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कहानी- चांद खिल उठा‌… (Short Story- Chand Khil Utha…)

हर किसी की भागीदारी होती उस उत्सव में, उन लम्हों में… वे लम्हें आगे चलकर खानदानी धरोहर बन जाते. ऐसी कितनी धरोहरें इस वक़्त मेरी आंखों में लहरा रही थीं और शायद उन सभी की भी… यहां से ये आंखें इतना सूनापन लेकर तो विदा नहीं होनी चाहिए… मैंने मन में कुछ सोचा और भाभी की ओर बढ़ गई.

“बड़ी देर लगा दी बुआजी, देखों डांस शुरू ही होने वाले हैं…” मेरी भतीजी मिन्नो मुझे दरवाज़े से लगभग खींचते हुए हॉल के उस कोने में ले गई जहां सब घरवाले नृत्य प्रस्तुति के लिए तैयार हो रहे थे. कल मिन्नो के बड़े भाई अंकुर की शादी थी. आज महिला संगीत था. परिवार के सभी लोग एक फिल्मी गाने पर ग्रुप डांस कर रहे थे. आज के संगीत के लिए बाकायदा कोरियोग्राफर नियुक्त किया गया था, जो पिछले पंद्रह दिनों से सबकी प्रैक्टिस करवा रहा था.
मिन्नो सबको बार-बार आगाह कर रही थी, “स्टेप्स पूरे तालमेल में होने चाहिए, वरना वीडियो अच्छा नहीं बनेगा.” उसे वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट करना था, ताकि लड़की वाले भी तो देखें, गुप्ता खानदान कितना कूल है. उन सबके लिए एक से हरे दुपट्टे लाने का काम मुझे सौंपा गया था. दस बजे तक सब निपटना था, उसके बाद सोसायटी में डीजे बजाने की अनुमति नहीं थी.


तय समय पर नाच-गाना आरंभ हो गया. सब कुछ एकदम तयशुदा प्रोग्राम के मुताबिक़ होने लगा. परिवार का ग्रुप डांस, सोलो डांस, जोड़ी डांस… ज़रा सा भी इधर से उधर नहीं… ना गाने, ना संगीत, ना डांस स्टेप.
जो नृत्य में सम्मिलित नहीं थे, वे दर्शकों की कुर्सियों पर बैठे तालियां बजा रहे थे. पहले ही सब बड़े-बुज़ुर्गों को समझा दिया गया था कि बीच में उठकर स्टेज पर वार-फेर करने न आएं, वीडियो ख़राब होगा. शामली वाली मामीजी आदतन दस का नोट लेकर चली, तो उन्हें बीच रास्ते से ही पकड़ कर बैठा दिया गया.

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उनका उतरा चेहरा देख दिल अचकचा गया मेरा. मुझे अपना समय याद आ गया. हमारी पीढ़ी की शादियों में तो शादी से हफ़्ते भर पहले से ही रतजगे शुरू हो जाया करते थे. ख़ूब नाच-गाने, मस्ती-धमाल… कोई एक बुआ, मौसी या चाची पूरी रात ढोलक पर थाप देती रहतीं, दूसरी पूरे उत्साह से उस पर चम्मच बजाती. जिसका नाचने का नंबर आता उसकी ओर घुंघरू उछाल दिए जाते, जिसको नाचना नहीं आता उससे भी ज़बरन ठुमके लगवा लिए जाते. उस बरजोरी का अपना अलग ही आनंद था.
हॉल में एक ओर बैठी उन्हीं मामी, मौसी, चाची, बुआ और उनकी पीढ़ी की सभी महिलाओं ने पुराने दौर का एक एक गाना पकड़ा हुआ था. खानदान में सबको पता था, बड़ी मौसी ‘सखी री मैंने लिए हैं गोविंद मोल…’ पर ही थिरकेगीं और कांधले वाली मौसी ‘एक रात में दो दो चांद खिले…’ पर बार-बार आसमान को देख हथेलियों से चांद बनाते हुए ठुमके लगाएंगी.
एक मंड़ली तान छेड़ती, दूसरी उन्हें पकड़ खींच ले आती. वे सिर पर पल्लू संभालते हुए एक ही तरह का ठुमका दोहराती रहतीं. ख़ूब वार-फेर होती, हंसी-ठट्टा होता और वे हंसती-शर्माती वापस बैठ जातीं. हर किसी की भागीदारी होती उस उत्सव में, उन लम्हों में… वे लम्हें आगे चलकर खानदानी धरोहर बन जाते. ऐसी कितनी धरोहरें इस वक़्त मेरी आंखों में लहरा रही थीं और शायद उन सभी की भी… यहां से ये आंखें इतना सूनापन लेकर तो विदा नहीं होनी चाहिए… मैंने मन में कुछ सोचा और भाभी की ओर बढ़ गई.

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दस बजे डीजे सिमट गया. नई पीढ़ी ताज़ी सेल्फी से स्टेटस अपडेट करने में लग गई. पिछली पीढ़ी यादों की पोटली खोल आपस में बतिया रही थी. तभी मैंने अपने सामान से ढोलक निकाली, भाभी ने चम्मच संभाली और योजना के मुताबिक़ शुरू हुआ, “एक रात में दो दो चांद खिले…” मौसी को खींचा जाने लगा, ढोलक के आसपास सब जमने लगे. वो “ना ना…” करने लगी, मगर मैंने देखा उनकी आंखों में और बाकी सभी की आंखों में कुछ सोए जुगनु अंगड़ाई ले जगमगाने लगे थे. डीजे के शोर में कहीं जा छिपा हसरतों का चांद फ़िर आसमान में चमकने लगा था.

दीप्ति मित्तल

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Photo Courtesy: Freepik

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Usha Gupta

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