज भी अधिकांश लोग लिंग के आधार पर ही काम को तय करते हैं. लड़कियों को शुरू से ही एक कुशल गृहणी बनने की ट्रेनिंग दी जाती है. वो पढ़ाई में कितनी भी अच्छी हो लेकिन जब तक वो गोल रोटियां बनाने में निपुण नहीं हो जाती उसे गुणी नहीं माना जाता. घर के काम लड़कियां करती हैं और बाहर के काम पुरुष- यही सीख बचपन से दी जाती है और यही धारणा सबके मन में बैठजाती है. यही वजह है कि आज भी फ़ायनेंस और प्रॉपर्टी से जुड़े काम महिलाएं करने से हिचकती हैं. शादी से पहले बैंक, प्रॉपर्टी, बिल पेमेंट्स यानी फ़ायनेंस से जुड़े तमाम काम उनके पिता या भाई करते थे और शादी के बाद उनकेपति. पुरुषों को तो जाने ही दो ख़ुद महिलाएं भी यही सोच रखती हैं कि बैंक, लेन-देन या कोई भी इस तरह के काम तो मर्दों के ही होतेहैं. यहां तक की पढ़ी-लिखी और कामकाजी महिलाएं भी यही सोच रखती हैं, क्योंकि उनके भीतर वो आत्मविश्वास पैदा ही नहींहोता कि ये काम हम भी कर सकती हैं. मिस्टर शर्मा के घर गांव से उनकी भांजी कुछ दिन मुंबई घूमने के लिए आई थी. जब वो वापस गई तो मिस्टर शर्मा को गांव से उनके कईरिश्तेदारों के फ़ोन आए और सबने यही कहा कि ये हम क्या सुन रहे हैं, घर की साफ़-सफ़ाई तुम करते हो और यहां तक कि किचन मेंकाम भी करवाते हो. घर की औरतों को शर्म आनी चाहिए और तुमको भी. मिस्टर शर्मा ने उनसे बहस करना ठीक नहीं समझा लेकिन सच यह था कि वो अर्ली रिटायरमेंट ले चुके थे. उनको घर में बैठने की आदतनहीं थी और वो सुबह जल्दी उठ जाते थे. उनकी बहू कामकाजी थी, उसकी शिफ़्ट ही कुछ ऐसी थी कि लेट नाइट तक काम करना पड़ताथा. ऐसे में मिस्टर शर्मा अपनी वाइफ़ और बहू की मदद के लिए सुबह जल्दी उठने पर उस वक्त का सदुपयोग कर लेते थे. उनके घर पर सभी मिल-जुलकर काम एडजस्ट करते थे, जिसमें उनको तो कोई दिक़्क़त नहीं थी लेकिन बाक़ी लोगों को काफ़ी परेशानीथी. कामवाली इसलिए नहीं लगाई थी कि उनका भरोसा नहीं कि कभी आए, कभी न आए, समय का भी ठिकाना नहीं उनका तो इससे बेहतरहै अपना काम ख़ुद कर लें. हम ऊपरी तौर पर तो मॉडर्न बनते हैं और लिंग भेद को नकारने की बातें करते हैं, लेकिन हमारे व्यवहार में, घरों में और रिश्तों में वोयह भेदभाव साफ़ नज़र आता है. घरेलू काम की ज़िम्मेदारियां स़िर्फ बेटियों पर ही डाली जाती हैं. बचपन से पराए घर जाना हैकी सोच के दायरे में ही बेटियों की परवरिश की जाती है.…
पति-पत्नी के बीच जितना प्यार होता है, तकरार भी उतनी ही ज़्यादा होती है. और झूठ... इसकी तो कोई सीमा…
भले ही अब लैला-मजनू, शीरी-फरहाद और कच्चे घड़े पर माहिवाल से मिलने आने वाली सोहनी का ज़माना नहीं रहा, मगर प्यार-मुहब्बत अब भी है, दिल तो आज भी उसी तरह धड़कते हैं और महबूब का इंतजार भी वैसा ही है. मैं अपनी मां और तीन भाई-बहनोंके साथ रहती थी, सामने वाले घर में पहली मंजिल के एक कमरे में वो सलोना-सा किराएदार लड़का आया. कहीं नौकरी करता होगा. अक्सर ही यहां-वहां दिख जाता. कुछ अजीब-सी कशिश थी उसमें, बस आंखें मिलती ही थीं कि मेरी नजरें झुक जातीं. वो हल्का-सा मुस्करा कर निकल जाता. उसकी मुस्कान भी बड़ी मनमोहक थी. दिल तो दिल है और फिर उम्र भी ऐसी. जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी मैं इन इश्क-मुहब्बत की बातों से अपने आप को दूर ही रखती, लेकिन उसके सामने आते ही धड़कने इतनी तेज हो जाती कि सामने वाले को भी सुनाई दे जाएं. पिताजी दूसरे शहर में मुनीमगीरी करते थे, कभी-कभार ही आते. उन दिनों हालात और ट्रैफिक आज की तरह नहीं था. बच्चे गलियों में देररात तक खेला करते थे. एक दिन शाम का समय, अंधियारा-सा छा रहा था, बादल छाए हुए थे और ए दम से आंधी चलने लगी और मूसलाधार बारिश शुरू हो गई. मेरा छोटा दस वर्षीय भाई गली में खेल रहा था कि उसी समय किसी बच्चे की गेंद भाई की आंख पर जोरसे लगी और खून बहने लगा. भाई की चीख सुनकर सभी बाहर को भागे. डॉक्टर तक कैसे पहुंचें, हम सब के आंसू रुकने का नाम नहीं लेरहे थे. वो साईकलों का ज़माना था. वो लड़का फुर्ती से साईकल लाया और मैं भाई को लेकर पीछे कैरियर पर बैठ गई. इस जल्दबाज़ीमें मैं अपना दुपट्टा तक लेना भूल गई थी. मौसम की परवाह न करते हुए तेज़ी से साईकल चलाकर डॉक्टर तक पहुंच गए. शुक्र प्रभु काकि आखं बच गई. उसके बाद तो हम जैसे उसके कर्ज़दार ही हो गए. वो अक्सर हमारे घर आता, उसकी आंखों में मुहब्बत का पैगाम मैनें पढ़ लिया था, मगरहमारी और उसकी दुनिया में बहुत फासला था. उसके पहले खत के जवाब में ही मैंने लिख दिया- “मैं न साथ चल सकूंगी तेरे साथ दूरतलक, मुझे फ़कत अपनी ज़िंदगी में ‘किरदार’ ही रहने दे…” उसने भी मेरी मजबूरी समझी और बेहद सम्मान के साथ अपने प्यार की लाज रखने के लिए मुझसे दूरी बना ली. आज ज़िंदगी बढ़िया चल रही, मगर भाई की आंख के पास का निशान मुझे आज भी उस पहले अफेयर की याद दिलाता है. विमला गुगलानी
पहली बार जब मिले थे तब राजी बीस बरस की जवान लड़की और बिंदा दुबला-पतला शर्मिला-सा किशोर. पंद्रह बरस की उम्र में भीवह बारह-तरह बरस का लगता. बिंदा राजी की मां की मुंहबोली बहन का बेटा था. दोनों एक ही शहर की रहने वाली थी. अक्सर अपनीमां के साथ बिंदा राजी के घर आता रहता था. दोनों की मांएं अपने शहर की गलियों की पुरानी बातों में खो जाती और बिंदा अपनी मांकी बातों की उंगली थाम कर थोड़ी देर तक तो अपरिचित गलियों में घूमता-फिरता रहता फिर उकता जाता. तब राजी उसके मन कीस्थिति समझ कर उसे पढ़ने को कहानियों की कोई किताब या कॉमिक्स देती और अपने पास बिठा लेती थी. बिंदा गर्दन झुकाए चुपचापकिताब में सिर घुसा कर बैठा रहता. उसे राजी के पास बैठना न जाने क्यों बहुत अच्छा लगता, क्यों लगता यह तक वह समझ नहीं पाताथा, लेकिन बस इतना ही उसे समझ आता कि राजी के आसपास रहना उसे अच्छा लगता है. एक खुशबू सी मन को मोहती रहती. वहबहुत कम बात करता. बस यदा-कदा गर्दन उठाकर पलभर कमरे में नजर फिराता हुआ राजी को भी देख लेता और फिर सिर नीचा करकेकिताब में खो जाता. फिर साल भर बाद बिंदा के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया और वह लखनऊ चला गया. जाने के पहले उसकी मां बिंदा को लेकरराजी की मां से मिलने आई. राजी की मां ने सामान लाने के लिए उसे पास की दुकानों तक भेजा. राजी अपनी काइनेटिक उठाकर बाजारजाने लगी तो बिंदा से बोली, "चल बिंदे तुझे भी घुमा लाऊं." और बिंदा कुछ सकुचाता हुआ उसके पीछे बैठ गया. गाड़ी जब चली तो राजी का दुपट्टा उड़ता हुआ बिंदा के कंधे और चेहरे को छूते हुएउसके मासूम मन को भी सहला गया. राजी की यही छवि बिंदा के मन पर छप गई तस्वीर बनकर. सालों बीत गए पर बिंदे के मन पर छपीऔरत की यह तस्वीर धुंधली नहीं हो पाई बल्कि उसके रंग और गहरे ही होते गए. उस रोज बिंदा राजी के साथ बाजार से घर लौटा तोउसके हाथ राजी की दी हुई चॉकलेट, बिस्किट, टॉफीओं की सौगात से भरे हुए थे और उसका दिल राजी के दुपट्टे की छुअन की सौगातसे. फिर तेरह साल बाद जब बिंदा राजी से मिला तब वह अट्ठाइस बरस का लंबा-चौड़ा, गोरा-चिट्टा जवान था जो फौज में भर्ती हो चुका थाऔर तैतीस बरस की राजी दो बच्चों की मां थी. राजी अपनी मां के ही घर थी जब बिंदा भरी दोपहरी में उसके दरवाजे पर आ खड़ा हुआ. "हाय रब्बा बिंदा तू...?" राजी बित्ता भर के बिंदे की जगह छह फुट ऊंचे फौजी मेजर बलविंदर को देखकर देखती रह गई. "क्या कद निकाला है रे तूने, वारी जाऊं. पता नहीं होता कि तू आने वाला है तो मैं तो कभी पहचान ही नहीं पाती तुझे." बिंदा मुस्कुरा दिया. उसकी आंखों मे राजी का तेरह बरस पुराना दुपट्टा लहरा गया. बिंदे ने देखा बरामदे में राजी की वही पुरानीकाइनेटिक अब भी खड़ी थी. थोड़ी देर सबसे बातें करने के बाद बिंदा अचानक उठ खड़ा हुआ. "चलो मुझे काइनेटिक पर घुमा लाओ." "चल हट बिंदे मजाक करता है? भला अब तू क्या बच्चा रह गया है? गाड़ी उठा और खुद ही घूम आ. रास्ते तो तेरे पहचाने हुए हैं ही." राजी को हंसी आ गई "फौज में तो तू बड़ी-बड़ी गाड़ियां चलाता होगा. भला अब मैं क्या तुझे अपने पीछे बिठाऊंगी." "पर मुझे तो तुम्हारे ही पीछे बैठना है. चलो न." बलविंदर ने बहुत जिद की तो राजी गाड़ी निकाल लायी. अब उसे चार पहियों वाली गाड़ी में आगे की सीट पर बैठने की आदत हो गईथी. वह डर रही थी कि पता नहीं चला भी पाएगी की नहीं काइनेटिक, लेकिन हिम्मत करके चला ही ली. बिंदा एक बार फिर उसके पीछेबैठा था. एक अनजानी खुशबू से महकता हुआ. आज बिंदे के गालों को फिर से राजी का नारंगी दुपट्टा सहला रहा था. वही दुपट्टा जोफौज की कठिन ट्रेनिंग के बीच जब तब उसे पिछले सालों में नरमाइ से सहलाता रहा है. जो रातों को खुशबू बन ख्वाबों में महकता रहा हैऔर जिसकी खुशबू के बारे में उसके सिवा कोई नहीं जानता, खुद राजी भी नहीं. वह चाहता भी नहीं कि कोई जाने. वह तो बस इसखुशबू में अकेले ही भीगना चाहता है और कुछ नहीं. बिंदे के मुंह पर आज वही किशोरों वाली झिझकी सी मासूम खुशी है और राजी के चेहरे पर वही बीस बरस की उम्र वाली लुनाई औरचमक थी. एक आजाद खुशी. जाने बिंदे ने राजी को उसका अल्हड़ और आजाद कुंवारापन एक बार फिर कुछ पलों के लिए लौटा दियाथा या राजी ने आज बिंदे के दोनों हाथ उसके मासूम किशोरपन की प्यार भरी सौगात से भर दिए थे… नहीं जानता था मेजर बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था. वह तो बस कुछ पलों के लिए राजी के आसपास रहना चाहता था. उसके दुपट्टे की छुवन को महसूस करनाचाहता था जो उसके दिल को छू जाती थी. न जाने क्यों. यह पहले प्यार का अहसास था या कुछ और, नहीं जानता था बलविंदर. जानना चाहता भी नहीं था.…
कभी ऑफिस का वर्कलोड, तो कभी घर की टेंशन और समय की कमी के चलते कपल्स की सेक्स लाइफ बोरिंग…
रिश्तों की मिठास एक तरफ जहां पति-पत्नी के व्यकितत्व को संवारती है, वहीं दूसरी तरफ जब रिश्तों में तनाव बढता…
ये माना समय बदल रहा है और लोगों की सोच भी. समाज कहने को तो पहले से कहीं ज़्यादा मॉडर्न ही गया है. लाइफ़स्टाइल बदल गई, सुविधाएं बढ़ गईं, लग्ज़री चीजों की आदतें हो गई… कुल मिलाकर काफ़ी कुछ बदल गया है, लेकिन ये बदलाव महज़ बाहरी है, दिखावाहै, छलावा है… दिखाने के लिए तो हम ज़रूर बदले हैं लेकिन भीतर से हमारी जड़ों में क़ैद कुछ रूढ़ियां आज भी सीना ताने वहीं कि वहींऔर वैसी कि वैसी खड़ी हैं… थमी हैं… पसरी हुई हैं. जी हां, यहां हम बात वही बरसों पुरानी ही कर रहे हैं, बेटियों की कर रहे हैं, बहनों की कर रहे हैं और माओं की कर रहे हैं… नानी-दादी, पड़ोसन और भाभियों की कर रहे हैं, जो आज की नई लाइफ़स्टाइल में भी उसी पुरानी सोच के दायरों में क़ैद है और उन्हें बंदी बना रखा हैखुद हमने और कहीं न कहीं स्वयं उन्होंने भी. भले ही जीने के तौर तरीक़ों में बदलाव आया है लेकिन रिश्तों में आज भी वही परंपरा चली आ रही है जिसमें लड़कियों को बराबरी कादर्जा और सम्मान नहीं दिया जाता. क्या हैं इसकी वजहें और कैसे आएगा ये बदलाव, आइए जानें. सबसे बड़ी वजह है हमारी परवरिश जहां आज भी घरों में खुद लड़के व लड़कियों के मन में शुरू से ये बात डाली जाती है कि वोदोनों बराबर नहीं हैं. लड़कों का और पुरुषों का दर्जा महिलाओं से ऊंचा ही होता है. उनको घर का मुखिया माना जाता है. सारे महत्वपूर्ण निर्णय वो ही लेते हैं और यहां तक कि वो घर की महिलाओं से सलाह तक लेना ज़रूरी नहीं समझते. घरेलू कामों में लड़कियों को ही निपुण बनाने पर ज़ोर रहता है, क्योंकि उनको पराए घर जाना है और वहां भी रसोई में खाना हीपकाना है, बच्चे ही पालने है तो थोड़ी पढ़ाई कम करेगी तो चलेगा, लेकिन दाल-चावल व रोटियां कच्ची नहीं होनी चाहिए.ऐसा नहीं है कि लड़कियों की एजुकेशन पर अब परिवार ध्यान नहीं देता, लेकिन साइड बाय साइड उनको एक गृहिणी बनने कीट्रेनिंग भी दी जाती है. स्कूल के बाद भाई जहां गलियों में दोस्तों संग बैट से छक्के मारकर पड़ोसियों के कांच तोड़ रहा होता है तो वहीं उसकी बहन मां केसाथ रसोई में हाथ बंटा रही होती है.ऐसा नहीं है कि घर के कामों में हाथ बंटाना ग़लत है. ये तो अच्छी बात और आदत है लेकिन ये ज़िम्मेदारी दोनों में बराबर बांटीजाए तो क्या हर्ज है? घर पर मेहमान आ जाएं तो बेटियों को उन्हें वेल्कम करने को कहा जाता है. अगर लड़के घर के काम करते हैं तो आस-पड़ोस वाले व खुद उनके दोस्त तक ताने देते हैं कि ये तो लड़कियों वाले काम करता है.मुद्दा यहां काम का नहीं, सोच का है- ‘लड़कियोंवाले काम’ ये सोच ग़लत है. लड़कियों को शुरू से ही लाज-शर्म और घर की इज़्ज़त का वास्ता देकर बहुत कुछ सिखाया जाता है पर संस्कारी बनाने के इसक्रम में लड़के हमसे छूट जाते हैं.अपने घर से शुरू हुए इसी असमानता के बोझ को बेटियां ससुराल में भी ताउम्र ढोती हैं. अगर वर्किंग है तो भी घरेलू काम, बच्चों व सास-ससुर की सेवा का ज़िम्मा अकेले उसी पर होता है. ‘अरे अब तक तुम्हारा बुख़ार नहीं उतरा, आज भी राजा बिना टिफ़िन लिए ऑफ़िस चला गया होगा. जल्दी से ठीक हो जाओ बच्चेभी कब तक कैंटीन का खाना खाएंगे… अगर बहू बीमार पड़ जाए तो सास या खुद लड़की की मां भी ऐसी ही हिदायतें देती है औरइतना ही नहीं, उस लड़की को भी अपराधबोध महसूस होता है कि वो बिस्तर पर पड़ी है और बेचारे पति और बच्चे ठीक से खानानहीं खा पा रहे. ये चिंता जायज़ है और इसमें कोई हर्ज भी नहीं, लेकिन ठीक इतनी ही फ़िक्र खुद लड़की को और बाकी रिश्तेदारों को भी उसकीसेहत को लेकर भी होनी चाहिए. घर के काम रुक रहे हैं इसलिए उसका जल्दी ठीक होना ज़रूरी है या कि स्वयं उनकी हेल्थ केलिए उसका जल्दी स्वस्थ होना अनिवार्य है? पति अगर देर से घर आता है तो उसके इंतज़ार में खुद देर तक भूखा रहना सही नहीं, ये बात बताने की बजाय लड़कियों को उल्टेये सीख दी जाती है कि सबको खिलाने के बाद ही खुद खाना पत्नी व बहू का धर्म है. व्रत-उपवास रखने से किसी की आयु नहीं घटती और बढ़ती, व्रत का संबंध महज़ शारीरिक शुद्धि व स्वास्थ्य से होता है, लेकिनहमारे यहां तो टीवी शोज़ व फ़िल्मों में इन्हीं को इतना ग्लोरीफाई करके दिखाया जाता है कि प्रिया ने पति के लिए फ़ास्ट रखा तोवो प्लेन क्रैश में बच गया… और इसी बचकानी सोच को हम भी अपने जीवन का आधार बनाकर अपनी ज़िंदगी का अभिन्न हिस्साबना लेते हैं. बहू की तबीयत ठीक नहीं तो उसे उपवास करने से रोकने की बजाय उससे उम्मीद की जाती है और उसकी सराहना भी कि देखोइसने ऐसी हालत में भी अपने पति के लिए उपवास रखा. कितना प्यार करती है ये मेरे राजा से, कितनी गुणी व संस्कारी है. एक मल्टी नेशनल कंपनी में काम करने वाली सुप्रिया कई दिनों से लो बीपी व कमज़ोरी की समस्या झेल रही थी कि इसी बीचकरवा चौथ भी आ गया. उसने अपनी सास से कहा कि वो ख़राब तबीयत के चलते करवा चौथ नहीं कर पाएगी, तो उसे जवाब मेंये कहा गया कि अगर मेरे बेटे को कुछ हुआ तो देख लेना, सारी ज़िंदगी तुझे माफ़ नहीं करूंगी. यहां बहू की जान की परवाहकिसी को नहीं कि अगर भूखे-प्यासे रहने से उसकी सेहत ज़्यादा ख़राब हो गई तो? लेकिन एक बचकानी सोच इतनी महत्वपूर्णलगी कि उसे वॉर्निंग दे दी गई. आज भी हमारे समाज में पत्नियां पति के पैर छूती हैं और उनकी आरती भी उतारती दिखती हैं. सदा सुहागन का आशीर्वाद लेकरवो खुद को धन्य समझती हैं… पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद मिलने पर वो फूले नहीं समाती हैं… ऐसा नहीं है कि पैर छूकर आशीर्वाद लेना कोई ग़लत रीत या प्रथा है, बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद बेहद ज़रूरी है और ये हमारेसंस्कार भी हैं, लेकिन पति को परमेश्वर का दर्जा देना भी तो ग़लत है, क्योंकि वो आपका हमसफ़र, लाइफ़ पार्टनर और साथी है. ज़ाहिर है हर पत्नी चाहती है कि उसके पति की आयु लंबी हो और वो स्वस्थ रहे लेकिन यही चाहत पति व अन्य रिश्तेदारों कीलड़की के लिए भी हो तो क्या ग़लत है? और होती भी होगी… लेकिन इसके लिए पति या बच्चों से अपनी पत्नी या मां के लिए दिनभर भूखे-प्यासे रहकर उपवास करने कीभी रीत नहीं… तो फिर ये बोझ लड़कियों पर क्यों?अपना प्यार साबित करने का ये तो पैमाना नहीं ही होना चाहिए.बेटियों को सिखाया जाता है कि अगर पति दो बातें कह भी दे या कभी-कभार थप्पड़ भी मार दे तो क्या हुआ, तेरा पति ही तो है, इतनी सी बात पर घर नहीं छोड़ा जाता, रिश्ते नहीं तोड़े जाते… लेकिन कोई उस लड़के को ये नहीं कहता कि रिश्ते में हाथ उठानातुम्हारा हक़ नहीं और तुमको माफ़ी मांगनी चाहिए.और अगर पत्नी वर्किंग नहीं है तो उसकी अहमियत और भी कम हो जाती, क्योंकि उसके ज़हन में यही बात होती है कि जो कमाऊसदस्य होता है वो ही सबसे महत्वपूर्ण होता है. उसकी सेवा भी होनी चाहिए और उसे मनमानी और तुम्हारा निरादर करने का हक़भी होता है.मायके में भी उसे इसी तरह की सीख मिलती है और रिश्तेदारों से भी. यही कारण है कि दहेज व दहेज के नाम पर हत्या वआत्महत्या आज भी समाज से दूर नहीं हुईं.बदलाव आ रहा है लेकिन ये काफ़ी धीमा है. इस भेदभाव को दूर करने के लिए जो सोच व परवरिश का तरीक़ा हमें अपनाना हैउसे हर घर में लागू होने में भी अभी सदियों लगेंगी, क्योंकि ये अंतर सोच और नज़रिए से ही मिटेगा और हमारा समाज व समझअब भी इतनी परिपक्व नहीं हुईं कि ये नज़रिया बदलनेवाली नज़रें इतनी जल्दी पा सकें. पत्नी व महिलाओं को अक्सर लोग अपनी प्रॉपर्टी समझ लेते हैं, उसे बहू, बहन, बेटी या मां तो समझ लेते हैं, बस उसे इंसान नहींसमझते और उसके वजूद के सम्मान को भी नहीं समझते.गीता शर्मा