मैं दीपशिखा हूं- जलती हुई बाती, जो पल-पल क्षीण होती जा रही है- बुझने को तैयार. कहीं मेरी कहानी अपनी अनुगूंज छोड़े बिना मेरे साथ ही दफ़न न हो जाए. इससे पहले मन की घुटन, अंतर्द्वद के द्वार खोल देना चाहती है. मैं जानती हूं- लोग मेरी कहानी सुनकर घृणा करेंगे. वितृष्णा होगी उन्हें मुझसे, क्योंकि मां की ममता पर मैंने अपने सुख-स्वार्थ की मोहर लगा दी थी. प्रहार किया था ममत्व पर.
वक़्त अधिक नहीं बीता है. मैं अपनी मां की बुद्धिमान गुणवती, सुंदर बेटी. उनकी आज्ञा मान राकेश के साथ कनाडा चली आई थी. अपनी बहुत प्यारी सी जीवंत वस्तु को सदा-सदा के लिए त्याग कर. हां, वह मेरे लिए ‘वस्तु’ मात्र थी. शायद इसी कारण…
जिंदगी भावनाओं के सहारे नहीं कटती. किसी मज़बूत संबल की आवश्यकता होती ही है, जो पुरुष में सदियों से मान्य है. तभी तो नारी पुरुष के पीछे-पीछे चलते रहने को, उसकी इच्छाओं के आगे समर्पित रही है.
चौबीस वर्ष की उम्र में घटित मेरे अकाल वैधव्य की मां को चिंता थी. वह सोचती थी कि इतनी कम उम्र में मैं कैसे सांसारिक जीवन के बिना हमसफ़र के चल सकूंगी.
उनका तर्क था कि क्यों में अपनी २ वर्ष की मासूम बच्ची के लिए अपना भविष्य अंधकारमय करूं. राकेश मेरे वैधव्य का दाग़ दूर करना चाहता था. मां तो अपनी ममता में अंधी थी. उन्होंने कहा था, “जीवन का कष्टप्रद, संघर्षमय सफ़र केवल कोरी भावनाओं के सहारे नहीं कटता, थोड़ा व्यावहारिक बनना पड़ता है. दीपा, तू अपनी पहाड़ सी ज़िंदगी इस बच्ची के सहारे कैसे काट सकती है. अभी तूने दुनिया में देखा ही क्या है.”
और वे मेरी गुडडी की ज़िम्मेदारी स्वयं वहन करने को सहर्ष तैयार हो गयी थीं. फिर अपनी बेटी का भविष्य अधर में… ओह… मैं कितनी स्वार्थी ख़ुदग़र्ज़ मां निकली. अपनी बेटी की मासूम उमंगों को, नन्हीं नन्हीं अंकुरित होती प्यार की बेल को बेरहमी से नोंच, अपने बढ़ते कदमों तले उसका सब कुछ रौंद कर चली आई मैं, प्यारी गुड्डी अपेक्षित प्यार की उसकी जन्मदायी ने ही बलि चढ़ा दी. एक कली जी खिली भी नहीं थी, जिसकी मादक महक से संभवतः सारा गुलशन महक सकता था, उस पुष्पकली को असमय जंगलों में छोड़ आई. अपनी नई ज़िंदगी की डगर पर बढ़ चली थी तीसरी बार.
पीछे के तमाम निशान एक बार में ही रगड़-रगड़ कर पोंछने चाहे, पर क्या इतना आसान होता है मन-मस्तिष्क से अतीत के अमिट चिह्न व स्मृतियों को मिटा सकना. नहीं, मैं मात्र भुला दिए जाने का ढोंग करती रही हूं. और किसी को नहीं अपने आप को ही धोखा दे रही हूं. मैं ही क्या, कोई और भी इतनी सहजता से अपना मधुर मोहक अतीत नहीं भुला सकता. फिर में कैसे उस नन्हें अस्तित्व को भूला दूं? मां हर बार कहती है कि भूल जा दीपशिखा, भूल जाने में ही तेरा भला है. लेकिन कैसे संभव है यह सब.
मैं इतनी निष्ठुर नहीं, अपनी भोली-सी प्यारी गुड्डी को कैसे भूल सकती हूं. वही तो मेरे मातृत्व की पहली निशानी है. दुर्भाग्य ने उसके पिता से जुदा कर दिया. मां के प्यार से ही सब कर लेती, परंतु वह भी उसकी नानी को रास न आया. अपनी बेटी के प्यार में अंधी हो नन्हीं बेटी को मां से अलग कर दिया. राकेश की तो शर्त ही यही थी कि उसे गुड्डी स्वीकार नहीं थी. बस, इतनी बड़ी दुनिया में गुड्डी अकेली रह गयी, टूटी हुई गुमसुम… गुड्डी मुझे भुला पाएगी? नहीं, कभी नहीं, क्योंकि मां ने उसके बाल मस्तिष्क में अनजाने में यह बात अच्छी तरह भर दी है कि उसकी मां बहुत दूर दूसरे देश में पढ़ने गयी है, वह लौट कर आएंगी, पर बहुत दिनों बाद जब तुम बहुत बड़ी हो जाओगी. इन्हीं निरर्थक बातों से वह रोती हुई नन्हीं गुड्डी को बहलाती सुलाती चली आ रही हैं. अपनी नन्हीं कल्पनाओं में उसने मुझे अभी तक जीवित रखा हुआ है. उसे पूर्ण विश्वास है कि उसकी मां पढ़ाई ख़त्म करके अवश्य लौटेगी और उसे गोद में उठाकर चूम लेगी. कितने बड़े भ्रम की शिकार हो गयी है मेरी बेटी, जब उसे पता चलेगा अपनी मां के स्वार्थ का कि वह दूसरे देश में पढ़ने नहीं, अपनी ज़िंदगी के अकेलेपन से घबराकर उसे छोड़ गई है. अपने नए हमसफ़र राकेश की कठोर शर्त स्वीकार बेटी को सदा-सदा के लिए छोड़ नयी धरती पर बस गयी है, कभी न लौटने के लिए. उसे नहीं पता कि उसकी मां कभी वापस नहीं आएगी, उसे कभी गोद में नहीं उठाएगी, कभी उसे प्यार नहीं करेगी और न अब कभी उसकी नन्हीं-नन्हीं उंगलियां पकड़ कर चलना सिखाएगी. अब तो अपना सफ़र उसे ख़ुद चलकर तय करना पड़ेगा. सब कुछ अपने जाप सीखना होगा. उसे तमाम जिदगी मां-बाप की छत्रछाया से हटकर काटनी पड़ेगी या फिर टूटी हुई थकी वृद्धा नानी मां के सहारे…
जब तक नानी मां है, तब तक तो क़रीब-क़रीब ठीक चल सकता है, लेकिन उसके बाद..? बहुत बड़ा उभरता प्रश्नचिह्न कभी नहीं सोचा था मैंने इस शून्य के आगे. पर आज सोचती हूं तो तड़प जाती हूं.
रूठी ममता कचोटती है- गुडडी का जीवन कैसे कटेगा. मां आजकल बीमार चल रही हैं, उनके पत्रों से पता चला.
मेरी ज़िंदगी बहाव पर चल रही थी. कहीं कोई उतार-चढ़ाव नहीं. सब सामान्य शांत सा. कभी-कभी इस शांत जल में मां के ख़त स्पंदन ज़रूर पैदा कर देते हैं. मुझे मेरे अतीत से फिर जोड़ देते हैं. मां को मैं मना भी नहीं करना चाहती, क्योंकि मैं स्वयं चाहती हूं कि मां वहां की सब बातें लिखती रहें. उनकी चिट्ठी की इबारत में मैं कुछ खोजती हूं. कोई शब्द, कोई गंध, जो मेरी गुड्डी की हो. उसके बारे में हो. भले ही मां के ख़त को पाकर मैं कितने ही दिन अशांत रहूं, पर बहुत अच्छा लगता है पीछे लौटना.
यहां आकर इस धरती पर मैं फिर एक बार मां बनी. राकेश की बेटी की. मैंने अपनी दूसरी बेटी का नाम गुड़िया रख लिया.
गुड्डी और गुड़िया दोनों मेरी बेटियां हैं. दोनों को मैंने जन्म दिया, दोनों मेरी सगी बेटियां हैं, फिर भी मेरे प्यार मां के मातृत्व की सिर्फ़ एक ही हक़दार है. आख़िर ये भिन्नता क्यों कर?
मां हर वर्ष गुड्डी का फोटो भेजती है. हर माह भेजे पत्र में उसके नटखटपन का ज़िक्र होता. लेकिन अब की बार भेजे ख़त के साथ गुड्डी की फोटो में उसके मासूम चेहरे पर उदासी की गहरी पर्त स्पष्ट झलक रही थी. तो क्या गुड्डी मां के पास ख़ुश नहीं?
भले ही गुड्डी को बेहद प्यार करने वाली नानी मिली, लेकिन ममता का एक कोना अभी तक खाली पड़ा होगा. मेरी प्रतीक्षा में क्या गुड्डी नानी के प्यार की अधिकता से उकता नहीं जाती होगी?
“कितनी शांत व गंभीर हो गयी है. कभी बाल सुलभ हठ करके मुझे परेशान भी नहीं करती. तू तो बचपन में बहुत परेशान किया करती थी. गुड्डी तो चुपचाप सारा कहा मान लेती है. कभी कोई चीज़ लेने की ज़िद नहीं करती. एक बलून तक नहीं मांगती, जो दे दो, उसी में ख़ुश हो जाती है. बहुत समझदार हो गयी है तेरी गुड्डी.” यह सब कुछ मां के पत्र में लिखा था. ‘तेरी गुड्डी’ यानी आज तक गुड्डी परायी है, मां ने उसे अपनाया नहीं है. उसे ‘अपनी गुड्डी’ का संबोधन नहीं दिया. मां उसे ‘मेरी गुड्डी’ समझकर पाल रही है और मैं उसे मां की झोली में डाल ‘उनकी गुड्डी’ समझती रही. बेचारी गुड्डी दोनों पाटों के बीच बंटकर रह गई, किसी की भी नहीं बन सकी.
आजकल न जाने क्यों मन गुडडी के लिए बेहद तड़पने लगा है. यह मेरा अपराबोध ही तो है. लगता है, कहीं मेरे अवचेतन-मन में अपने सुख की दबी आकांक्षा अवश्य रही होगी, जिसे मैं मां की ओट ले छिपा गयी और सुख की खातिर अपने लहू को दगा दे दिया. एक मां ने बेटी के लिए बुढ़ापे में भी इतना कष्ट सहन किया, और दूसरी मां ने अपनी बेटी की तनिक भी परवाह नहीं की. अपना जीवन संवारने के लिए उसकी कोमल उमंगों को रसहीन, नीरस बना दिया. उसकी बगिया को कांटों से पाट दिया. मां की यह धारणा ग़लत रही कि समय के साथ-साथ मैं अतीत को भूल जाऊंगी. वक़्त बहुत बड़ा मरहम है. हर गहरे घाव को भरने की क्षमता रखता है.
मैं ज्यों-ज्यों वक़्त के साथ आगे बढ़ने को कदम बढ़ाती हूं, गुड्डी का ख़त मुझे पीछे खींच लेता है. उसके दिल से उभरती नन्हीं सी आवाज़ मेरे मन को गहरे तक मर्माहत कर देती है. “मां… लौट आ…” कह रही हो मानो, पीछे से आती ‘मां’ ‘मां’ की अनुगूंज मुझे बेचैन किए रहती है. बढ़ते कदम ठिठक जाते हैं, सोते-सोते चौंक जाती हूं. स्वप्न देखती हूं कि मैं अधर में खड़ी हूं बादलों के बीच मेरी एक बांह गुड्डी ने थाम रखी है और दूसरी गुड़िया ने पकड़ी हुई है.
दोनों अपनी-अपनी ओर पूरी शक्ति से मुझे खींच रही हैं. मैं बंट गयी हूं. अतीत और वर्तमान के बीच. केवल बाहर से ही नहीं भीतर तक…
यकायक महसूस हुआ कि गुड्डी ने कस कर मेरा हाथ दबाकर खींच लिया है. मैं तेज दर्द से चीख उठती हूं. गुड्डी को परे ढकेल देती हूं, तब ही ऐसा आभास हुआ गुड्डी ने अपनी तरफ़ की पकड़ ढीली कर दी. उसने मेरा हाथ छोड़ दिया. उसकी आंखें नम हैं, वह केवल टकटकी बांधे सजल नेत्रों से मुझे निहार रही है. अपनी पकड़ ढीली कर उसने मां को मुक्त कर दिया मानो…
मां के दुलार से वंचित और अतृप्त गुड्डी जब सब बच्चों को मांओं से जुड़ा देखती होगी, तब क्या-क्या सपने देख अपने को ढाढ़स बंधाती होगी? क्या साथ के बच्चों को शाम के समय पार्क में मां-बाप के साथ घूमने जाते देख उसे अपने साथ चलती वृद्ध नानी पर रोष न आता होगा?
नानी का लाख प्यार उसके हृदय से मां की याद को धूमिल नहीं कर पाया, वरना उसके हाथ से लिखे काग़ज़ पर शब्दों में वह मार्मिक गूंज न होती. उसके शब्द मेरा मर्म भेदकर आर-पार उतर गए, मेरी नज़र उन्हीं टूटे-बिखरे आकृति के अक्षरों पर अटककर रह गयी. लगा गुड्डी बहुत उदास है. वह गहरे समुद्र में डूब रही है, गले तक पानी चढ़ आया है. अपने प्राणों की रक्षा के लिए मुझे पुकार रही है.
अब की बार के पत्र के साथ, गुड्डी का टेढ़ी-मेढी भाषा में लिखा पत्र भी था. मां ने लिखा था ‘तेरी गुड्डी अब पढ़ने लगी है. वह लिखना भी सीख गयी है. सबसे पहले उसने ‘मां’ लिखना सीखा था.’
उस मुड़े हुए काग़ज़ पर बड़े-बड़े अनगढ़े मोती से अक्षर झिलमिला रहे हैं. मुझे एक-एक अक्षर में गुड्डी के घाव, उसकी बड़ी-बड़ी पनीली आंखें और उसमें तैरता-सा कुछ दिख रहा है.
मानो पूछ रही हो, “मां मेरी खता क्या है?..
उसके पत्र को चुम लेती हूं… ‘तुझे कैसे पाऊं मेरी बेटी… मजबूरी और विवशता से बंधी हूं.’ मेरी आंखों के खारे पानी ने बेटी का ख़त धो दिया. ख़त के कई अक्षर धुंधले हो फैल गए. स्याही घुल गयी. पर अतीत की तरह कुछ अक्षर अब भी पहचानने योग्य हैं. कितने बड़े-बड़े शब्दों में लिख डाली है गुड्डी ने अपने दिल की आवाज़, मानो अंतर चीर कर खून से लिखे हैं यह शब्द, “मां… अब घर चल…… खट पट-मत कर घर आ-मां-घर आ घर में मां है…”
बस एक बार… मुझे मेरी गुड्डी पुकार रही है- एक बार कुछ पल के लिए ही कोई तो मेरी गुड्डी को मेरी गोद में डाल दे. कोई तो पल भर को मां की ममता को, उसकी तड़प को समझ सके. बहुत विष पिया है मैंने आज तक, अब ज़ख़्म बहुत गहरा हो गया है- एकदम असहनीय. एक भूल की चुभन इतनी अधिक होगी, कभी नहीं सोचा था. एक बार, बस एक बार, गुजरा वक़्त कोई मुझे वापस लौटा दे बस एक बार.
– उमा शर्मा
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES
अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का गिफ्ट वाउचर.
ऑस्कर पुरस्कार विजेते संगीतकार ए आर रहमान यांच्या वैयक्तिक आयुष्यातून एक धक्कादायक बातमी समोर येत…
kinky and raw sex may be good to ignite the carnal fire between two individuals,…
ऑस्कर अवॉर्ड विजेता संगीतकार एआर रहमान (AR Rahman) की पर्सनल लाइफ से एक शॉकिंग न्यूज…
ये धड़कनें भी अजीब हैंकभी-कभी बेवजह धड़कती हैंसांस लेने के लिएदिल पूछता हैजब तुम नहीं…
राजेश मां की बातें सुन कर आश्चर्य एवं आक्रोश से कह उठा, "मां, कई वर्षो…
स्वरा भास्कर (Swara Bhaskar) अपनी फिल्मों को लेकर कम और विवादों को लेकर ज्यादा सुर्खियों…