Short Stories

कहानी- अन्नपूर्णा (Short Story- Annpurna)

पहली बार नारी की महानता और नर की संकीर्ण मनोवृत्ति का बोध हुआ था. शोभा के पिता ने उसके साथ कुछ भी किया, लेकिन उसके लिए वे आज भी सम्माननीय हैं. उसे आज भी उम्मीद है कि वे सुधर जाएंगे. वह न केवल एक अच्छी बेटी, वरन् एक अच्छी बहन का फ़र्ज़ भी निभा रही है. और तनु, मेरी कमज़ोरियों से वाकिफ़ होते हुए भी उन्हें उजागर करने की बजाय छुपाकर समाज में मेरा मान-सम्मान बनाए हुए है.

 


हल्की-सी आहट हुई और मेरी आंख खुल गई. मुझे लगा, खिड़की पर कोई है. झांककर देखा तो अंधेरे में एक मानवाकृति तेज़ क़दमों से दूर जाती दिखाई दी. चाल-ढाल से कोई युवती लग रही थी.
‘रात गए यह युवती मेरे कमरे में क्या ताक-झांक कर रही थी?’ चौकीदार को आवाज़ लगाने की सोची, पर फिर रुक गया.
‘व्यर्थ मेरी ही बदनामी होगी. हो सकता है, वह मुझ पर ही कोई लांछन लगा दे. इन गंवार लोगों का क्या भरोसा?… मेरा क्या है, कल काम ख़त्म करके निकल जाऊंगा.’ सोचकर मैं सोने का उपक्रम करने लगा, पर सो नहीं पाया.

अगले दिन सरकारी मुआयने का काम ख़त्म कर रवाना होना चाहा, तो गांव के पोस्ट मास्टर साहब आ गए. उनके संग एक नवयुवती भी थी. औपचारिक अभिवादन के बाद वे मूल विषय पर आ गए.

“यह शोभा, आपसे मिलना चाहती है.”

“क… किस सिलसिले में?” मैं अचकचा गया. युवती बेहद ख़ूबसूरत और आकर्षक थी. मैं चाहकर भी नज़रें नहीं हटा पा रहा था.

“आपको याद नहीं साब? पिछली बार आप पंचायत चुनाव के व़क़्त आए थे और तीन दिन यहीं डाक बंगले में रुके थे. तब इसी ने आपकी सेवा-टहल की थी.”

‘ओह, तो यह वो है.’ मैंने सोचा.

“दरअसल उस समय इसका गौना हुआ ही था. यह हर व़क़्त आपके सामने घूंघट काढ़े रहती थी. इसलिए आप पहचान नहीं पाए.”

मुझे याद आया. पिछली बार मैंने इस नवयौवना की एक झलक पाने का कितना प्रयास किया था, पर नाक़ामयाब रहा था. उसने मेरी हर सुख-सुविधा का ख़याल रखा था, खाना बनाने से लेकर कपड़े धोने तक. पर न कभी बात की और न कभी चेहरा दिखा.

“अभी कोई दो महीने पहले ब्याह हुआ और दो दिन बाद ही पति चल बसा.”

“अरे… वो कैसे?” मैंने चौंककर पूछा.

“पियक्कड़ था हुजूर! गाड़ी के नीचे आ गया. ख़ैर होना था सो हो गया. अब यह यहां नहीं रहना चाहती. शहर जाकर छोटा-मोटा काम करके ज़िंदगी गुज़ारना चाहती है. ज़्यादा पढ़ी-लिखी तो है नहीं. आपको कहते संकोच कर रही थी. मैंने कहा, मैं कह दूंगा. आप इसे अपने संग शहर ले जाइए और इसके लायक कुछ जुगाड़ कर दीजिए.”

“मैं कैसे अपने संग ले जा सकता हूं?” मेरे सामने अपनी बीवी का चेहरा घूम गया. “मैं प्रयास करूंगा. यदि कुछ हो पाया तो बुला लूंगा.”

मेरे सूखे आश्‍वासन से युवती का चेहरा बुझ गया. पोस्ट मास्टर साहब उसे समझाते-बुझाते ले गए. बला टली, सोचकर मैंने चैन की सांस ली.

मैं गांव की सीमा से बाहर निकल ही रहा था कि वही युवती शोभा जाने कहां से भागती हुई आई और रुकने का इशारा करने लगी. मैंने जीप रुकवाई और रुखाई से पूछा, “अब क्या है?”

वह डर गई. पर साहस जुटाकर बोली, “आपसे अकेले में बात करनी है.”

मेरी स्थिति अजीब-सी हो गई थी. पर मैं जीप से उतरकर सड़क के किनारे हो लिया.

“मैं अब इस गांव में एक पल भी नहीं रह सकती. मेरा बापू नशेड़ी है. दिन भर पीकर पड़ा रहता है. नशे की झोंक में ही उसने मेरा रिश्ता उस नशेड़ी से तय किया था. वह तो मर गया, पर अब गांव के आवारा लड़के मेरे पीछे पड़े रहते हैं. न दिन में चैन है, न रात में. बापू को होश नहीं रहता. मां पहले ही गुज़र चुकी. भाई बहुत छोटा है. यहां घुट-घुटकर जीने से तो अच्छा है कि कहीं डूब मरूं. कहीं काम नहीं मिलेगा, तब तक आपके यहां झाड़ू-बर्तन कर लूंगी. आप संग नहीं ले गए तो मैं यहीं उस कुएं में कूद जाऊंगी.” वह भाई को समझाकर कपड़े वगैरह लेकर आई थी. उसकी धमकी से मैं सिहर गया.

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डरते-डरते उसे लेकर घर में प्रवेश किया. तनु को सारी कहानी बताई, तो ‘अबला ही जाने अबला का दर्द’ की तर्ज़ पर उसने शोभा को हाथोंहाथ लिया. शोभा ने भी जल्दी ही घर का कामकाज संभाल लिया. लेकिन उसके रहते मैं अपने ही घर में अजनबी-सा महसूस करने लगा था. हर व़क़्त सज-संवरकर भले मानुस बने रहना अखरने लगा था.

मन में डर लगा रहता कि उसका यौवन और सौंदर्य कहीं मुझे भटका न दे. जाने क्यों यह छोटी-सी बात तनु समझ नहीं पा रही कि आग और घी को इस तरह पास-पास छोड़ना ख़तरे का आगाज़ करना है. लेकिन मानो उन दोनों को मुझ पर अटूट विश्‍वास था, जो मुझे गर्व की बजाय झुंझलाहट से भर देता. क्यों मेरे आत्मसंयम की परीक्षा लेने पर तुली हैं ये दोनों? नहीं कर सकता मैं यह सदाचारी होने का ढोंग. न चाहते हुए भी जाने क्या देखने की चाहत में नज़रें चुपके से उसका पीछा करतीं.

उस दिन तो मेरी सहनशक्ति हद पार कर गई, जब पड़ोसी सुरेंद्रकांत ने बातों ही बातों में मुझे छेड़ दिया, “अब तो भाभीजी को महीने-दो महीने के लिए पीहर भेज दो. अरे द़िक़्क़त क्या है? पीछे है तो सही संभालने वाली, बल्कि ज़्यादा अच्छे से संभाल लेगी. ही-ही…” करते हुए ऐसे व्यंग्यपूर्ण अश्‍लील तरी़के से उसने दांत निपोरे कि मेरा ख़ून खौल उठा.

घर में घुसते ही मैं तनु पर दहाड़ उठा, “तनु, आज और इसी व़क़्त तुमने उस शोभा का कहीं और इंतज़ाम नहीं किया, तो मैं कल ही उसे उसके गांव पटक आऊंगा. मैंने कोई खैराती सरायखाना नहीं खोल रखा है.”

शोभा उस व़क़्त बाज़ार गई हुई थी, जिसका मुझे आभास था. इसलिए मेरी आवाज़ में और भी जोश आ गया था.

“पर वो बेचारी…” तनु ने हल्का-सा प्रतिरोध किया.

“कोई बेचारी-वेचारी नहीं. सहानुभूति दिखाकर कुछ दिन रख लिया, बस! कल को लोग उल्टी-सीधी बातें करें, मुझे ये सब बर्दाश्त नहीं.” फ़रमान जारी कर मैं तीर की तरह घर से निकल गया.

शाम को धड़कते दिल से घर में प्रवेश किया. कहीं तनु ने उसे सब कुछ ज्यूं का त्यूं उगलकर रवाना न कर दिया हो. यदि ऐसा किया होगा, तो मेरी क्या छवि रह जाएगी उसके दिल में? या शायद कुछ कहा ही न हो, और अभी हमेशा की तरह वह चाय का कप लेकर हाज़िर हो जाए मेरे सामने. पर वह नहीं आई. उसकी जगह मेरी बारह वर्षीया बेटी नीलू चाय लेकर आई.

“अरे, तुम आज खेलने नहीं गई?”

“नहीं. मां ने अब से खेलना बंद करवा दिया है. उनका हाथ बंटाना है घर के कामों में. शोभा मौसी जो चली गई हैं. अभी तो शाम का खाना भी बनाना है.” उसने मुंह फुलाते हुए कहा.

“अरे, पर…” मैंने कुछ कहना चाहा, लेकिन रसोई से तनु को आते देख अपने होंठ काट लिए. मैं किसी भी रूप में यह नहीं दर्शाना चाहता था कि मुझे शोभा के जाने की कोई परवाह है. हालांकि मन ही मन मैं यह जानने के लिए मरा जा रहा था कि वह कहां गई और तनु ने उसे क्या कहकर भेजा? घर में सब मानो मेरे धैर्य की परीक्षा लेने पर उतर आए थे, क्योंकि शोभा का कोई नाम भी नहीं लेता था, मानो इस नाम का कोई प्राणी इस घर में कभी आया ही न हो.

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बरसों पुरानी बात है यह. पर आज भी ज़ेहन में ऐसे ताज़ा है, मानो कल की ही बात हो. तब मैं पुरुषोचित दंभ का शिकार था, लेकिन अब मुझे लगता है कि पुरुष सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिशाली होने का आडंबर मात्र रचते हैं, जबकि स्त्रियां हमारी रग-रग पहचानते हुए भी हमारे इस आडंबर को बनाए रखती हैं, क्योंकि वे हमें हमारी ही नज़रों में गिरा हुआ नहीं देख सकतीं. अपने इस प्रयास में वे हम पुरुषों से बहुत ऊंचा उठ जाती हैं.

इस सत्य का पहली बार एहसास मुझे तब हुआ, जब तनु नीलू को लेकर अपने पीहर किसी शादी में गई हुई थी. मैं ऐसे मौक़ों पर अगली गली में स्थित एक मेस में खाना खाया करता था. उस दिन भी मैं वहीं चला गया था. वहां नौकरों को निर्देश देती शोभा को देख मैं अचंभे में पड़ गया. मैंने चुपचाप मुड़कर लौटना चाहा, लेकिन उसने मुझे देख लिया.

“अरे आइए न साहब. खाना खाए बिना कैसे जा रहे हैं? ऐ मदन, पहले इधर टेबल साफ़ कर, गरमा-गरम थाली लगा.”

“तुम यहां कैसे?”

“आपको तनु दीदी ने बताया नहीं? वे ही तो मुझे यहां रखवा गई थीं. कहा, यहां अच्छी पगार मिलेगी. पहले मैं यहां खाना बनाती थी. फिर यहां के मालिक को मेरा काम पसंद आया तो उन्होंने मुझे पूरी मेस की देखभाल की ज़िम्मेदारी सौंप दी. मालकिन बहुत बीमार रहती हैं और बाबूजी को और भी बहुत से काम हैं, तो मेस मैं ही संभालती हूं.”

“गांव में तुम्हारा भाई और बापू… नहीं, ऐसे ही पूछ रहा था. कुछ दिनों बाद शायद उधर जाऊंगा, कुछ काम हो तो बता देना.” मैंने बड़प्पन जताने की कोशिश की.

“गांव में अब कोई नहीं है. भाई को मैंने यहीं स्कूल में डलवा दिया है. मैं तो ज़्यादा पढ़ नहीं पाई, पर अब उसकी ज़िंदगी बन जाए, तो अच्छा हो. बापू को भी यहीं एक नशामुक्ति केंद्र में डाला है. कोशिश तो कर रही हूं उनकी लत छूट जाए. आगे भगवान की मर्ज़ी है.”

मैं चुपचाप खाना खाकर लौट आया. दिल में शोभा के साथ-साथ तनु की इ़ज़्ज़त भी बहुत बढ़ गई थी. पहली बार नारी की महानता और नर की संकीर्ण मनोवृत्ति का बोध हुआ था. शोभा के पिता ने उसके साथ कुछ भी किया, लेकिन उसके लिए वे आज भी सम्माननीय हैं. उसे आज भी उम्मीद है कि वे सुधर जाएंगे. वह न केवल एक अच्छी बेटी, वरन् एक अच्छी बहन का फ़र्ज़ भी निभा रही है. और तनु, मेरी कमज़ोरियों से वाकिफ़ होते हुए भी उन्हें उजागर करने की बजाय छुपाकर समाज में मेरा मान-सम्मान बनाए हुए है.

उम्र बढ़ने के साथ-साथ नारी मेरे लिए और भी श्रद्धेय होती गई. मैं शायद एक शोभा के आकलन से ही संपूर्ण नारी जाति का आकलन करने लगा था. अपनी मालकिन की बीमारी से मौत के बाद जब अधेड़ मालिक ने शोभा के सम्मुख अपनी बिखरती गृहस्थी को सहेजने का प्रस्ताव रखा तो एहसानों के बोझ तले दबी शोभा ने अठारह साल के बेटे की सौतेली मां बनना भी स्वीकार कर लिया और कहना न होगा कि अपने सद्व्यवहार से उसने विद्रोही बेटे को भी अपना बना लिया. आज वह मां का राजदुलारा है.

अपने पुरुषोचित दंभ का खोल मुझे अब खोखला प्रतीत होने लगा था. लेकिन जब भी मैं इससे बाहर आकर सहजता से लोगों में शोभा की तारीफ़ करता, तो वे मेरी ही खिल्ली उड़ाने लगते. उनके अनुसार, मैं व्यर्थ ही नारी का महिमामंडन कर रहा हूं. ये सब करना तो एक नारी का कर्त्तव्य है.

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लोगों की नज़रों में किसी नारी का ये सब करना एक आम बात है और शोभा भी एक आम स्त्री मात्र है. लेकिन मुझे ये सब असाधारण लगते. नवविवाहिता से नखरे उठाए बिना ही गृहस्थी का बोझ उठा लेना, गोंद-मेवे के लड्डू खाए बिना ही मां की महती ज़िम्मेदारियां अपने कंधों पर ले लेना- ये क्या आम बातें हैं? तनु के स्वर्गवास के बाद मां की तरह नीलू की देखभाल करना और कन्यादान का धर्म तक निभाना- क्या यह भी आम बात है? एक पुरुष यदि ये सब कुछ करता तो अब तक ‘महापुरुष’ बन गया होता, लेकिन वो तो ठहरी साधारण नारी! नारी का असाधारण काम भी साधारण है.

ख़ैर, साठ बरस का होने चला हूं. लोग ठीक कहते हैं कि अब मैं सठियाने लगा हूं. दो दिनों से खाना बनाने वाली बाई नहीं आ रही. ख़ुद ही पका रहा हूं. लेकिन आज सवेरे से ही बदन में हरारत-सी लग रही थी, शाम होते-होते बुखार चढ़ आया. सवेरे से एक ग्लास दूध के अलावा पेट में कुछ भी नहीं गया था. खाली पेट दवा कैसे लूं? यह सोचकर मेस वाले लड़के मदन को टिफ़िन भेजने के लिए फ़ोन कर दिया. एक पुस्तक पढ़ते-पढ़ते जाने कब आंख लग गई. चूड़ी और पायल की खनखनाहट से आंख खुली.

“अरे शोभा, तुम… अ…आप!” इतने बड़े सेठ की बीवी को अब ‘तुम’ कहना उचित नहीं लगता था, इसलिए मैं अक्सर ‘तुम’ और ‘आप’ में गड़बड़ा जाता था.

“नहीं, ‘तुम’ ही ठीक है. मदन ने बताया कि आपको तेज़ बुखार है. चलो उठो, खाना खा लो.”

“रख दो, बाद में खा लूंगा.”

नीलू की विदाई के बाद वह पहली बार घर आई थी. खाली घर में उसकी उपस्थिति मुझे संकोच में डाल रही थी. शायद मैं अब भी पुरुष-स्त्री संबंधों की सीमा-रेखा पर ही झूल रहा था.

“यह टिफ़िन का खाना नहीं है. मैं घर की रसोई से गरम खिचड़ी और पालक बनाकर लाई हूं. आपको खिलाए बिना नहीं लौटूंगी.”

उसने मुझे जबरन बिठा दिया और खाना परोस दिया. संकोच तो हो रहा था, पर उसका यह अधिकार भाव मुझे अच्छा लग रहा था. मैंने चम्मच उठाया ही था कि बत्ती चली गई.

मेरा दिमाग़ फिर उल्टी दिशा में घूमने लगा. अंधेरे में लोग इसे मेरे घर से निकलते देखेंगे तो क्या सोचेंगे? मोमबत्ती की लौ आंखों पर पड़ी तो चेतना लौटी.

“आप फिर रुक गए? लो, अब तो मैं मोमबत्ती भी ले आई. खा लीजिए.” वह मुझे  पंखा झलने लगी. मेरे पास चुपचाप कौर निगलने के अलावा अब कहने-सुनने को कुछ शेष नहीं रहा था. मुझे खाते देख उसके चेहरे पर असीम तृप्ति के भाव आ गए थे. मोमबत्ती की हल्की रोशनी में वह स्त्री मुझे साक्षात् देवी अन्नपूर्णा का रूप लग रही थी.               

– अनिल माथुर

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Usha Gupta

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