“हिम्मत रखो… एक ना एक दिन सबको जाना है, ऊपरवाले की मर्ज़ी के आगे क्या कर सकते हैं.” मेरे दोस्त रमेश के रिश्तेदार उसे सांत्वना दे रहे थे, और मुझे उसके पिताजी की निष्प्राण देह में अपने बाबूजी दिख रहे थे. ‘एक ना एक दिन सबको जाना है’… ऐसे ही बाबूजी भी तो कभी चले जाएंगे, मुझे छोड़कर और जीवनभर मैं अपने को धिक्कारता रहूंगा उस मनहूस दिन को याद करके…
“डैड! या तो मुझे हॉस्टल भेज दीजिए या दादाजी को वापस ताऊजी के यहां… मैं नहीं रह सकता हूं ऐसे!” उस दिन मेरे घर आते ही बेटा फट पड़ा था, उसके स्वर में मेरी पत्नी का मौन समर्थन भी था.
“धीरे बोलो, बाबूजी सुन लेंगे… हुआ क्या है?” आए दिन ये सब होता था, लेकिन इस बार कुछ ज़्यादा हुआ था शायद…
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“दादाजी मेरा फोन क्यों छूते हैं? मेरे दोस्त का फ़ोन आया था, पट् से उठा लिया और बोले कि वो तो लैट्रीन गया है… डिस्गस्टिंग!”
मुझे तो पहले समझ ही नहीं आया कि इसमें क्या ग़लत है, लेकिन बहस जब उग्र रूप में पहुंची, तब समझ में आया कि वॉशरूम कहना चाहिए था!
जब से बाबूजी यहां आए थे, तब से परिवार में असंतोष व्याप्त था, कभी उनकी डकार को लेकर, कभी उनकी पूजा-पाठ को लेकर, कभी जगह की कमी को लेकर. लोहा गर्म बहुत दिनों से था, बस आज आख़िरी वार हो गया था.
उनसे मैं क्या कहूं, मैं ही तो उन्हें बड़ी मुश्किल से मना कर लाया था.
“बाबूजी, इस शहर से उस शहर मेरा तबादला होता रहा, इसीलिए आप कभी मेरे साथ नहीं रहे. अब तो मुझे लखनऊ में ही रहना है, चलिए ना…”
अब उनसे जाने को कहूं?
खैर, ये नौबत आई ही नहीं, दो -तीन दिनों के अंदर ही बाबूजी किसी बहाने से कानपुर लौट गए थे, मुझे आत्म ग्लानि की आग में झुलसता छोड़कर… जो आज और प्रचंड हो चुकी थी.
घर पहुंचते ही मैंने सबको बुलाकर ऐलान किया, “मैं कानपुर जा रहा हूं, बाबूजी को लेने… कमरा साफ़ कर दो, उनकी किताबें भी सजा दो.”
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“लेकिन डैड! मेरे एग्ज़ाम्स हैं, अभी कोई मेहमान नहीं प्लीज़…” बेटा हड़बड़ा गया, उसकी मां भी अवाक थी.
“वो मेहमान हैं? ये उन्हीं का घर है.” मैं पहली बार बेटे पर चिल्लाया, “और डैड ना कहा करो, ‘डेड’ तो सबको होना है एक ना एक दिन… हो सके तो मुझे पिताजी या बाबूजी कहा करो…”
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