Others

कहानी- आदर्शवाद का जामा (Short Story- Aadarshwad Ka Jama)

मनस्वी मन ही मन ख़ुद पर इतरा उठी. कितनी चिंता थी उसे… सहेलियों के विवाह व दहेज संबंधी बातें सुनते-सुनते मन अज्ञात आशंकाओं से त्रस्त रहने लगा था. तभी उसने दृढ़ संकल्प कर लिया था कि दहेज लोभियों के घर कभी नहीं जाएगी. चाहे ताउम्र कुंआरी ही क्यों न रहना पड़े. ढेर सारा दहेज तो पिताजी दे सकते हैं, परंतु लोभी व्यक्ति की लालसा का भी कहीं अंत होता है भला?

 

“मनु, मिश्राजी आ रहे हैं सपरिवार तुम्हें देखने, जल्दी से अच्छी-सी साड़ी पहनकर तैयार हो जाओ… लड़का भी साथ आ रहा है.” शांति उत्साहित-सी मनस्वी को निर्देशित कर रही थी.
“चल उठ भी…. मुंह-हाथ धो जल्दी, अब सोच क्या रही है?”
“मां तुम्हें मेरी बात याद है न!” मनस्वी के चेहरे पर तनाव उभर आया.
“हां, हां सब याद है…. ये लोग वैसे नहीं हैं. मिश्राजी तो बहुत ही शिष्ट व आदर्श विचारधारा के हैं- सादा जीवन, उच्च विचार! कल ही तो सतीश भाईसाहब तुम्हारे पिताजी को बता रहे थे और लड़का भी बिल्कुल अपने पिता पर गया है. ऐसे रिश्ते नसीब वालों को ही मिलते हैं…. समझी? और तू?क्यों चिंता करती है. तू एक ही तो फूल है हमारी बगिया का… तेरे लिए तो हमारा सर्वस्व न्यौछावर है. भगवान की कृपा से तुम्हारे पिताजी की हैसियत भी कम नहीं है… वे तुम्हारे लिए सब कुछ जुटाने में सक्षम…”
“मां बात हैसियत या सामर्थ्य की नहीं है…” मनस्वी ने मां की बात बीच में काटते हुए कहा, “बात है मेरे आदर्शों की… मेरे प्रण की… उसूल भी तो कोई चीज़ होते हैं. तुम्हें पहले ही कहे देती हूं, यदि दहेज के लेन-देन की बात उठी तो तुम उठ खड़ी होना… बात को आगे ही न बढ़ने देना….” मनस्वी उत्तेजित हो उठी.
“अच्छा बाबा ठीक है…. चल उठ अब मुझे किचन में भी तैयारी करनी है.” मां ने उसे आश्‍वस्त करते हुए कहा.
मनस्वी साड़ी पहनकर तैयार हो गई. समय पर हरिप्रसाद मिश्राजी सपत्नी पधारे, साथ में उनका सुपुत्र डॉ. अविनाश भी था.
मनस्वी चाय की ट्रे लेकर बैठक में पहुंची. मन-ही-मन मिश्रा परिवार के सदस्यों को तौल रही थी- “रहन-सहन तो साधारण-सा ही प्रतीत हो रहा है, पर विचार जाने कैसे हों?”
औपचारिक सवालों-जवाबों के पश्‍चात डॉ. अविनाश को मनस्वी के साथ अकेले छोड़कर सारे सदस्य बाहर गार्डन में चले आए.
कुछ पल की चुप्पी के बाद गला ठीक करने का उपक्रम करते हुए अविनाश बोला, “डॉक्टर के प्रो़फेशन के बारे में क्या सोचती हैं आप?”
“नोबल, इट्स ए नोबल प्रो़फेशन, यदि सेवाभाव मन में हो तब, नहीं तो व्यापार.” मनस्वी बोली.
“देखिए मनस्वी जी! हम लोग साधारण से लोग हैं… शिक्षा को ही असली पूंजी मानते हैं. फिज़ूल की तड़क-भड़क में बिल्कुल विश्‍वास नहीं रखते और बाबूजी के तो उसूल हैं …सादा जीवन उच्च विचार.” मनस्वी को प्रभावित करने के लिए इतनी ही बातें काफ़ी थीं.
“डॉक्टर की लाइफ़ पार्टनर बनने में बहुत त्याग करना पड़ेगा आपको… आप तैयार होंगी इसके लिए?”
मनस्वी अविनाश की ओजपूर्ण बातों से सम्मोहित हुई जा रही थी. अविनाश का धीर-गंभीर सुदर्शन चेहरा तो पहली ही नज़र में भा गया था. उसने मुस्कुराकर अपनी स्वीकृति प्रकट कर दी.
खाने-पीने का दौर चला और जाते-जाते अविनाश की मां ने मनस्वी को अंगूठी पहनाकर पसंद की मोहर भी लगा दी.
मिश्रा परिवार के जाते ही घर भर में ख़ुशी की लहर-सी दौड़ गई. मां तो बेटी की बलाएं लेते नहीं थक रही थी.
“सोने-सा भाग्य लेकर आई है मेरी मनु, जो मन मुताबिक ससुराल मिल रहा है. मिश्रा जी कह रहे थे, “भई हम तो अध्यात्मवादी हैं. भौतिक सुखों के पीछे भागने में हमारी कोई रुचि नहीं है. दहेज के मोहपाश में बंधकर हम क्या गुणवती, संस्कारशील कन्या का तिरस्कार करेंगे भला? हमारे लिए असली दहेज तो कन्या ही है.”
मां-पिताजी अनवरत मिश्रा जी की तारीफ़ में व्यस्त थे… मिश्रा जी ये कह रहे थे, मिश्रा जी वो कह रहे थे…
“अब तो ख़ुश है तू…?” मां ने मनस्वी को प्यार से बांहों में भरकर चूम लिया.
“कहती थी मेरा प्रण है… वे तो आदर्शवाद में तुझसे दो क़दम आगे ही हैं.”
मनस्वी मन ही मन ख़ुद पर इतरा उठी. कितनी चिंता थी उसे… सहेलियों के विवाह व दहेज संबंधी बातें सुनते-सुनते मन अज्ञात आशंकाओं से त्रस्त रहने लगा था. तभी उसने दृढ़ संकल्प कर लिया था कि दहेज लोभियों के घर कभी नहीं जाएगी. चाहे ताउम्र कुंआरी ही क्यों न रहना पड़े. ढेर सारा दहेज तो पिताजी दे सकते हैं, परंतु लोभी व्यक्ति की लालसा का भी कहीं अंत होता है भला? आज डॉ. अविनाश को पति के रूप में पाकर जीवन सफल नज़र आ रहा था.
मिश्रा जी की ओर से विवाह का आयोजन भी साधारण ढंग से ही करने की हिदायत थी. कहा था गिने-चुने लोग ही विवाह में शामिल होंगे. फिज़ूलख़र्ची में वे ज़रा भी विश्‍वास नहीं रखते.
पिताजी कहने लगे, “सुना तो यही था कि लड़की के बाप की चप्पलें घिस जाती हैं. एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ता है, तब जाकर कहीं अच्छा घर-वर मिलता है और दहेज का बोझ अलग से, पर यहां तो हिसाब ही उल्टा है. हम तो धन्य हो गए जो हमें मिश्रा जी जैसे समधी मिले.”
निश्‍चित समय पर विवाह संपन्न हुआ. मनस्वी मिश्रा परिवार की बहू बनकर आ गई.
हर तरफ़ तारीफ़ ही तारीफ़… सहेलियों के बीच गर्व से मस्तक ऊंचा हो गया था मनस्वी का. अपने संकल्प को पूरा कर लेने का मान, ऊंचे आदर्शोंवाला परिवार मिलना सब कुछ अपने आपमें बहुत सम्माननीय था.
घर-परिवार, रिश्तेदारी… सब जगह वाहवाही, “केवल चार कपड़ों में ब्याहकर ले गए मिश्राजी अपनी बहू को… मनस्वी का भाग्य बड़ा प्रखर है.” मां-पिताजी तो ख़ुशी से वारे जा रहे थे.


विवाह पश्‍चात् कुछ दिन तो पंख लगाकर कैसे उड़ गए, पता ही न चला…. जीवन एक ख़ूबसूरत ख़्वाब-सा लग रहा था.
…पर एक दिन अचानक सारा मोहभंग हो गया. ख़्वाब बिखर-से गए. हां, ख़्वाब ही तो था शायद जो अब तक खुली आंखों से मनस्वी देख-समझ रही थी.
ससुर जी को चाय देने उनके कमरे में जा रही थी कि उनका अविनाश से वार्तालाप सुनकर ठिठक गई. बाबूजी अविनाश से कह रहे थे, “अब और देर न करो… मौक़ा देखकर समधी जी के कान में नर्सिंगहोम खुलवाने की बात किसी तरह डाल ही दो… अपनी इकलौती औलाद की ख़ातिर पीछे नहीं हटेंगे वे…”
“वो तो ठीक है बाबूजी.” अविनाश का स्वर उभरा, “पर मैं सोच रहा हूं कि वे स्वयं भी तो मनस्वी के भविष्य के बारे में चिंतित होंगे. इकलौती संतान है आख़िर… और डॉक्टर दामाद ढूंढ़ा है तो आगे के लिए कुछ न कुछ तो सोचा ही होगा. इतनी धन-संपत्ति क्या अकेले अपने बुढ़ापे पर ख़र्च करेंगे. थोड़ा इंतज़ार और कर लेते हैं… अच्छा हो कि वे स्वयं ही इस संबंध में चर्चा छेड़ें… फिर तो सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी. आख़िर उनका सब कुछ तो अब हमारा ही है… हमें जो मिलना है, उसे मांगकर हम क्यों स्वयं को बौना साबित करें?”
सुनकर मनस्वी को लगा मानो कल्पना के आकाश में विचरण करते-करते वास्तविकता की धरा पर वह औंधे मुंह गिर पड़ी हो! अंदर से चूर-चूर होकर बिखर गई थी वह. तो आदर्शवाद का जामा पहनकर आए थे ये लोग… अंदर से बिल्कुल नंगे-भिखमंगे… ये तो दहेज मांगनेवालों से भी बद्तर हैं… रोम-रोम धधक उठा मनस्वी का.
उल्टे पैर वह अपने कमरे में लौट आई. बिस्तर पर निढाल-सी गिर गई. आंखें मूंदकर उखड़ी सांसों को नियंत्रित करने का प्रयास करने लगी. किसी तरह स्वयं को संयत कर मनस्वी ने काग़ज़-क़लम उठाई और मां-पिताजी को पत्र लिखने बैठ गई-
पूज्य मां-पिताजी,
चरण स्पर्श!
मैं यहां पर बहुत ख़ुश हूं. सब कुछ मनचाहा-सा प्राप्त हो गया है. बस एक अभिलाषा शेष है कि मेरे आदर्शवादी ससुराल में मैं कभी भी कमतर ना आंकी जाऊं! आपको स्मरण होगा आपने कहा था कि आप लोग अपनी चल-अचल संपत्ति की वसीयत मेरे व अविनाश के नाम कर निश्‍चिंत हो जाना चाहते हैं. भगवान की दया से यहां सुख-वैभव में कहीं कोई कमी नहीं है. अतः मेरी इच्छा है कि आप अपनी सारी धन-संपत्ति चेरीटेबल ट्रस्ट को दान करने के लिए वकील से अपनी वसीयत बनवा दें तथा समाज-सेवार्थ दिए गए इस योगदान की ख़ुशख़बरी यथाशीघ्र बाबूजी व अविनाश को पत्र द्वारा पहुंचा दें, ताकि मैं भी ससुराल में गर्व से सर ऊंचा रख सकूं व बतला सकूं कि मैं भी ऐसी माता-पिता की संतान हूं जो आदर्शवाद में किसी से कम नहीं हैं,
शेष कुशल!

आपकी,
मनस्वी

मां को पत्र डालकर मनस्वी थोड़ा हल्का महसूस कर रही थी. भावनात्मक रूप से छल करने वालों को मैं कभी माफ़ नहीं कर सकती… सोचती थी कि शिक्षा मनुष्य की सोच को लचीला बनाती है, शिक्षित मनुष्य के विचारों का दायरा व्यापक हो जाता है, परंतु ग़लत थी मैं… आज का मनुष्य तो पहले से ज़्यादा चालाक हो गया है. अपने असली वीभत्स मिज़ाज को, अपनी भौतिकवादी लालसाओं को बड़ी होशियारी से झूठे आध्यात्मिक, आदर्शवाद जैसे मुखौटों के पीछे छिपाकर समाज में झूठी मान-प्रतिष्ठा कैसे बटोरनी चाहिए, यह अच्छी तरह सीख गया है.
मेरा मोहभंग तो हो ही गया, पर अब इन झूठे-मक्कार ढोंगियों को मैं असली आदर्शवाद का जामा पहना कर ही रहूंगी. मनस्वी मन-ही-मन ठान चुकी थी. ह़फ़्तेभर में ही मनस्वी के पिताजी का पत्र पहुंचा.
पूज्य समधीजी,
नमस्कार!
आपसे रिश्ता जोड़कर समाज में हमारी प्रतिष्ठा में भी चार चांद लग गए हैं. आपका ध्येय ‘सादा जीवन उच्च विचार’ वास्तव में अनुकरणीय है. आपके घर में बेटी देकर हम धन्य हुए. आपके विचारों से प्रेरित होकर हम भी आपके आदर्शवाद के साथ जुड़ना चाहते हैं. अतः हमने अपनी सारी चल-अचल संपत्ति एक चेरिटेबल ट्रस्ट को दान कर दी है. यह मकान भी तब तक हमारा रहेगा जब तक हम दोनों जीवित हैं, तत्पश्‍चात् यह मकान और सामान भी ट्रस्ट के अधिकार में चला जाएगा. आशा है, समाज-सेवार्थ किया गया यह कार्य आपकी प्रतिष्ठा में भी कुछ योगदान दे पाएगा.

आपका शुभाकांक्षी,
रमाकांत

पत्र पढ़ते ही बाबूजी को तो जैसे सांप सूंघ गया. अविनाश को पत्र थमा कर बाबूजी हारे हुए जुआरी की तरह सोफे में धंस गए. अविनाश भी पत्र पढ़कर खिसियाकर रह गए. सास-ससुर ने असली आदर्शवाद का जामा जो पहना दिया था.

स्निग्धा श्रीवास्तव

अधिक कहानी/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां पर क्लिक करें – SHORT STORIES
Usha Gupta

Share
Published by
Usha Gupta

Recent Posts

घर के कामकाज, ज़िम्मेदारियों और एडजस्टमेंट से क्यों कतराती है युवा पीढ़ी? (Why does the younger generation shy away from household chores, responsibilities and adjustments?)

माना ज़माना तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ रहा है, लेकिन उससे भी कहीं ज़्यादा तेज़ी…

April 9, 2025

कंगना राहत नसलेल्या घराचे वीज बिल तब्बल १ लाख, अभिनेत्रीचा मनाली सरकारला टोला (९ Kangana Ranaut stunned by 1 lakh electricity bill for Manali home Where She Dosent Stay )

बॉलिवूड अभिनेत्री कंगना राणौतने नुकतीच हिमाचल प्रदेशातील मंडी येथे एका राजकीय कार्यक्रमात हजेरी लावली. जिथे…

April 9, 2025

अमृतफळ आंबा (Amritpal Mango)

आंबा हे फळ भारतातच नव्हे, तर जगभरातही इतर फळांपेक्षा आवडतं फळ आहे, असं म्हटल्यास वावगं…

April 9, 2025

उच्‍च एलडीएल कोलेस्‍ट्रॉलमुळे भारतात हृदयसंबंधित आजारांचे प्रमाण वाढत आहे ( Heart disease rates are increasing in India due to high LDL cholesterol)

भारतात परिस्थिती बदलत आहे, जेथे असंसर्गजन्य आजार प्राथमिक आरोग्‍य धोका म्‍हणून उदयास येत आहेत, तर…

April 9, 2025

कहानी- ढलान (Short Story- Dhalaan)

वर के पिता ताया जी को ठोकर मार कर तेजी से विवाह वेदी तक आए…

April 9, 2025
© Merisaheli