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कहानी- परसत मुक्ति (Short Story- Parsat Mukti)

“आपने केवल मेरी अपवित्र देह देखी, पवित्र और क्षत-विक्षत मन नहीं. ठीक है, मेरे शरीर पर किसी और ने अधिकार कर लिया, तो वो आपकी नज़र में अपवित्र हो गया. आपने उसके समीप आने से मना कर दिया, पर मन? वो तो केवल आपका रहा है. उसने तो केवल आपसे प्यार किया है. दिल की गहराइयों से केवल और केवल आपको चाहा है. तो उसे क्यों नहीं छूते आप? उसे क्यों नहीं सहलाते? उसे क्यों नहीं अपना लेते?…” आवेश में नेहा के स्वर कंठ में अटकने लगे थे, पर आज इस तूफ़ान का एक भी तिनका वो अपने दिल में बाकी नहीं रखना चाहती थी.

दिनचर्या वही थी, घर वही, पर वक़्त नेहा के लिए थम गया था. काले अंधड़-सा काला और धूमिल वो दिन बीतकर भी अतीत न हुआ था. वो हमेशा के लिए उसके और सौम्य के बीच टंग गया था. अब उसे कुछ भी अच्छा या बुरा न लगता था. जीवन की हर उमंग जड़ हो चुकी थी, उत्साह दम तोड़ चुका था. अपनी ही नज़रों से गिर चुकी नेहा के दिल में अगर कोई इच्छा जगती थी, तो केवल यही कि काश कोई जादू से उस दिन को उसकी ज़िंदगी से निकाल दे. अपवित्रता के इस एहसास से मुक्ति दिला दे. तभी एक दिन सौम्य ने घर में अखंड रामायण रखी और सारे रिश्तेदारों को बुलाया.
रामायण के साथ भंडारा तो होना ही था. नेहा पूजा का इंतज़ाम करके जाने लगी, तो काकी ने हाथ पकड़कर बैठा लिया, “तू कहां जा रही है मेरी गृहलक्ष्मी? तेरे कंठ में सरस्वती का वास है. पाठ तू ही करेगी.” ननदों ने भी किसी अगर-मगर का मौक़ा नहीं दिया. “रसोई या और किसी चीज़ की चिंता आपको करने की ज़रूरत नहीं है. हम भी आपके मुंह से मानस सुनना चाहते हैं.” नेहा के हाथ एक बार तो मानस को हाथ में लेते हुए कांपे, पर पाठ शुरू हुआ, तो पुरानी यादें साकार हो उठीं. ढोल-मंजीरे और हारमोनियम के साथ आनंद विभोर होकर रामायण पढ़ने की रुचि और प्रतिभा उसे विरासत में मिली थी. पिता के साथ रामायण गाने जाया करती थी वो. यादों में खोए मन ने जाने कब कंठ को सुर दे दिए. पाठ समाप्त हुआ, तो जन समूह की ज़ुबान नेहा की तारीफ़ करते नहीं थक रही थी. सारे रिश्तेदार नेहा को ढेर सारा आशीर्वाद और लक्ष्मी-सरस्वती की उपाधि देकर विदा हुए.
नेहा के पत्थर हो चुके मन में आज मिले सम्मान से एक अजीब-सी हलचल मच गई. युगों बाद अतीत का कोई सुखद हिस्सा वर्तमान बना, तो जमा हुआ दुखद अतीत भी जीवंत होकर चक्रवात की तरह उसके चारों ओर घूमने लगा…
नेहा का पालन-पोषण संयुक्त परिवार में हुआ था. हंसी-ख़ुशी के साथ सामंजस्य बिठाते हुए काम निपटाना उसका स्वभाव था, इसलिए शादी के बाद घरवालों का दिल जीतने में उसे समय न लगा. जितना प्यार उसने सबको दिया, उतना ही दुगुना होकर उसे वापस भी मिला.
विकास सौम्य का दोस्त था. घर में उसका आना-जाना लगा रहता था. एक दिन घर में नेहा अकेली थी, तो वो आया. उसे बैठक में बिठाकर चाय बनाने रसोई में गई ही थी कि विकास ने उसे पीछे से आकर अपनी बांहों में भर लिया. वो उसे सौम्य का दोस्त समझकर देवर की तरह स्नेह देती आई थी, इसीलिए उसके साथ इतना हंस-बोल लेती थी, पर वो दोस्त का रूप धरे एक दरिंदा था. उसकी आवाज़ तो हलक में अटक कर रह गई थी, पर जाने कहां से पूरी शक्ति बटोरकर एक ज़बरदस्त तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया. बाहर भागने को हुई, पर जाने उसने कुछ सुंघाया था या जाने क्या हुआ कि न क़दमों में भागने की ताक़त रही, न हाथों में प्रतिरोध की. विकास ने उसे गोद में उठा लिया था और… वही शयनकक्ष था, वही बिस्तर, लेकिन स्पर्श उसके आराध्य नायक का नहीं था. इस स्पर्श से उसका मन टूट रहा था, आत्मा छलनी हुई जा रही थी… निरीह चीख गले में घुटी चली जा रही थी…
हाथ-पैरों की ताक़त कुछ लौटी, तो उठते ही सामने सौम्य को खड़ा पाया. इस ग्लानि की पीड़ा असह्य थी कि वो क्यों विकास को पहचान न सकी? पढ़ी-लिखी होकर भी क्यों उसके इरादे न भांप सकी? क्यों सौम्य की अनुपस्थिति में इस दुर्भाग्य के लिए स्वयं अपने हाथों से दरवाज़े खोल दिए. अपमान और क्रोध के अंगारे उसके रोम-रोम को दहका रहे थे. चाहा कि दौड़कर सौम्य से लिपट जाए, पर उन्होंने उसे हाथ से वहीं रुकने का इशारा किया, तो पैरों में बेड़ियां-सी पड़ गईं. मन में सारा वृत्तांत शब्दों में ढलने को आतुर चक्रवात की तरह घूम रहा था, पर स्वर खो गए थे. क्या कहे? कैसे बताए सब कुछ? विकास दरवाज़े पर उन्हें मिला था. घर में कहीं प्रतिरोध का कोई चिह्न नहीं था और वो अस्त-व्यस्त बिस्तर पर एक वस्त्र में, बिखरे केशों में, रक्तिम नयन लिए…
वो दौड़कर सौम्य के क़दमों पर गिर पड़ी. “मैं अपवित्र… मैं ख़ुद को कभी क्षमा नहीं… पर आप मुझे क्षमा कर…” कुछ दबे-घुटे से शब्द किसी तरह हज़ारों गतिरोधक पार करके ज़ुबां पर आ सके थे, तभी मन के दहकते लावे पर सौम्य की ठंडी और सपाट आवाज़ ने हिमपात-सा किया, “मैं अपने पुस्तकालय में सोने जा रहा हूं. तुम अब ये अपवित्र देह लेकर मेरे समीप मत आना. इस अपावन कमरे में अब तुम अकेले रहोगी. मैं बदनामी और अपने और तुम्हारे घर के बुज़ुर्गों को कोई सदमा नहीं देना चाहता, इसलिए बाकी सब कुछ वैसे ही चलता रहेगा…”
नेहा की आंखों का सैलाब वहीं थम गया. शब्दों का चक्रवात मन में ही जम गया. सौम्य ने पहली बार उसे कठोर वचन बोले. क्रोध, अपमान, पीड़ा और ग्लानि का बोझ कम था, जो सौम्य का ये तिरस्कार! इससे तो अच्छा वो लड़ लेते, डांटते, खरी-खोटी सुनाते, पर… लेकिन ये उसकी त्रासदी का अंत नहीं था. विकास फिर आया और उस दिन का वीडियो दिखाकर उसे सोशल मीडिया पर डालने की धमकी देकर दोबारा अपनी वासना की आग में कूदने को विवश करने लगा. लेकिन इस बार नेहा ने दरवाज़ा नहीं खोला और कह दिया, “जब मेरे पति का प्यार ही मुझसे छिन चुका है, तो इस पाषाणवत् मन को किसी बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता. मैं सब कुछ झेलने को तैयार हूं, पर स्वेच्छा से अपने प्यार के अतिरिक्त और किसी को ख़ुद पर अधिकार देने को नहीं. उस दिन एक बार फिर इस नई यंत्रणा से बचने के लिए सौम्य का संबल पाने की कोशिश की, पर फिर वही तिरस्कार! छोटे-से शहर में सभी रिश्तेदारों से छिपते हुए चोरों की तरह साइबर क्राइम ब्रांच जाना, अकेले अपने दम पर अपराधी की रिपोर्ट लिखवाना, वहां होनेवाले आड़े-तिरछे प्रश्‍नों का सामना करना. जो कुछ सौम्य को न समझा सकी थी, वो पुलिस को समझाना आसान था क्या? उसके बाद तो एक सख़्त कवच बुनकर उसी में कैद हो जाने के सिवा जीने का कोई उपाय भी न बचा था.
“मैं तुझसे पूरी मानस तसल्ली से रोज़ एक घंटे अर्थ समेत सुनना चाहती हूं. सुनाएगी न?” काकी की आवाज़ से वो वर्तमान में लौटी. कहते हैं, इंसान ईश्‍वर को दुख में ही सच्चे दिल से याद करता है. मन में तीव्र व्यथा का जमा हुआ तूफ़ान हो, तो रामायण पढ़ने की इच्छा जगना स्वाभाविक ही था. तो मानस अर्थ सहित पढ़नी शुरू कर दी. बीच-बीच में अक्सर काकी उसके अर्थ को जन सामान्य के जीवन से जोड़कर बतातीं. जैसे-जैसे वो मानस में डूबती गई, सिया-राम के जीवन के संघर्षों में उतरती गई. भक्ति की उष्मा से सराबोर होती गई. इस उष्मा से मन का जमा हुआ तूफ़ान पिघलने लगा.
अहिल्या प्रकरण पढ़ा, तो आंखों से अश्रुधारा बह चली. जाने कितनी देर भक्ति में विह्वल पुकार के साथ आंसू बहाती रही. हे प्रभु! तुम कहां हो? अब तुम क्यों नहीं आते? क्यों नहीं मुझे अपवित्रता के इस एहसास से मुक्ति दिलाते? प्रभु को पुकारते-पुकारते कब नींद आ गई, उसे पता ही न चला. सुबह उठी, तो चेहरे पर सूखे हुए आंसुओं के स्पर्श से याद आया कि कितने अरसे बाद रोई है वो. आज मन बहुत हल्का लग रहा था. लग रहा था जैसे किसी परम मित्र के साथ अपनी पीड़ा बांट ली हो. सहसा उसे काकी के शब्द याद आ गए. हम भगवान को बाहर ढूंढ़ते हैं, जबकि वो तो हमारे भीतर हैं. भगवान कोई व्यक्ति नहीं, जो कहीं से आएंगे, वो तो उस सिम की तरह हैं, जो हमारे शरीर के मोबाइल में पड़ा है. उन्हें खोजना नहीं, समझना है. ढूंढ़ना नहीं, ऐक्टिवेट करना है. वो सर्वशक्तिमान ब्रह्म हमारे भीतर है. यदि हम सही हैं, तो वो ही हमारी शक्ति है. यदि ग़लत, तो वो ही हमारे मार्गदर्शक. जिस दिन ये विश्‍वास दृढ़ हो गया, मनुष्य अपनी चेतना पर ईश्‍वर के पावन स्पर्श को महसूस करना सीख लेता है. गिलहरी की भांति सुंदर हो जाता है, अहिल्या की भांति पावन हो जाता है. उसी के सहारे जीवन की सारी समस्याएं हल कर लेता है.
नेहा को लगा उसके मन में सदियों की रात के बाद चमकीली धूप खिल गई हो. जैसे अन्याय के विरुद्ध लड़ने का संबल मिल गया हो. नहा-धोकर निकली, तो ज़ुबां पर बेसाख़्ता वो भजन तैरने लगा, जो पहले गुनगुनाया करती थी और क़दम मंदिर की ओर बढ़ गए. भजन गुनगुनाते हुए मंदिर चमकाकर पूजा की, तो लगा युगों अंतरिक्ष में भटकने के बाद अपनी धरती पर वापस आई है. जैसे मन के ब्रह्मांड के ब्लैक होल के भीतर खो चुकी नेहा का पता चल गया है. आज अरसे बाद जमे हुए मन में थोड़ा उत्साह था.
जैसा कि होता आया था कि एक के यहां रामायण हुई, तो सभी रिश्तेदारों के यहां अखंड रामायण का दौर चल पड़ा. हर जगह गाने के प्रमुख के रूप में नेहा को ही बिठाया जाता. जब वो विभोर होकर गाती, तो लगता कि मां सरस्वती उसके कंठ में विराजमान हो गई हैं. लोग मंत्र-मुग्ध से सुनते रह जाते. अपने इस नए रूप से मिली प्रशंसा और सम्मान से उसका खोया हुआ आत्मविश्‍वास लौटने लगा. स्वयं मां सरस्वती उसे अपवित्र नहीं मानतीं, तभी तो उसके कंठ में आईं. जब भगवान स्वयं किसी को अपवित्र नहीं समझते, तो हम कौन होते हैं ख़ुद को अपवित्र समझनेवाले? अब वो इसे नए ढंग से सोचने लगी थी. उसके होंठों की हंसी कुछ हद तक लौट आई थी. अब जीवन पहले की तरह उत्साहविहीन नहीं था. एक दिन घर के काम निपटाते हुए विभोर होकर मानस गा रही थी कि सामने सौम्य को खड़े पाया.
“मैं सोचता हूं कि तुम अखंड रामायण गा कैसे पाती हो? अपवित्रता की ग्लानि से तुम्हारा कंठ अवरुद्ध न हो जाता है?” सौम्य के ये शब्द पिघले हुए लावे के समान उसके दिल में उतरते चले गए.
नेहा के मन का तूफ़ान अब पिघल चुका था और अंधड़ की तरह मन को मथता रहता था. उसे बाहर निकलने का बहाना मिल गया. वो फट पड़ी, “अपवित्रता? कौन-सी अपवित्रता? किस चीज़ की अपवित्रता? जिस देह में स्थित मन में स्वयं प्रभु का वास है, वो अपवित्र कैसे हो सकती है? यदि ईश्‍वर बलात्कार के कारण स्त्री देह को अपवित्र मानते, तो अहिल्या का उद्धार न करते. सच तो यह है कि आप अपने पुरुषत्व के झूठे अहं के कारण मुझे स्वीकार नहीं कर पा रहे. मैं जूठी हो गई हूं आपकी नज़र में. जो आपकी संपत्ति है उसका उपभोग कोई दूसरा कर चुका है, ये एहसास आपको मेरे समीप नहीं आने देता. यदि ऐसा नहीं होता, तो मेरे मन की पवित्रता को पहचान पाते आप.
मैं छली गई थी. मेरे मन में छले जाने का जो क्षोभ था, उसे मरहम की ज़रूरत थी. मेरे आक्रोश की चिंगारी को अगर आपके सहयोग की हवा मिलती, तो वो मशाल बनकर अपराधी को जला सकती थी. लेकिन नहीं, मेरा संघर्ष एकाकी रहा. इस पुरुष प्रधान समाज में अपराध और सज़ा जैसे शब्द केवल स्त्रियों के लिए हैं. वो अपराधी तो अब भी अन्य स्त्रियों को छलने के लिए स्वतंत्र है. यदि मैं आपकी संपत्ति ही हूं, तो अपनी इस संपत्ति का ज़बरन उपयोग करनेवाले उस पुरुष पर आपका ग़ुस्सा क्यों नहीं फूटा?
आपने केवल मेरी अपवित्र देह देखी, पवित्र और क्षत-विक्षत मन नहीं. ठीक है, मेरे शरीर पर किसी और ने अधिकार कर लिया, तो वो आपकी नज़र में अपवित्र हो गया. आपने उसके समीप आने से मना कर दिया. लेकिन मन? वो तो केवल आपका रहा है. उसने तो केवल आपसे प्यार किया है. दिल की गहराइयों से केवल और केवल आपको चाहा है, तो उसे क्यों नहीं छूते आप? उसे क्यों नहीं सहलाते? उसे क्यों नहीं अपना लेते?…” आवेश में नेहा के स्वर कंठ में अटकने लगे थे, पर आज इस तूफ़ान का एक भी तिनका, वो अपने दिल में बाकी नहीं रखना चाहती थी.
वो बोलती गई, “आप चाहे कुछ भी समझें, मुझे अब इस अपवित्रता के एहसास के साथ नहीं जीना है. मैंने तय कर लिया है कि मैं ख़ुश रहूंगी, अन्याय से लड़ूंगी और दूसरों के लिए जीने की कोशिश करूंगी.” बोलते-बोलते उसका चेहरा तमतमाने लगा और उसने आवेश में आंखें बंद कर लीं. कुछ देर बाद उसने सौम्य की उंगलियों का स्पर्श अपने बालों पर महसूस किया. चौंककर आंखें खोलीं, तो पाया कि ये भ्रम नहीं था. उसके कानों में कोमल स्वर पड़ा, “दृश्य को छूना आसान होता है, पर अदृश्य मन को कैसे छुआ जाता है, मुझे सिखाओगी?” नेहा को अपने कानों पर यक़ीन नहीं हुआ. उसने देखा, सौम्य की आंखों से आंसू बह रहे थे.
“तुम ठीक कह रही हो, जब मैंने तुम्हें किसी और के साथ देखा, तो शायद सामंतवादी विचारधारा का असर था कि मेरा रोम-रोम जल उठा. मैं तुमसे इतने कठोर वचन बोल गया, क्योंकि मुझे लगा कि तुम स्वेच्छा से… लेकिन जब मन थोड़ा शांत हुआ, तो तुम्हारे एकाकी संघर्ष की ओर ध्यान गया. पता चला उसकी ब्लैकमेलिंग में नहीं आने के कारण रोष में… जब पता चला कि तुम छली गई थीं, तो मन अपराधबोध से भर गया. तुम तो इतनी सशक्त थी कि बदनामी तक गवारा कर ली, पर अन्याय नहीं, आत्मसम्मान पर चोट नहीं. ख़ुद को स्वेच्छा से किसी के हाथ न सौंपने की क़ीमत के रूप में पत्थर का कवच बुनकर उसमें ़कैद हो गई, इस सबला के लिए मेरा मन श्रद्धा से भर गया.
धीरे-धीरे मुझे एकाकीपन महसूस होने लगा. तुम्हारे निश्छल प्रेम और समर्पण की यादें मेरी ग्लानि को बढ़ाने लगीं, तो तुम्हें सांत्वना देने की सोची, पर तुम्हारा आत्मग्लानि से मेरे क़दमों पर झुका व्यक्तित्व याद करके ठिठक गया. मुझे लगा कि तुम्हें सांत्वना देने से न तुम्हारा खोया हुआ आत्मसम्मान वापस आएगा, न आत्मविश्‍वास.
नेहा, हम दूसरे को उसी बात का यक़ीन दिला पाते हैं, जिस पर पहले हम शिद्दत से यक़ीन करते हैं. मुझे लगा जब तक तुम्हारे मन में आत्मग्लानि का, ख़ुद को अपवित्र या ग़लत समझने के भाव का एक तिनका भी मौजूद है, तुम न्याय के लिए पूरी मज़बूती से संघर्ष नहीं कर पाओगी. तब सोचा कि तुम्हें यक़ीन दिलाना होगा कि वो दिन एक दुर्घटना से अधिक और कुछ नहीं है. तुम्हारे मुंह से ये कहलवाना है कि तुम ख़ुद को ग़लत या अपवित्र नहीं मानती, मेरी गुनहगार नहीं मानती. ये कैसे होगा इसी ऊहापोह में था कि काकी से तुम्हारी मानस पढ़ने की प्रतिभा का पता चला और इस कठिन काम की ज़िम्मेदारी प्रभु को ही सौंप दी. और देखो उन्होंने मुझे मेरी नेहा वापस दिला दी.”
सौम्य की बांहों के कसमसाते घेरे में नेहा को पता ही नहीं चला कि कब मन के आकाश पर अरसे से जमी पीर बादल बनकर बरस गई और उनके पावन स्पर्श की गुनगुनी धूप से शरीर के साथ मन और आत्मा के घाव भी सूख गए. वो मन ही मन उस ईश्‍वर के प्रति नतमस्तक थी, जिसने उसे मुक्ति ही नहीं दिलाई, बल्कि उसके आराध्य का खोया हुआ प्यार भी उसकी झोली में डाल दिया था.

              भावना प्रकाश

 

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