नई अध्यापिका रितु आज फिर देरी से आई थी. हस्ताक्षर के लिए मेरे कमरे में घुसते ही वह सफ़ाई देना शुरू हो गई थी.
“मैम क्या करूं? अकेली हूं. घर-बाहर सब…”
मैंने उसे बीच में ही टोक दिया था.‘
“आप नई हैं, इसलिए शायद अभी इस स्कूल के नियम-कायदे नहीं जानतीं. घर-परिवार की बातें करने की यहां बिल्कुल मनाही है.” मेरे सख्त रवैये से वह एकदम सकपका गई थी.
“जी! मैं यहीं स्कूल के आसपास कमरा ढूंढ़ रही हूं, ताकि समय पर पहुंच सकूं.” वह जल्दी-जल्दी हस्ताक्षर कर जाने लगी, तो मैंने कुछ सोचकर उसे फिर रोक दिया.
“छुट्टी के बाद मिलकर जाना.”
वह स्वीकृति में सिर हिलाकर चली गई, तो मैं आगामी रूपरेखा बनाने लगी.
मेरे वन बीएचके फ्लैट के लिए यह उपयुक्त किराएदार रहेगी. स्कूल के पास भी है. खाली फर्निश्ड फ्लैट की अच्छी देखभाल भी हो जाएगी. मुझे तो यहां परिसर में सुसज्जित प्राचार्य आवास मिला ही हुआ है. रितु पर अपनी सख्ती की बात याद कर थोड़ी शर्मिंदगी भी महसूस हुई. पर क्या करूं? ज़िंदगी में दो-दो बार धोखा खा लेेने के बाद घर-परिवार आदि से विश्वास उठ सा गया है.
पहली बार पति बेवफ़ा निकला, तो दूसरी बार क़िस्मत जिसने एक दुर्घटना में पति को पागलखाने पहुंचा दिया. जीवन के इस पड़ाव पर अब वैवाहिक जीवन की साध तो नहीं रही. पर मातृत्व सुख के लिए दिल कई बार मचल उठता है. कोई मेरे घाव न कुरेद डाले, इसलिए मैंने स्टाफ को काम और घर-परिवार को अलग-अलग रखने की सख्त हिदायत दे रखी थी.
छुट्टी के बाद रितु डरते-डरते मेरे पास आई, तो मैंने उसे अपने इरादे से अवगत करा दिया. वह बच्चों की तरह किलक उठी, “मैम, आपने तो मेरी समस्या चुटकियों में हल कर डाली. लोग ऐसे ही आपको हिटलर और जाने क्या-क्या पुकारते हैं!” वह अपनी ही धुन में बोल तो गई, पर फिर तुरंत जीभ काट ली. उसकी बचकानी हरकत पर मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई.
“जानती हूं, खैर यह चाबी ले जाओ और मकान देख आओ.” जैसी कि मुझे उम्मीद थी रितु को मकान पहली ही नज़र में पसंद आ गया था. उसने झटपट शिफ्ट भी कर लिया. अपने स्वभाव के अनुरूप मैं अब भी उससे काम की बात ही करती थी. उसके शिफ्ट होने के बाद तो मैंने फ्लैट की तरफ़ झांका भी नहीं. रितु बंधा-बंधाया किराया मेरे अकांउट में जमा करा देती थी. इधर कुछ दिनों से वह आकस्मिक अवकाश ज़्यादा लेने लगी थी. कभी तबियत ख़राब होने के नाम पर आधी छुट्टी भी ले लेती थी. फिर मैंने उसके पेट में हल्का उभार महसूस किया, जिसे वह बड़ी सफ़ाई से दुपट्टे या शॉल में छुपा लेती थी.
तो क्या वह विवाहित है? पर उसने तो कहा था अकेली हूं. अच्छा, यहां अकेली रहती होगी. पति की नौकरी और कहीं होगी. उत्सुकता के बावजूद अपने ही उसूलों के कारण मैं उससे या किसी ओैर से इस बारे में पूछताछ भी नहीं कर सकती थी.
मेरा शक सही था कुछ महीनों बाद ही वह लंबी छुट्टी पर चली गई. और लौटी तो उभार गायब था. शायद ख़ुद ही मां बनने की मिठाई खिला दे सोचकर मैं शांत बनी रही. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. वह एकदम सामान्य थी मानो कुछ हुआ ही न हो. साल बीतते न बीतते मुझे फिर उसके गर्भवती होने का शक हुआ. और इस बार भी कुछ महीनों बाद वह लंबी छुट्टी पर चली गई.
उसे छुट्टियों की परवाह नहीं थी. सवैतनिक अवकाश ख़त्म हो जाने पर वह अवैतनिक अवकाश लेने में भी संकोच नहीं करती थी. इस बार भी वह भरा-भरा शरीर लेकर लौटी. मानो प्रसूति के बाद ख़ूब सेहत बनाकर लौटी हो. चुपके-चुपके शायद उसने अपने सहकर्मियों को पार्टी भी दी हो. पर मैं जानती थी कि मेरे स्वभाव को भलीभांति जानने वाले मेरे सामने ऐसी कोई बात नहीं करेंगे, पार्टी में बुलाना तो दूर की बात थी.
दिवाली पर मैंने अपने फ्लैट का रंग-रोगन करवाया, तो भुगतान के पूर्व एक बार जाकर देख आने की ज़रूरत महसूस हुई. इस बहाने शायद रितु के बच्चों आदि से मिलने की ख़्वाहिश भी मन में थी. पर यहां भी निराशा ही हाथ लगी.
घर में बच्चे तो क्या उनका कोई चिह्न तक नहीं था. न कपड़े, न खिलौने. ज़रूर अपनी नानी-दादी के पास रहते होंगेे, पर कोई तस्वीर तो हो. ठेकेदार के संग खड़े-खड़े ही मैं पूरे घर का निरीक्षण कर आई. रितु ने औपचारिकतावश चाय के लिए अवश्य पूछा, पर मुझे रोककर बिठाने, बतियाने में उसकी कोई दिलचस्पी नज़र नहीं आई.
अपने कठोर व्यवहार के कारण मैंने ख़ुद ही तो अपने को सबसे काट रखा था. इसलिए किसी से कोई अपेक्षा रखने का हक़ भी मुझे नहीं था. आश्चर्य तो तब हुआ, जब रितु ने आकर मुझे बताया कि महीने भर बाद वह मकान खाली करने वाली है.
“आप चाहें तो दूसरा किराएदार देख लें, नहीं तो मैं लाऊं. हमारे स्टाफ के ही एक-दो सदस्य तैयार हैं.”
“हो जाएगा, कोई बड़ी समस्या नहीं है, पर तुम कहां जा रही हो?”
रितु ने झिझकते हुए अपना शादी का कार्ड पकड़ा दिया, तो मैं आश्चर्यचकित हो गई.
“मैं अब अपने होने वाले पति के शहर में ही नौकरी खोज लूंगी. आप शादी में ज़रूर आइएगा. मुझे बहुत ख़ुशी होगी.”
रितु तो टेबल पर कार्ड रखकर चली गई. लेेकिन मैं देर तक प्रश्नों के भंवरजाल में ही उलझी रही. क्या रितु दूसरी शादी कर रही है? बच्चे किसके पास रहेंगे? पहलेे पति का क्या हुआ?
अपने निरंकुश एकाकी स्वभाव पर आज मुझे ग़ुस्सा आ रहा था. किसी से आगे बढ़कर पूछ भी नहीं सकती. शादी तो दूसरे शहर में थी, जिसमें मैं सम्मिलित नहीं हुई. पर अपने ही शहर में उसने सहकर्मियों और दोस्तों को जो छोटी सी पार्टी दी, उसमें मैं शामिल हुई.
सुदर्शन, गरिमामय व्यक्तित्व वाले अपने पति के पास नववधू के श्रृंगार में खड़ी रितु बहुत प्यारी लग रही थी. उनके घर-परिवारवालों के अतिशय उत्साह को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लग रहा था कि यह उनकी या उनमें से किसी की भी दूसरी शादी है. सब तरफ़ नज़रें दौड़ाने के बाद भी मुझे दोनों छोटे बच्चों का भी कोई चिह्न नज़र नहीं आया. रितु ने अपनी मां से मिलवाया.
“पापा ने तो नया-नया बिज़नेस शुरू किया है. इसलिए आ नहीं पाए. आप मां से मिलिए. मां, ये मेरी प्रिंसिपल! जिनके मकान में हम रह रहे हैं. और जिन्होंने हमेशा मेरी मदद की है.”
उसकी मां गौर से मुझे देख रही थी.
“तुम प्रज्ञा हो? निर्मला की छोटी बहन?”
मैं अचकचा गई थी. उन्हें गौर से देखने पर ख़ुशी के मारे मेरी भी चीख निकल गई, “विनीता दीदी?”
उन्होंने आगे ब़ढ़कर मुझे बांहों में भर लिया. वे मेरी दीदी की सबसे अच्छी सहेली थीं. वे निर्मला दीदी का हालचाल पूछने लगीं. इससे पहले कि वे मेरे बारे में जानकारी लें मैंने उन्हें अगले दिन लंच के लिए आमंत्रित कर लिया. साथ में नवविवाहित वर-वधू को तो आमंत्रित करना ही था.
अगले दिन स्कूल की छुट्टी भी थी, तो दीदी से ख़ूब गपशप का मूड था. अब विनीता दीदी से तो रितु के वैवाहिक जीवन की असलियत जानकर ही रहूंगी. भले ही इसके लिए मुझे उनके सामने अपने अतीत के पन्ने खोलने पड़ें. मैंने सोच लिया था.
अगले दिन लंच चल ही रहा था कि रितू के मोबाइल पर कॉल आ गया. सामान पैक करने वाले घर पर उनका इंतज़ार कर रहे थे. दोनोें जल्दी-जल्दी खाना खाकर निकल गए.
“मां, आप बाद में आ जाना. मैम के साथ आराम से पुरानी यादें ताज़ा कर लो.”
दोनों निकल गए, तो मैंने इत्मीनान की सांस ली. चलो, अब तो और खुलकर पूछताछ की जा सकती है.
कॉफी के कप लेकर हम दोनों बरामदे में आ बैठीं.
“रितु काफ़ी ख़ुश नज़र आ रही है. विवेक काफ़ी सुलझे विचारों वाला युवक लगता है.” मैंने बातचीत शुरू की.
“अरे बहुत समझदार है, वरना मैंने तो रितु की शादी की उम्मीद ही छोड़ दी थी.”
“हां, दूसरी शादी मुश्किल तो है ही. वो भी जब पहले वाली से दो-दो बच्चे हों.” मैंने सहानुभूति दर्शाई.
“दूसरी? तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हुई है. रितु की तो पहली बार शादी हो रही है.”
“और बच्चे?”
“वे उसके नहीं थे. रितु उनकी सेरोगेट मदर मात्र थी.”
मुझे चक्कर आने लगे थे. किसी तरह मैंने ख़ुद को संभाला.
“पर रितु को यह सब करने की क्या ज़रूरत थी?”
“अब क्या बताऊं? रितु हमारी इकलौती संतान है. हम लोेग उसकी शादी की सोच ही रहे थे कि उसके पापा को बिज़नेस में ज़बरदस्त घाटा हो गया. हम लोग एक तरह से सड़क पर ही आ गए थे. रितु ने तुरंत यह नौकरी जॉइन कर ली और हमें धीरज बंधाने लगी कि पापा का बिज़नेस शुरू करने के लिए वह जल्द ही पैसों का इंतज़ाम करेगी. इस बीच उसने किसी पत्रिका में सरोगेसी का विज्ञापन देख लिया. और उन संपन्न निसंतान दंपति के लिए बच्चा पैदा करने का ़फैसला कर लिया.”
“तो आपको पहले से सब कुछ मालूम था?”
“नहीं. मालूम होता तो हम रोक न लेते. वह तो बच्चा पैदा कर सौंप देने के बाद हासिल मोटी रकम जब उसने हमें भेजी, तो हम चौंके. पर उसने सफ़ाई दी कि उसको बैंक से लोन मिल गया है और उसकी दयालु प्रिंसिपल मैम ने भी उसकी काफ़ी मदद की है. वह तो उन्हीं के घर में रहती भी है.
नई नौकरी के बहाने वह काफ़ी समय से हमसे मिलने भी नहीं आई थी. तो हमने उसकी बातों पर भरोसा कर लिया. पर दूसरी बार में मुझे शक हो गया था. कड़ी पूछताछ करने पर उसने सच्चाई उगल दी थी. हम दोनों ही अपना आपा खो बैठे थे. उसे कुलच्छणी, असंस्कारी जाने क्या-क्या कह डाला था.” विनीता दीदी की आंखें उन पलों को याद कर भर आई थीं. मैंने हौले से उनका हाथ सहला दिया. तो उनमें आगे बयां करने का हौसला आ गया.
“रितु सारे आक्षेप सुनती रही. फिर धीरे से पूछा, “आप संस्कारी किसे मानती हैं? जो हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनुसार व्यवहार करे. वही ना! और हमारी सभ्यता और संस्कृति क्या है? क्या वही जो आप रोज़ रामायण और गीता में पढ़ती हैं?” मैं प्रश्नवाचक निगाहों से उसे ताक रही थी कि उसने अगला प्रश्न उछाल दिया.
“आपकी नज़रों में कुंती जिसके अलग-अलग पुरुषों से कर्ण और पांडवों सहित छह पुत्र थे, वह संस्कारी थी. आपकी नज़रों में द्रौपदी जिसके पांच पति थे, वह संस्कारी थी. तो फिर मैं असंस्कारी क्यों?”
“कुंती ने अलग-अलग इष्ट देव की आराधना करके अलग-अलग पराक्रम वाले पुत्र पैदा किए. उसके पीछे वासना नहीं एक अच्छा ध्येय छुपा था.” मैंने टोका था.
“तो आपको क्या लगता है मैंने यह सब वासना के वशीभूत होकर किया? मैंने अपने डिंब में 9 माह तक एक भ्रूण को क्या वासना के कारण रखा? संतान के लिए तड़पते एक निसंतान दंपति को माता-पिता बनने का गौरव दिलवाना क्या अच्छा ध्येय नहीं था? उनसे प्राप्त रकम से पापा का बिज़नेस शुरू करवाना क्या अच्छा ध्येय नहीं था? मां कुंती के अनजाने में दिए एक आदेश से द्रौपदी 5 पुरुषों में बंट गई. लेकिन मैंने द्रौपदी के लिए कहीं असंस्कारी या अपवित्र शब्द नहीं सुना.”
“वे परिस्थितियां अलग थीं बेटी. आज वह सब न संभव है न व्यावहारिक.” उसके पापा ने भी उसे समझाने का प्रयास किया था.
‘मैं जानती हूं पापा इतिहास न तो अक्षरश: दोहराने के लिए है और न ही पूर्णत: बिसराने के लिए इतिहास तो अक्षम पति की पत्नी को ‘नियोग’ द्वारा गर्भवती होने की इजाज़त भी देता है. पर आज समाज वैज्ञानिक रूप से ही इतना सक्षम हो गया है कि उसे इतनी वैचारिक उदारता की आवश्यकता ही नहीं रही. सरोगेसी, स्पर्म डोनेशन, टेस्ट ट्यूब बेबी, एग फ्रीजिंग जैसे ढेरों विकल्प मौजूद हैं. बदलते समाज में बदलते प्रतिमानों को अपनाना व्यावहारिक बनने का सबूत है न कि असंस्कारी होने का.”
“तो फिर हमसे यह सब छुपाया क्यों?”
‘क्योंकि मुझे डर था कि आप मुझे इमोशनली ब्लैकमेल कर कमज़ोर बना देगें. और ऐसा करने से रोक देगेें. आपकी अवहेलना करने का मेरा कोई इरादा नहीं था.”
“लेकिन बेटी अब तुझसे शादी कौन करेगा? हमें इस बात को दबाकर रखना होगा.” मैंने कातर स्वर में कहा था.
“मैं कुंती वाली ग़लती नहीं दोहराऊंगी मां. जिसने बात को दबाए रखकर अनजाने में ही भाई को भाइयों के विरूद्ध खड़ा कर दिया था. मुझसे शादी करने वाले शख़्स को मुझे मेरी सच्चाई के साथ स्वीकारना होगा.” रितु ने दृढ़ता से कहा था.
“लेकिन बेटी ऐसा शख़्स मिलना बहुत मुश्किल है.” हमने समझाया था. पर रितु अड़ी रही.
“तो क्या विवेक रितु की सच्चाई जानता है?” मैंने अपनी उत्सुक निगाहें विनीता दीदी पर टिका दी थीं.
“न केवल जानता है, बल्कि उस सच्चाई का सम्मान भी करता है. वह ख़ुद स्पर्म डोनेट करके कुछ निसंतान दंपतियों को संतान सुख दिलवा चुका है.”
“वाह!” मैंने मन ही मन उस प्रगतिशील, खुली सोच वाले युगल को सलाम किया. जिसने मुझे मातृत्व सुख उठाने की नई राह सुझा दी थी.
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