कहानी- भंवर (Short Story- Bhanwar)

“तुम्हारे और शशांक के बीच क्या चल रहा है..?” सीधे और सपाट शब्दों में शालिनी ने पूछा.
एक पल के लिए नेहा का चेहरा सफेद हो गया. उसे इस प्रश्‍न की उम्मीद नहीं थी. कुछ देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा, जो शायद तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी का संकेत था.
थूक निगलते हुए नेहा बोली, “मैं और शशांक एक-दूसरे से प्रेम करते हैं.”
“नहीं…” एक घुटी-सी चीख शालिनी के अधरों से निकल पड़ी. वह आशान्वित थी कि शायद नेहा इन्कार करेगी, पर उसकी स्वीकारोक्ति से वह थरथरा उठी, अन्धकारमय भविष्य की ओर बेटी के बढ़ते कदमों से उसका अन्तर्मन असीम वेदना से कराह उठा.

अनायास ही पुरानी स्मृतियों ने अंगड़ाई ली और शालिनी अपने विवाह का जोड़ा और तस्वीरें लेकर बैठ गई.
गहरी सांस लेते हुए वह सुर्ख साड़ी को धीरे-धीरे सहलाने लगी, कोमल एहसास अचानक ही चुभन में तब्दील हो गए. उसने झटके से साड़ी एक ओर रख दी और एलबम उठाकर पन्ने पलटने लगी. एक-एक तस्वीर बीते पलों को सजीव कर हृदय को कचोटने लगी थी. धुंधलाती निगाहों से जब और तस्वीरें दिखनी बंद हो गईं, तो उसने उन्हें भी एक ओर सरका दिया.
अपने कंधे पर जाने-पहचाने स्पर्श के एहसास से उसने पीछे मुड़कर देखा, नेहा थी, उसकी बेटी.
“मां, फिर वही सब… कितनी बार आपको कहा है, क्यों आप इन चीज़ों को खोलकर बैठ जाती हैं? जिन यादों से दिल दुखता है, क्यों आप उन्हें बार-बार कुरेदती हैं? क्यों नहीं इन्हें हमेशा के लिए दफ़न कर देतीं?”
“काश, इन्हें दफ़न करना इतना आसान होता.” कहकर शालिनी आंसू पोंछती हुई उठ खड़ी हुई.
सुबह उठकर शालिनी कॉलेज के लिए तैयार थी. आज उसे कुछ जल्दी पहुंचना था, वह इंटर कॉलेज में शिक्षिका थी और आज वार्षिक परीक्षा के संदर्भ में मीटिंग थी.
नेहा को कुछ हिदायतें देकर वह घर से निकल गई. नेहा अपनी पढ़ाई ख़त्म करने के बाद एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करने लगी थी और अब शालिनी को अपनी लाड़ली बेटी के लिए एक अच्छे जीवनसाथी की तलाश थी.
अपनी सहकर्मी मिसेज गुप्ता के कहने पर एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत रोहन से मिलकर वह काफ़ी प्रभावित हुई थी.
उसके माता-पिता से मिलने का निर्णय ले, वह कंपनी की बिल्डिंग से बाहर निकली ही थी कि उसकी नज़र सामने के रेस्टॉरेन्ट से निकले एक युगल पर पड़ी.
उसने ध्यान से देखा और अपने आप में ही बुदबुदाई, “ये तो नेहा है, पर उसके साथ… शशांक… हां शशांक ही तो है… नेहा के साथ काम करनेवाली, नेहा की सहेली मीनल का पति. पर ये दोनों एक साथ मीनल के बिना..!” वह कुछ और सोच पाती तब तक दोनों कार में बैठकर, उसकी नज़रों से ओझल हो चुके थे.
नेहा जिस अन्दाज़ से शशांक के साथ बैठी थी, उसे देख शालिनी के दिमाग़ में ढेरों प्रश्‍न कौंध गए थे. अचानक ही किसी अनहोनी की आशंका से उसका हृदय कांप उठा.
अपनी बेचैनी को नियंत्रित करते हुए उसने घर का दरवाज़ा खोला और बैग एक ओर पटक वह सोफे पर लुढ़क गई. उसे लगा जैसे किसी ने उसकी पूरी शक्ति निचोड़ ली है, शरीर बेजान प्रतीत होने लगा.
“तो क्या नेहा भी वही ग़लती करने जा रही है..? क्या शालिनी की कहानी एक बार फिर से शुरू हो जाएगी..?”
कब से भटक रही है वह, क्या मिल पाया है उसे? जो उसका था, वह भी खो दिया उसने सारे रिश्ते-नाते पलभर में बिखर गए. घृणा-नफ़रत, ज़िल्लत, बदनामी यही सब तो पाया था उसने, एक परछाईं के पीछे भागते हुए.
जब होश आया तो चेतना जागी और अपने क्षत-विक्षित अस्तित्व के साथ उसे अपना शहर, अपने लोग, दोस्त, परिचित सबको छोड़ मुंह छिपाना पड़ा था.
नेहा के कदमों की आहट से उसने ख़ुद को संभालने का प्रयत्न किया.
“मां, क्या हुआ… आप इस तरह क्यों लेटी हैं..?”
“तबीयत तो ठीक है आपकी.” क़रीब बैठ मां के माथे पर हाथ रखते हुए चिन्तित स्वर में नेहा बोली.
बदहवास होती दिल की धड़कनों को काबू करते हुए उसने नेहा से प्रश्‍न किया, “नेहा, मैं जो पूछूंगी सच बताओगी?”
“कैसी बात कर रही हैं मां…, आख़िर बात क्या है. आप इतनी परेशान क्यों हैं..?”

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“तुम्हारे और शशांक के बीच क्या चल रहा है..?” सीधे और सपाट शब्दों में शालिनी ने पूछा.
एक पल के लिए नेहा का चेहरा सफेद हो गया. उसे इस प्रश्‍न की उम्मीद नहीं थी. कुछ देर कमरे में सन्नाटा छाया रहा, जो शायद तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी का संकेत था.
थूक निगलते हुए नेहा बोली, “मैं और शशांक एक-दूसरे से प्रेम करते हैं.”
“नहीं…” एक घुटी-सी चीख शालिनी के अधरों से निकल पड़ी. वह आशान्वित थी कि शायद नेहा इन्कार करेगी, पर उसकी स्वीकारोक्ति से वह थरथरा उठी, अन्धकारमय भविष्य की ओर बेटी के बढ़ते कदमों से उसका अन्तर्मन असीम वेदना से कराह उठा.
“पर शशांक तो विवाहित है…” गहरी पीड़ा से भर वह बोली.
“मैं जानती हूं.” नेहा ने भावहीन स्वर के साथ संक्षिप्त-सा उत्तर दिया.
“क्या वह मीनल से संबंध-विच्छेद कर तुमसे विवाह करेगा?”
“नहीं, पर मुझे इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, मुझे तो बस उसका प्यार और साथ चाहिए.” शालिनी के सीने में घुमड़ते बवंडर से अन्जान नेहा ने बेतकल्लुफ़ी से स्पष्ट किया.
“प्यार और साथ ये तो वह मृग-मरीचिका है, जिस तक तुम कभी नहीं पहुंच पाओगी नेहा…” गहरी सांस भरते हुए शालिनी बोली, “जिस राह पर तुम्हारी मां चली, आज तुम भी उसी मुहाने पर खड़ी हो.”
“क्या…! ये आप क्या कह रही हैं…?” विस्फरित नेत्रों से नेहा शालिनी को देखती रह गयी.
“क्या पापा पहले से विवाहित थे…?” आश्‍चर्य से नेहा ने पूछा.
“हां.”
“क्या आप पहले इस सच से परिचित नहीं थीं.”
“जानती थी… पर उनके प्रेम में अंधी हो आग में हाथ जला बैठी थी.
हां, हाथ ही तो जला था मेरा, केमेस्ट्री लैब में एक्सपेरिमेन्ट करते समय, तब अमित, तुम्हारे पापा जो कि रिसर्च कर रहे थे, हमारे प्रैक्टिकल की क्लास लिया करते थे. उन्होंने ही थामा था उस समय मेरा हाथ. हाथ की जलन तो उन्होंने शान्त कर दी थी, पर जो आग मेरे हृदय में भड़क उठी थी, उसे नहीं बुझा पाए थे वो.
दिन-रात उनका ख़्याल मुझे बेचैन किए रहता. मैं उन्हें जितना परे झटकती उनका अक्स उतना ही क़रीब आ मुझे झिझोड़ जाता.
स्वयं को असहाय पा एक दिन उनके सामने मैंने अपने हृदय के उद्गार आवरणहीन कर दिए थे. विस्मय से देखते रहे थे वह मेरी ओर, फिर गम्भीरता से बोले, ये नहीं हो सकता, कभी नहीं, मैं विवाहित हूं.
गहरा आघात लगा था मुझे यह सुनकर, कुछ दिन मैं ख़ामोश रही. उनसे दूर-दूर रहने का असफल प्रयास भी किया, पर सब व्यर्थ. मेरा मन किसी विष-बेल की तरह उनके इर्द-गिर्द लिपटा जा रहा था. एक रोज़ मैं स्वयं को उनसे किंचित दूर करती तो दूसरे रोज मैं उनके और नज़दीक पहुंच जाती.
बेबस हो मैंने फिर उनके समक्ष अपने हाथ फैला दिए, सिर्फ उनका प्यार और साथ पाने की चाहत में. यहीं पर… कोई भी पुरुष हो कमज़ोर पड़ जाता है. शायद पुरुष का प्रकृति प्रदत्त नैसर्गिक स्वरूप है कि वह अपनी तरफ़ बढ़ते किसी स्त्री के कदमों को चाह कर भी नहीं रोक पाता.

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उनकी पत्नी का आकंठ में डूबा प्रेम और अटूट विश्‍वास भी उनके चारों ओर वह रक्षा कवच नहीं बना पाया था, जो मुझे उनके सानिध्य और स्नेह के स्पर्श से दूर रख पाता.
मैं उनके प्रेम को अंगीकार कर भविष्य की कालिमा से बेख़बर हो वर्तमान के सतरंगी इन्द्रधनुषी सपनों में खो गई थी.
मैं मूर्ख उस वक़्त यह भी नहीं समझ पाई कि किसी के हरे-भरे आशियाने में सेंध लगाकर, उसे रौंदकर मैं अपनी ख़ुशियों का महल कैसे बना पाऊंगी.
किसी के दाम्पत्य की नींव हिलाने के फेर में, मैं स्वयं ही अपने लिए गड्ढा खोद रही हूं, पल-दो पल के साथ, निगाहों से बरसती रूमानियत और उनके स्नेहिल स्पर्श को ही मैं अपनी ज़िन्दगी समझने लगी थी.
शायद यही एक नवयौवना का दुर्बल पहलू है कि वह एक प्यारभरी नज़र पाने के लिए विवेक शून्य हो जाती है. अपनी अस्मिता, अपना भविष्य सब हृदय के वशीभूत हो दांव पर लगा बैठती है.
यही वह दौर था, जब मेरे सोचने-समझने की शक्ति विलुप्त हो गई थी. छुपते-छिपाते मिलने और उनका इन्तज़ार करने में, मैं स्वयं को खासा रोमांचित महसूस करती थी. उनकी बांहों का घेरा मुझे अन्दर तक बसंत-बहार का एहसास दे जाता था.
शनै-शनै उनका प्रेम मेरे चेहरे की लालिमा में बढ़ोत्तरी करने लगा. स्वयं को आईने में निहार-निहार कर, मैं ख़ुद से ही शर्माने लगी थी. उनके प्रेम की सुगन्ध मेरे तन-मन में पूरी तरह व्याप्त हो चुकी थी.
और जब एक दिन… मुझे अपने वजूद के भीतर एक और अस्तित्व का एहसास हुआ तो जैसे आसमान से गिर पड़ी मैं, मेरे पांवों तले की ज़मीन खिसक गयी थी.
दिन का चैन और रातों की नींद दोनों ही कपूर की तरह उड़ गए थे. अजीब-अजीब-सी भयानक आकृतियां मुझे भयभीत करने लगीं. समाज, परिवार, दोस्त, लोक-लाज सबका डर सताने लगा था मुझे.
जब इस वस्तुस्थिति के विषय में अमित को बताया, तो मौन बैठे रहे थे बहुत देर तक.
“तुम इसे…” अटकते हुए उन्होंने कहना चाहा था, सिहर उठी थी मैं, “नहीं-नहीं, मैं अपने प्रेम की निशानी को ख़त्म नहीं करूंगी. इसमें उस मासूम जान की क्या ग़लती है?”
फिर आनन-फानन में ही अपने कुछ मित्रों की उपस्थिति में हमने विवाह की रस्म निभा ली थी, जब कि हम दोनों ही जानते थे कि यह अर्थहीन है.
विवाह के बाद मेरे परिवार में जैसे हडकंप मच गया. किसी विवाहित पुरुष से विवाह…
“अरे हमारी इ़ज़्ज़त का नहीं तो कम-से-कम अपने भविष्य का तो ख़्याल किया होता. एक शादीशुदा पुरुष प्यार और ऐशो-आराम भले ही दे दे, पर मान-सम्मान और सुरक्षा का एहसास नहीं दे सकता.”
“यदि अपनी मर्ज़ी से ही विवाह करना था, तो चुनाव तो सोच-समझकर करना चाहिए था, किसी को मुंह दिखाने के लायक नहीं छोड़ा हमें..”
“जानती हो, किसी शादीशुदा आदमी से जुड़ी दूसरी औरत को किस सम्बोधन से पुकारा जाता है..?”
आगे के शब्द भले ही भैया के मुंह से नहीं निकले थे. पर मेरे कानों में पिघले शीशे की तरह बहने लगे थे.
सालों से पाली-पोसी मैं लाडली बेटी पल-भर में सबकी वितृष्णा का कारण बन गई थी. हर कोई अछूत की तरह मुझे अपने से दूर छिटक देना चाहता था. घर में भाभी अपनी बेटी को मेरे साये से भी दूर रखने लगी थीं कि कहीं मेरे व्यक्तित्व के कीटाणु उसे भी संक्रमित न कर दें.
जल्द ही अमित ने मेरे लिए एक अलग घर की व्यवस्था कर दी थी, जहां कुछ ही घन्टे वह मेरे क़रीब होते थे. उन पलों में भी उनसे दूर होने का ख़ौफ़ मुझ पर छाया रहता था.
“अब मैं चलता हूं, किरण मेरा इन्तज़ार कर रही होगी.” अपनी पत्नी के लिए कहे गए उनके शब्द मेरे हृदय को, मेरे वज़ूद को तार-तार कर देते थे.
कभी जी चाहता था कि उन्हें अपने आप से दूर नोंच-नोंच कर फेंक दूं, तो कभी पागलों की तरह उन्हें अपने आलिंगन में कसकर जकड़ लेती थी.
साथ तो मुझे उनका ठीक से मिल ही नहीं पा रहा था. धीरे-धीरे प्रेम भी दम तोड़ता नज़र आने लगा था. उनकी पत्नी का स्नेह, उनका परिवार उन्हें वापस अपनी ओर खींचने लगा था, मेरी पकड़ दिन-ब-दिन ढीली पड़ती जा रही थी.
इधर मेरे विचारने की दिशा में भी परिवर्तन हुआ और मैं किरण की मनोस्थिति का अनुमान लगाने लगी. कितना आहत होता होगा उसका हृदय, यह सोचकर
कि एक दूसरी औरत उसके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश कर उसके पति की अंकशायिनी बन गयी है.
और भी न जाने कितनी बातें सोचते-सोचते मुझे ख़ुद से ही घिन आने लगी. कितनी स्वार्थी हो गई थी मैं? मैंने बस अपने दिल की चाह देखी. खैर, किरण तो परायी थी, मैं तो अपने जन्मदाताओं के हृदय की पीड़ा को भी नहीं समझ पाई, जो आज मेरे कारण स्वयं को लोगों के बीच कितना अपमानित महसूस करते हैं. उनकी वर्षों की प्रतिष्ठा को मैंने अपने एक क़दम से ही धूल-धूसरित कर दिया था.
अपनी ग़लती पर पश्‍चाताप के सिवा कुछ नहीं बचा था, पर प्रायश्‍चित करूं भी तो कैसे?
भयंकर मानसिक तनाव के तहत एक रात अपनी ज़िन्दगी के अंधेरे साये के साथ मैंने वह शहर छोड़ दिया था.
अपने गन्तव्य से अन्जान मैं एक ट्रेन में बैठ गई. हालांकि मन के एक कोने में यह डर भी था कि ये कदम किसी और गहरी खाई की ओर न ले जाए, पर इत्तेफ़ाक कहें या मेरे किसी अच्छे कर्म का फल कि उस ट्रेन में मुझे मेरी बचपन की सहेली सपना मिल गई, जो मुझे अपने साथ यहां इस शहर में ले आई. नितांत अन्जान लोगों के बीच, जिन्हें मेरे बीते हुए कल से कोई सरोकार नहीं था.

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समाज में ख़ुद को रहने लायक बनाए रखने के लिए मुझे विधवा का झूठा चोला पहनना पड़ा और तुम्हें भी इसी भुलावे में रखा कि तुम्हारे पिता एक दुर्घटना में हमें छोड़कर हमेशा के लिए चल बसे हैं.”
अपने अतीत के पन्ने पलटते-पलटते शालिनी हांफने लगी, फिर कुछ क्षण रुक बोली, “अप्रत्यक्ष रूप से देखने-सुनने में तो आज मेरी ज़िन्दगी शान्त और व्यवस्थित है, पर अब भी उन पलों में व्यथित हो उठती हूं जब किसी स्त्री को गर्व से मांग में सिन्दूर सजाए हुए देखती हूं.
हूक उठती है एक ऐसी औरत को देखकर, जो किसी की विवाहिता के सम्बोधन से स्वयं को गौरवान्वित महसूस करती है, जिसे अपने बच्चों से पिता के विषय में झूठ नहीं बोलना पड़ता. जिसके पास हर रिश्ता है, तीज-त्योहार, उत्सव हर मौक़े पर अपने लोग आस-पास होते हैं.
वैसे तो आज हमारा समाज काफ़ी आधुनिक हो गया है, पर आज भी ऐसे संबंधों की समाज में कोई जगह नहीं. यदि अब भी किसी को मेरे गुज़रे हुए कल के विषय में पता लग गया तो उनके मन-मस्तिष्क में मेरे लिए घृणा के सिवाय कुछ शेष नहीं बचेगा और लोगों की नकारात्मक प्रतिक्रिया से तुम्हें भी अपना जीवन कलुषित प्रतीत होने लगेगा.
नेहा, तुम पढ़ी-लिखी और समझदार हो, साथ ही आत्मनिर्भर भी. अपने निर्णय स्वयं करने का अधिकार है तुम्हें, इसलिए मुझे उम्मीद है कि तुम अपनी ज़िन्दगी में ऐसा कोई क़दम नहीं उठाओगी, जो तुम्हारी आनेवाली ज़िन्दगी को नासूर बना दे.”
शालिनी ने प्यार और सांत्वना भरे स्पर्श के साथ कुछ पल नेहा के कन्धे पर हाथ रखा और फिर धीमे कदमों से अन्दर कमरे में जा निढाल हो बिस्तर पर लेट गई. उसका संपूर्ण तन-मन अतीत की असहनीय पीड़ा से कराह उठा था.
उधर नेहा अपने जन्म और मां की ज़िन्दगी से जुड़े इस पहलू से परिचित हो हतप्रभ बैठी थी. स्वयं को संयत करने में उसे घंटों लग गए. घर में एक अजीब-सा सन्नाटा व्याप्त हो गया, दोनों की पूरी रात इसी ख़ामोशी में बीत गई.
अगली सुबह नेहा ने खिड़की से परदा सरकाया, तो सूरज की रूपहली किरणें उसके मुखमंडल पर छितर, उसे दमकाने लगी थी. वहां रात्रि के अंधकार की मलिनता का कोई अंश शेष न था.
उसका चेहरा अपूर्व शान्ति और लिए गए निर्णय के प्रभाव से दैदीप्यमान हो रहा था. शालिनी की निगाहों से झांकते हुए प्रश्‍नों का उत्तर देने के लिए, उसने शालिनी का हाथ अपनी दोनों हथेलियों के बीच समेट जो कुछ कहा, उसे सुनकर शालिनी का हृदय इस सुखानुभूति से आल्हादित हो उठा कि उसने गहरे भंवर की ओर बढ़ते अपनी बेटी के कदमों को पहले ही थाम लिया.

– गीता जैन

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