कहानी- भाभी को याद कर लेना (Short Story- Bhabhi Ko Yaad Kar Lena)

भाभी की सहनशीलता को आप लोग उनकी कमज़ोरी मत समझिए. रिश्तों को बचाने की ज़िम्मेदारी स़िर्फ उन्हीं पर नहीं है. पत्नी एक बंधन मात्र नहीं होती, वो तो ईश्‍वर, समाज, कुटुंब और माता-पिता के आशीर्वाद से पति और परिवार को जोड़ कर रखनेवाली सेतु है, जिसके मानसिक रूप से टूटते ही सब कुछ टूटकर बिखर जाता है.

कपड़े फैलाते-फैलाते ही सुजाता ने समय का अनुमान लगाया. सूरज सिर के ऊपर आ गया है, बारह तो बज ही रहे होंगे. रविवार का दिन बस कहने भर को छुट्टी का दिन होता है. उस दिन तो व्यस्तता और भी बढ़ जाती है. नहाते-धोते एक बजना ही था. तभी उसे अपनी सास शांति देवी और मुदिता के ज़ोर-ज़ोर से बातें करने की आवाज़ें सुनाई दीं.

ज़रूर आज मुदिता फिर से अपनी सास से लड़कर चली आई होगी. मुदिता उसकी छोटी ननद है, जिसका ससुराल इसी शहर में है. जब भी उसकी अपने ससुरालवालों से किसी बात पर कहा-सुनी होती है, हाथ में सूटकेस उठाए अपने मायके चली आती है. घर में सबसे छोटी और सब की लाडली होने के कारण लड़कर आने पर भी उसके ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतों के लिए उसे समझाने के बदले शान्ति देवी बढ़-चढ़कर मुदिता के ससुरालवालों में ढेरों नुक्स निकालतीं और उन्हें कोसती रहतीं.

फिर लड़ाई का दूसरा अध्याय शुरू होता. मुदिता के पति राहुल को दूसरे दिन बुलवाया जाता और छोटी-छोटी बातों पर, जो हर घर में सामान्य रूप से घटित होती हैं, उनके लिए उससे देर तक सवाल-जवाब किया जाता. राहुल के अपने घर का रहन-सहन उसके आधुनिक ससुराल की अपेक्षा काफ़ी साधारण था, इसलिए वह थोड़ा अपने ससुरालवालों से वैसे भी दबता था और चुपचाप सारी बातें सहन कर मुदिता को वापस अपने साथ ले जाता.

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जल्दी से स्नान कर सुजाता रसोई की तरफ़ लपकी, तभी शांति देवी की नज़र

उस पर पड़ गई. सुजाता को सुनाकर तेज़ आवाज़ में वे बोलीं, “लो, महारानी

के पूरे तीन घंटे का राज स्नान समाप्त हुआ. न जाने कौन-से उबटन मले जा

रहे थे कि घर में तूफ़ान आ जाए, पर इन्हें होश ही नहीं रहता.”

हालांकि उसकी सास अच्छी तरह जानती थीं कि रविवार को ह़फ़्ते भर का ढेर सारा जमा कपड़ा सुजाता को धोना पड़ता था, फिर भी बेटी की भड़ास निकाल रही थीं.

वैसे भी काफ़ी देर हो गई थी, इसलिए सुजाता चावल बनाने के लिए पानी चढ़ा, डब्बे से दाल निकालने लगी, तभी रसोईघर के दरवाज़े पर खड़े सुधीर की सख़्त आवाज़ ने उसे सहमा दिया.

“सुबह से घर में बैठी जाने कौन-सा पहाड़ तोड़ती रहती हो कि कोई आए या जाए- स्वागत-सत्कार करना तो दूर की बात है, तुम्हें तो मिलने तक की ़फुर्सत नहीं मिलती. कोई मरे या जीए, तुम्हें क्या है. हर समय अपना ही सुख तलाशती रहती हो.”

“एक बजने जा रहा था, इसलिए मैंने सोचा पहले चावल ही चढ़ा दूं, क्योंकि अम्माजी ठीक एक बजे खाना खा लेती हैं, फिर इत्मीनान से मुदिता से बातें करूंगी.” सुजाता के जवाब पर सुधीर के ताने शुरू हो गए, “बहुत एहसान है आपका कि छुट्टी के दिन भी एक बजे तक खाना तैयार हो जाएगा. घर में कुल जमा चार जन ही हैं, जिसमें सौम्या को अम्मा ही सम्भालती है, फिर भी दिखाओगी कि दिनभर काम ही करती रहती हो.”

सुधीर जैसे आया था, वैसे ही बड़बड़ाते हुए चला गया. वह भी चावल-दाल चूल्हे पर चढ़ा पीछे-पीछे ड्रॉइंगरूम में आ गई, जहां सो़फे पर मुदिता बैठी आंसू बहा रही थी. वहीं बगल में उसकी सास बैठी मुदिता के ससुरालवालों के बारे में जली-कटी कह रही थीं. जैसे ही उनकी नज़र सुजाता पर गई, एक कुटिलतापूर्ण मुस्कान उनके चेहरे पर लक्षित हो उठी.

“एक हमारे घर की बहू है, जो इस घर में बैठी हर वह सुख भोग रही है, जिसकी कभी उसने अपने पिता के घर में कल्पना भी नहीं की होगी और एक हमारे घर की बेटी है, जो जाने किस जनम का पाप भोग रही है. कितना भी अपने ससुरालवालों के लिए करे, उनका मुंह फुला ही रहता है. कितना दिया था हम लोगों ने अपनी बेटी के विवाह में. बहू के परिवारवालों की तरह हाथ हिलाते नहीं भेज दिया था, फिर भी हमारी बेटी एक दिन भी चैन से नहीं रह पाती है.”

सुजाता बात का रुख पलटने के लिए मुदिता से बोली, “चाय पियोगी? वैसे खाना  भी तैयार हो ही चला है.” सुधीर बीच में ही बोले, “बहुत जल्दी चाय की याद आ गई? यह भी नहीं सोचा कि यह कोई चाय पीने का समय है. पूछ लिया बड़ी मेहरबानी की. अब जाओ, जाकर खाना लगाओ. कब से हम सब भूखे बैठे हैं.”

सुधीर की बातों से सुजाता का सारा प्रेम, सारी सेवाएं और सारी विनम्रता धरी की धरी रह गई और वह उठकर फिर से रसोईघर में चली गई.

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इधर उसकी सास का रोना शुरू हो गया, “हमारी तो क़िस्मत ही खोटी है. बहू मिली तो वह भी किसी ढंग की नहीं, दामाद मिला तो वह भी वैसा ही है. हमेशा अपनी मां के पल्लू से ही बंधा रहता है.”

पति की ख़ुदगर्ज़ी और सास का अन्यायपूर्ण रवैया सुजाता को डंक-सा चुभ रहा था, फिर भी सारे तिरस्कार और दंश को समेट वह सामान्य होने की कोशिश करती काम में जुटी रही.

हर बार की तरह फ़ोन करके राहुल को बुलवाया गया, पर इस बार राहुल ने आने से साफ़ इन्कार कर दिया. उसका कहना था, मुदिता स्वयं ही घर छोड़कर गई है, तो स्वयं ही लौटकर आए. बहुत दबाव डालने पर भी वह किसी भी क़ीमत पर मुदिता को लेने आने को तैयार नहीं हुआ. सुधीर ने सभी हथकंडे अपनाए, पुलिस की धमकियां भी देता रहा, लेकिन मुदिता के पति और ससुरालवाले अपनी ज़िद्द पर अड़े रहे. दोनों पक्षों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं हुआ.

सुजाता अपनी सास और सुधीर को, ज़िद छोड़ समझौता की सलाह देना चाहती थी, लेकिन वह यह भी अच्छी तरह जानती थी कि उसके बोलने का घरवालों पर कोई असर नहीं होगा. उसकी सास ने उस घर में कभी उसके ससुर की तो चलने ही नहीं दी, फिर उसकी क्या बिसात थी. हर एक बात का ़फैसला शांति देवी ही करती आई थीं.

बच्चे भी मां के नक्शे-क़दम पर चलते हुए कुछ ़ज़्यादा ही उद्दंड और स्वार्थी हो गए थे. मुदिता भी अपने ससुराल में मां की तरह सब कुछ अपनी मुट्ठी में करने के लिए हमेशा अपनी सास, ननद और पति से उलझती रहती. छोटी-छोटी बातों में भी फ़ोन पर मां से सलाह लेती और उनके निर्देशानुसार घर चलाने की कोशिश करती. वह जब कभी ज़रा-सा भी बीमार हो जाती, तुरन्त मां को टेलीफ़ोन कर देती और उसकी मां आनन-फानन में पहुंच कर मुदिता को अपने साथ घर ले आती. मुदिता के व्यवहार और घर में  मां की दख़लअंदाज़ी से मुदिता का घर टूटने लगा था.

सास और पत्नी की हरकतों से राहुल बुरी तरह खीझ जाता. अपनी सास की ज़रूरत से ़ज़्यादा दख़लअंदाज़ी उसे बिल्कुल पसंद नहीं थी. वह मुदिता को समझाने की कोशिश करता तो मुदिता अपना सूटकेस उठाए मायके पहुंच जाती. हर बार किसी न किसी तरह समझौता हो ही जाता. लेकिन इस बार दोनों परिवार अपनी-अपनी बात मनवाने के लिए कटिबद्ध थे. यही कारण था कि बात तलाक़ तक पहुंच गई. घर में इस बात को लेकर हर समय तनाव की स्थिति बनी रहती. घर के लोगों का बढ़ता तनाव ग़ुस्से के रूप में सुजाता पर बरसता.

सुधीर का व्यवहार भी अपनी पत्नी के प्रति थोड़ा ज़्यादा ही निर्मम और रूखा हो गया था. हर छोटी-बड़ी बात के लिए वह अपनी पत्नी को ही दोषी ठहरा प्रताड़ित करता. ग़ुस्सैल तो वह पहले से ही था, बढ़ती परेशानी ने उसे निष्ठुर और अमानवीय भी बना दिया था.

एक दिन दाल में नमक तेज़ हो जाने पर सुधीर इतना क्रोधित हो गया कि सुजाता को ग़ुस्से के मारे इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह सीधे दीवार से जा टकराई और उसके सिर पर गहरी चोट लग गई.

सुजाता दुखी मन से अपने कमरे में चली गई. सिर पर लगे चोट से ़ज़्यादा मन पर लगा प्रहार उसे बेचैन कर रहा था. रोते-रोते कब आंख लग गई, पता ही नहीं चला. तभी अपने सिर के ऊपर उसे किसी के हाथों का कोमल स्पर्श महसूस हुआ. उसकी

नज़र सामने बैठी मुदिता पर गई. जाने कब से आकर बैठी थी, उसे आभास तक नहीं हुआ.  मुदिता धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगी. बरबस मिली सहानुभूति से उसकी आंखें भर आईं.

मुदिता ने ही चुप्पी तोड़ी, “एक बात पूछूं भाभी? पहले जब मेरी शादी नहीं हुई थी तो बिना सोचे-समझे, मैं भी आपको जाने क्या-क्या बोल दिया करती थी. पर अब सोचती हूं, इतना सब कुछ आप कैसे सहन कर लेती हैं? क्या आपको कभी ग़ुस्सा होकर घर छोड़ने का मन नहीं होता?”

“ख़ुशी-ख़ुशी कोई नहीं चाहता इस तरह की तिरस्कृत ज़िंदगी जीना. सच कहूं तो कभी-कभी मेरा मन भी ख़ुशियों की तलाश में भटकने लगता है. दिल चाहता है सब कुछ छोड़ ज़िंदगी नए सिरे से शुरू करूं, पर क्या इतना आसान है सब कुछ? विरले को ही ज़िंदगी ऐसे अवसर देती है, वरना ज़िन्दगी तो हर क़दम पर ख़ुद ही एक चुनौती है. कहीं न कहीं तो इस चुनौती को स्वीकारना ही पड़ता है.

तुम्हारे भैया क्रोधी स्वभाव के हैं. परेशानियां उन्हें कभी-कभी उदं्दड और निर्मम भी बना देती हैं. फिर भी जब इस तरह का क्रोधी, दबंग, उद्दंड और स़िर्फ अपना ही वर्चस्व स्थापित करनेवाला व्यक्ति पति के रूप में मिल जाए, तो उसका एकमात्र उपाय उसे छोड़कर भाग जाना या अपनी ज़िंदगी नए सिरे से शुरू करना नहीं होता है. मेरे हिसाब से ऐसी परिस्थिति में जीवन की इस चुनौती को स्वीकार करना और परिस्थितियों को अपने अनुकूल ढालने की कोशिश करना  ही सही रास्ता है.

वैसे भी पुरुष होते ही अहंवादी हैं.  उनके दिल में स्वयं की अवधारणा इतनी व्यापक होती है कि पत्नी का स्वयं उसमें समा ही जाता है. जहां तक तुम्हारे भैया का सवाल है, उनका विवेक भले ही कुछ समय के लिए खो जाता है, पर उनके अंदर की इंसानियत अभी ज़िंदा है. उन्हें अपने किए का एहसास रहता है. मेरे साथ दुर्व्यवहार करने के बाद कई दिनों तक तो मुझसे नज़रें नहीं मिला पाते हैं. मेरे बीमार पड़ने पर मेरी देखभाल भी करते हैं. उनके क्रोध को मैंने बहुत कुछ साध लिया है और मुझे पूर्ण विश्‍वास है कि उन्हें जल्द ही अपनी ग़लतियों का एहसास दिला सही रास्ते पर ले आऊंगी. बस, ईश्‍वर से यही प्रार्थना है कि मेरे मन की दृढ़ता कायम रहे.

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 यह ज़रूरी नहीं कि हर जगह पति ही दोषी हो. आज का यह सबसे बड़ा सत्य है कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र होती नारियों का स्वाभिमान, अभिमान के हद को पार कर रहा है. यही अभिमान छिन्न-भिन्न कर रहा है उसकी सहनशीलता को. छोटी-छोटी बातों को सम्मान का विषय बनाकर घर टूटने लगा है. इस टूटते परिवार की सारी त्रासदी बच्चों को झेलनी पड़ रही है. सच पूछो तो औरत बरगद की वो छांव है, जहां बच्चे ही नहीं, घर के बुज़ुर्ग भी चैन और सुकून की सांस लेते हैं. इसलिए ही शायद प्रकृति ने नारी को इतना सहिष्णु और दिलो-दिमाग़ से अत्यधिक कोमल बनाया है, ताकि रिश्तों की भावना को दिल से महसूस कर वह उसे टूटने से बचा सके. विपरीत परिस्थितियों में नारी अपने अंदर छुपी अदम्य साहस और सहनशीलता से अपने घर का तिनका-तिनका जोड़ उसे बिखरने से बचा लेती है.

कौन नहीं चाहता कि उसे सुंदर, समझदार और प्यार करनेवाला जीवनसाथी मिले, लेकिन जीवन में सब कुछ वही नहीं मिलता जैसा कि हम चाहते हैं. अगर अनचाहा मिले तो उसे अपने अनुरूप

ढालने की कोशिश करना ही समझदारी है, न कि सब कुछ छोड़कर भाग जाने में. कहां-कहां और किन-किन कठिनाइयों से हम भागते रहेंगे?

मेरी मानो तो मुदिता, तुम अपने सारे मान-अभिमान को भुला अपने ससुराल लौट जाओ. स़िर्फ एक बार पूरी ईमानदारी और धीरज से ससुराल के लोगों के साथ सामंजस्य बैठा जीने की कोशिश करो. सब ठीक हो जाएगा. मुझे लगता है कि वे लोग इतने बुरे भी नहीं हैं. फिर भी अगर कभी अपने परिवार को समेटने में तुम्हारा धैर्य छूटने लगे तो अपनी भाभी को याद कर लेना. याद कर लेना उसके संघर्षों को, जो पिछले पांच वर्षों से वह तुम्हारे मायके को अपनाने के लिए कर रही है.”

दूसरे ही दिन बिना किसी को कुछ बताए मुदिता घर से गायब थी. घर के लोगों को लगा सुबह-सुबह मंदिर गई है. देर होने पर सब को चिंता होने लगी. तभी मुदिता का फ़ोन आ गया कि वह अपने ससुराल चली आई है और यहां हर तरह से ठीक है. किसी को भी उसके लिए परेशान होने की ज़रूरत नहीं है.

एक ह़फ़्ते बाद मुदिता अपने पति के साथ सबसे मिलने मायके आई. दोनों ही काफ़ी ख़ुश नज़र आ रहे थे. आते ही राहुल ने अपनी सास और सुधीर से माफ़ी मांगी और सीधे दोनों सुजाता के कमरे में आ गए. कमरे में आते ही मुदिता सुजाता से लिपट गई. “भाभी… आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूं. आपने मेरा घर टूटने से बचा लिया. आप नहीं होतीं तो ज़िंदगी में न जाने मैं कितने कष्ट झेलती, इसका मुझे ख़ुद भी अंदाज़ा नहीं.”

खाने की टेबल पर मुदिता अपनी मां से बोली, “मां… आज से आप मेरी कोई चिंता नहीं करेंगी. मैं अपना घर अपने हिसाब से चलाऊंगी. अगर आपको किसी की चिंता करनी है तो भाभी की कीजिए. तभी इस घर में भी सच्ची शांति आएगी. अगर आप लोगों का निष्ठुर व्यवहार सहते-सहते कहीं भाभी टूट गई तो यह घर पूरी तरह उजड़ जाएगा.

मेरी सास से तो आप आशा रखती हैं कि वह आपकी बेटी को अपनी बेटी समझें, आपकी बेटी के अधिकार को समझें, तो फिर इन्हीं सब बातों से आप भाभी को क्यूं वंचित रखती हैं?

भैया से भी मैं यही चाहूंगी कि जितनी नसीहतें आप राहुल को देते हैं, वे सारी की सारी नसीहतें ख़ुद आपको भी याद रखनी चाहिए. भाभी की सहनशीलता को आप लोग उनकी कमज़ोरी मत समझिए. रिश्तों को बचाने की ज़िम्मेदारी स़िर्फ उन्हीं पर नहीं है. पत्नी एक बंधन मात्र नहीं होती, वो तो ईश्‍वर, समाज, कुटुंब और माता-पिता के आशीर्वाद से पति और परिवार को जोड़ कर रखनेवाली सेतु है, जिसके मानसिक रूप से टूटते ही सब कुछ टूटकर बिखर जाता है.”

थोड़ी देर के लिए खाने के टेबल पर नि:शब्द शांति छा गई, मानो सभी के अंदर विचारों का मंथन चल रहा हो.

मुदिता के ससुराल जाते ही सुधीर सुजाता को डॉक्टर के पास ले जाने की ज़िद करने लगा. सुजाता के बार-बार मना करने पर वह मानने को तैयार नहीं था. तभी शांति देवी बोलीं, “अगर बहू डॉक्टर के पास नहीं जाना चाहती तो उसे कहीं दूसरी जगह घुमा ला. मैं आज खाना ख़ुद ही बनाऊंगी और हां, सौम्या भी मेरे पास ही रहेगी.”

सुजाता को आज पहली बार लगा कि लोग ठीक ही कहते हैं, अगर पूरी लगन और निष्ठा से कोई काम को पूरा करने के लिए ठान ले तो ज़िंदगी ज़रूर उसे एक मौक़ा देती है अपने काम को पूरा करने के लिए. बस, ज़रूरत होती है थोड़े धैर्य की.

रीता कुमारी

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