कहानी- दूसरा वर (Short Story- Dusara Var)

इतने समझदार कि जानकी चाहती रही मोबाइल पर रोज़ बात करें, पर संभव ने शादी की तारीख़ तक चार-छह बार ही बात की. बारात में गिनती के लोग आए. जानकी बड़ी हसरत से जयमाला के लिए मंच पर आई.
मतिभ्रम हुआ है कि यही यथार्थ है? जिसे चाचा समझा था वह डॉ. संभव हैं और जिसे डॉ. संभव समझ पहली नज़र में दिल दे दिया, वह उनके ठीक बगल में खड़ा उनका अनुज संयम है. जानकी सदमे में. संयम पूरी तरह चंचल हो रहा था, “भौजाईजी, भइया को माला पहनाइए.”
मैथिली भी यथार्थ पर अचंभित थी. उसने भी वही समझा था, जो जानकी ने, लेकिन अब स्थिति का सामना करना है. बोली, “पहना रही हैं भौजाईजी के देवरजी. थोड़ा धीर धरें.”…

विकास की ओर अग्रसर कस्बा-करारी. करारी का चार पुत्रियोंवाला साधारण-सा परिवार. निजी संस्थान के मामूली पद पर कार्यरत बाबूजी का स्तर साधारण है, पर लक्ष्य बड़ा है- पुत्रियों को कुछ दे सकें, न दे सकें, पर पढ़ने का पूरा अवसर देंगे.
बड़ी पुत्री जानकी हिंदी विषय में एमए उत्तीर्ण कर करारी की निजी स्कूल में प्राथमिक कक्षा में अध्यापन करते हुए इसी साल 25 की हुई है. उसके परिणय के लिए बाबूजी जहां भी गए, एक ही प्रश्‍न- कितना देंगे? बाबूजी पिटे हुए प्यादे की तरह घर लौट आते. कोई ख़बर नहीं थी बात बनेगी और आसानी से बनेगी. तय तिथि पर लड़केवाले जानकी को देखने आ रहे हैं. माता-पिता जीवित नहीं हैं. दो भाई हैं, जो चाचाजी के साथ आएंगे, लेकिन तीन नहीं, दो प्राणी ही तशरीफ लाए. जानकी से छोटी, मेहमानों की आवभगत में तल्लीन मैथिली, बुलावे के लिए सजकर तैयार बैठी जानकी से बोली, “चाचाजी और लड़का ही आए हैं. लड़का इतना सजीला है कि जानकी तुम्हारा जी मचल-मचल जाएगा.”
जानकी घबरा गई, “मैथिली, मैं तुम्हारी तरह बेशर्म नहीं हूं.”
“सजीले को देखकर मदहोश हो जाओगी. चलो, बैठक में तुम्हारी पुकार हो रही है.”
बैठक में सलज्ज जानकी की दृष्टि नहीं उठती थी. बड़ा ज़ोर लगाकर उसने अगल-बगल बैठे दोनों प्राणियों को देखा. सचमुच सजीला है. यदि कुछ पूछा जाएगा, तो बताते समय अच्छी तरह देख लेगी. वे दोनों इतने सज्जन निकले कि कुछ नहीं पूछा.
सज्जनों के जाने के उपरांत तीसरी बहन वैदेही ने पूछा, “जानकी, हरण करनेवाले कैसे लगे?”
“मैं बेशर्म नहीं हूं.”
बाबूजी योजना बनाने लगे, “लड़केवाले शादी जल्दी चाहते हैं. अगले माह अच्छा मुहूर्त है.”
अम्मा संशय में है, “सब कुछ बहुत अच्छा है, लेकिन संभव जानकी से 10 साल बड़े हैं.”
बाबूजी बेफ़िक्र हैं, “संभव डॉक्टर हैं. सुपर स्पेशिलाइज़ेशन, फिर प्रैक्टिस जमाने तक डॉक्टरों की इतनी उम्र हो जाती है. मुझे तो संभव बहुत सीधे-सादे और समझदार लगते हैं.”
इतने समझदार कि जानकी चाहती रही मोबाइल पर रोज़ बात करें, पर संभव ने शादी की तारीख़ तक चार-छह बार ही बात की. बारात में गिनती के लोग आए. जानकी बड़ी हसरत से जयमाला के लिए मंच पर आई.
मतिभ्रम हुआ है कि यही यथार्थ है? जिसे चाचा समझा था वह डॉ. संभव हैं और जिसे डॉ. संभव समझ पहली नज़र में दिल दे दिया, वह उनके ठीक बगल में खड़ा उनका अनुज संयम है. जानकी सदमे में. संयम पूरी तरह चंचल हो रहा था, “भौजाईजी, भइया को माला पहनाइए.”
मैथिली भी यथार्थ पर अचंभित थी. उसने भी वही समझा था, जो जानकी ने, लेकिन अब स्थिति का सामना करना है. बोली, “पहना रही हैं भौजाईजी के देवरजी. थोड़ा धीर धरें.”
जानकी के हाथों को सहारा देकर मैथिली और वैदेही ने माला डलवा दी. फोटो शूट के बाद जानकी अंदर कमरे में लाई गई. उसे ससुराल से आए वस्त्र पहनकर चढ़ावा के लिए तैयार होना है. तैयार होने का उमंग गायब था. बिछावन पर बैठकर हिचककर रोने लगी. अम्मा जानती थीं कि उस दिन चाचा नहीं आ पाए थे. जानकी ने सामान्य कद-सूरत व रंगतवाले संभव को चाचा और सजीले संयम को संभव समझ लिया है. उन्होंने बाबूजी से कहा था संभव अपनी उम्र से बड़े लगते हैं. दुबली जानकी अपनी उम्र से कम लगती है, पर बाबूजी ने निर्णय सुना दिया था, “लड़के का रूप-रंग नहीं, पद-प्रतिष्ठा देखी जाती है.” अम्मा विवश हुई. जानकी को इस तरह रोते देख, रिश्ते-नातेदार, महिलाएं पता नहीं क्या अर्थ लगाएंगी. वे उनसे बोलीं, “जानकी आज पराई हुई. ऐसे मौ़के पर रोना आ ही जाता है. आप लोग भोजन करें. मैं इसे आगे की रस्म के लिए तैयार कर दूं.”
उनके जाते ही अम्मा ने जानकी को गले से लगा लिया, मत रो जानकी.”
“अम्मा, तुमने मुझे धोखे में रखा.”

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“मैं नहीं जानती जानकी तुमने क्या देखा और क्या समझा. संभव की डॉक्टरी अच्छी चलती है. घर में पैसा भरा है.”
“तुम्हें पैसा दिखता है. अधेड़ नहीं दिखता?”
“35 का लड़का अधेड़ नहीं हो जाता. बाबूजी की हैसियत जानती हो. जो कर सकते हैं, कर रहे हैं. न रोओ. बात फैलेगी, तो बारात लौट सकती है. हम तो जीते जी मर जाएंगे.”
जानकी ने मान लिया विरोध का कोई मतलब नहीं. यदि बारात लौट गई, तो बहनों के विवाह में अड़चन आएगी. जिस संयम को पहली नज़र में दिल दे दिया, वह नफ़रत से भर जाएगा. छोटी हैसियतवालों को बड़े सपने नहीं देखने चाहिए. सजीले राजकुमार अमीरजादियों को मिलते हैं. वह तैयार होने लगी. संयम फोटोग्राफर को ले आया, “भौजाईजी, तैयार नहीं हुईं? फोटो शूट होना है.”
मैथिली ने माहौल को हल्का करने की कोशिश की, “ठहरिए, भौजाई के देवरजी. लड़कियों को तैयार होने में व़क्त लगता है. वह तो आप लड़के हैं कि कोट-पैंट पहना और हो गए तैयार.”
संयम, मैथिली को देखता रह गया, “आप लड़की हैं कि क्या हैं?”
“आना-जाना बना रहेगा. जान लीजिएगा हम मैथिली हैं.”
संयम पूरी रात संभव और जानकी के आसपास मंडराता रहा. किसी मित्र ने नियंत्रित किया, “बहुत ऊपर-ऊपर हो रहे हो. शादी तुम्हारी नहीं, भइया की हो रही है.”
“इस समय मैं भौजाई की ननद का रोल कर रहा हूं. मेरी बहन आज होती, तो इन्हें इसी तरह घेरे रहती.”
जानकी विदा होकर संगतपुर आ गई. बड़ा और व्यवस्थित मकान. पहली रात का आरंभ संभव ने अपनी पारिवारिक रूपरेखा बताकर किया.
“जैसा कि तुम जानती होगी पापा और मां डॉक्टर थे. यह मकान व संपत्ति उनकी बनाई हुई है. दोनों का अच्छा नाम था. उनके नाम का पूरा फ़ायदा मुझे मिल रहा है. वे हम तीनों भाई-बहन को डॉक्टर बनाना चाहते थे, पर संयम को आर्ट्स सब्जेक्ट अच्छा लगता था. बीकॉम के बाद लॉ किया. अब कचहरी में प्रैक्टिस करता है.”
“आपकी बहन भी है?”
“थी. मुझसे छोटी, संयम से बड़ी थी. मेडिकल कर रही थी. पापा-मां उसे छोड़ने हॉस्टल जा रहे थे. कार का एक्सीडेंट हो गया. तीनों नहीं रहे. मैं और संयम अचानक बेसहारा हो गए. पैसे की कमी नहीं थी, पर मानसिक संबल की ज़रूरत थी. चाचाजी ने बड़ा सहारा दिया. वे तुम्हें देखने आते, पर उन्हें छुट्टी नहीं मिली. मैंने संयम को बच्चे की तरह संभाला है. नादानी करे, तो अपना बच्चा समझकर माफ़ कर देना.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है, जिसे पहली नज़र में दिल दे बैठी, जो आयु में उससे बड़ा है, उसे अपना बच्चा कैसे समझ सकती है? जिसे चाचाजी समझा, उसे पति कैसे समझ ले?
“जब मैं तुम्हें देखने आया तुम नाज़ुक लग रही थी. घर आकर मैंने साफ़ कह दिया था कि मिस मैच हो जाएगा. शादी नहीं करना चाहता था, पर संयम अड़ गया कि वह तुम्हें पसंद कर चुका है. चाचाजी अड़ गए कि उन्होंने तुम्हारे बाबूजी को उम्मीद दी है.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. मैं संयम की पसंद और बाबूजी को दी गई उम्मीद की भेंट चढ़ गई.
“मां के बाद यह घर कभी घर नहीं लगा. वे पता नहीं कैसे इतना संभाल लेती थीं. मैं तो चाबियां देखते ही घबरा जाता हूं. संयम की स्थिति तो मुझसे भी दयनीय है. तुम हंसोगी, पर मुंह दिखाई में मैं तुम्हें चाबियां दूंगा. संभालो अपना घर.”
“चाबियां नहीं ले सकती. अभी आप मुझे ठीक तरह से नहीं जानते हैं, उस पर…”
“सात फेरों का बंधन मज़बूत होता है. घर तुम्हारा, ज़िम्मेदारी तुम्हारी. मैं मुक्त हुआ.”
जानकी संगतपुर में 10 दिन रही. संभव उसकी सहूलियत का ख़्याल रखते. संयम उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करता, “अरे भाभी, तुम अच्छा आ गई. घर में मर्दाने चेहरे देखकर मैं संन्यासी बनता जा रहा था. यहां कामवाली बाई भी नहीं है कि उसका मुख देख लूं. खाना बनाने से लेकर बगीचे मेें पानी देने तक सारा काम बुढ़ऊ काका करते हैं.”
संभव मुस्कुरा दिए, “अब घर कैसा लगता है?”
“जन्नत. कचहरी जाने की इच्छा नहीं होती. लगता है भाभी के पास डटा रहूं.”
“शादी के बाद मेरे पैरों में बेड़ियां पड़नी चाहिए, पड़ गई तुम्हारे पैरों में.”
“सही फ़रमाते हो भइया. मां होतीं, तो भाभी को रसोई के राज-रहस्य बतातीं. आजकल मैं सास के रोल में हूं.”
संभव कृतज्ञ थे. “जानकी, दिनों बाद घर में रौनक़ लौटी है. इसी तरह मुझे सहयोग और संयम को स्नेह देती रहना.”
संयम ने अभूतपूर्व बयान दिया, “भइया के मुख से अब जाकर सहयोग, स्नेह, सहभागिता जैसे शब्द सुन रहा हूं, वरना वही एक्स रे, एमआरआई, ईसीजी, सिरिंज, ड्रिप. बाप रे! इसीलिए मैं डॉक्टर नहीं बना. डॉक्टर लोग बहुत कम हंसते हैं.” संभव हंसते हुए बोले, “मैं हंस रहा हूं.”
“अब थोड़ा हंसने लगे हो भइया. भाभी, भइया तुम पर लट्टू हैं. मैं हौसला न बढ़ाता, तो कुंआरे रह जाते.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. यह हो जाता, तो विधाता शायद मेरा संयोग तुमसे जोड़ देते संयम…
जानकी करारी लौटी. अम्मा गदगद.
“दोनों भाइयों में बहुत प्रेम है. जानकी तुम संयम को संभव से कम न मानना.”
“संयम को कम नहीं बढ़कर मानती हूं.”
मैथिली बोली, “न सास-ससुर की रोक-टोक, न ननद की दादागिरी. जानकी मुझे जो ऐसा घर मिल जाए, तो ख़ूब मौज उड़ाऊं.”
“मेरा विवाह संयम से होता, तो मैं भी उड़ाती.”
अम्मा ने मैथिली को डपट दिया, “कुछ भी बोलती है. जानकी, बाबूजी से कहूंगी डॉक्टर साहब को फोन करके कहें कि तुम्हें लेने दोनों भाई आएं.”
मेरी नज़र तो संयम पर टिक गई है. चाहती हूं कि डॉक्टर साहब नहीं, संयम आएं.

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लेकिन संभव आए. जानकी निरुत्साहित.
कार ड्राइव कर रहे संभव ने उसके निरुत्साह को लक्ष्य किया, “उदास हो?”
“संयम को भी लाते.”
“उसे बुख़ार है.”
“कब से?”
“उदास थी, अब घबरा गई?”
घर पहुंचकर संभव ने संयम का टेंपरेचर चेक किया.
“मैं इसकी हाय-तौबा से परेशान हो गया हूं. जानकी अब तुम करो इसकी सेवा.”
संयम ने मुस्कुराते हुए कहा, “भाभी, तुमने मेरी केयर भइया से कम की, तो मैं तहलका मचा दूंगा. देवर का अर्थ जानती हो?  दूसरा वर. मैं तुम्हारा दूसरा वर हूं.”
जानकी उसे अपलक देखती रही. संकेत तो नहीं दे रहा है? इस तरह घेरे रहता है जैसे समीपता चाहता है. इसी को मन में बसाकर तो यहां रहने की कोशिश कर रही हूं, पर जानकी की क़िस्मत में सदमे ही लिखे हैं.
बाबूजी अचानक आए, “डॉक्टर साहब, मैथिली ने बीएससी कर लिया है. एमएससी बायो टेक में करना चाहती है. करारी में यह विषय नहीं है. कहें तो यहां रहकर पढ़े. जानकी को अकेलापन नहीं लगेगा.”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. बाबूजी ने मेरा इस्तेमाल करने के लिए ही मुझे अधेड़ से ब्याह दिया है. सास-ससुर का झमेला नहीं है, इसलिए इन लोगों को चाहे जब टपक पड़ने की पात्रता मिल गई है. अभी अम्मा बीमार पड़ीं, बाबूजी यहां पटक गए कि करारी के डॉक्टर बेव़कूफ़ हैं. संभव अच्छा इलाज करेंगे. क्षीण बुद्धि संभव ने उपचार किया और माता जैसा आदर दिया. अब मैथिली पढ़ना चाहती है. फिर वैदेही फिर छोटी सिया. मैं अपने घर में, ख़ासकर संयम को लेकर दख़ल नहीं चाहती. बोली, “बाबूजी, सुनो तो…”
लेकिन क्या करे इस क्षीण बुद्धि प्राणनाथ का. अविलंब कहा, “बाबूजी, सुनना क्या है? आपका घर है. मैथिली रहेगी, तो चहल-पहल बनी रहेगी.”
बाबूजी उद्देश्य पूरा कर चलते बने. जानकी सदमे में. संभव ने हाल पूछा, “जानकी परेशान लगती हो.”
“बाबूजी आप पर भार डाल रहे हैं. मुझे संकोच होता है.”
“संकोच क्यों? इस घर में तुम्हारा अधिकार है.”
संयम ख़ुश हो गया, “बुला लो भाभी. मैथिली ने शादी में बहुत सताया था. गिन-गिनकर बदला लूंगा.”
मैथिली आकर माहौल में रंग भरने लगी. जानकी को संदेह नहीं पुख्ता विश्‍वास है कि मैथिली, संयम को लपेटे में लेने के लिए यहां स्थापित हुई है. उसमें रुचि लेकर संयम चालबाज़ी दिखा रहा है. फोर्थ सेमिस्टर पूरा होते-होते समझ में आ गया रचना रची जा चुकी है. राज़ खोलने का भार संयम पर डाल फोर्थ सेम की परीक्षा होते ही मैथिली करारी खिसक ली कि उसकी अनुपस्थिति में संयम प्रस्ताव पारित करा ले.
संयम प्रस्ताव लेकर जानकी के सम्मुख आया, “भाभी, कुछ कहना है.”
“कहो.”
“भइया से कहने की हिम्मत नहीं हो रही है. तुम मेरी अर्जी उनके दरबार में लगा देना.”
जानकी सब समझ रही है, पर फिर भी कहा, “अर्जी का मजमून तो सुनूं.”
“मैं मैथिली से शादी करना चाहता हूं.”
अब तक का सबसे भीषण सदमा. इस तरह चीखकर अभद्रता दिखाते हुए जानकी पहली बार बोल रही है, “पागल हुए हो?”
“उसी दिन पागल हो गया था, जब मैथिली को पहली बार देखा था.”
“मैथिली प्रेम-वेम पसंद नहीं करती.”
“उसका समर्थन है. कह रही थी तुम्हारा सामना नहीं कर सकेगी, इसलिए जब वह करारी चली जाए, तब मैं तुमसे बात करूं.”
जानकी रो देगी.
“देखती हूं संयम तुम्हारे भइया क्या कहते हैं?”
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. जिसे पहली नज़र में दिल दे दिया, वह मैथिली के नाम की लौ जलाए बैठा है. मैथिली कितनी घाघ है. मेरी स्थिति जानती है, फिर भी… ज़रूर अम्मा ने भेजा होगा कि संयम पर मोहिनी डाले. एक और लड़की के हाथ सस्ते में पीले हो जाएं. मैथिली ने ऐसी मोहिनी डाली… नहीं, मुझे मनचाहा नहीं मिला, मैं मैथिली को मनचाहा नहीं पाने दूंगी.
जानकी को रातभर नींद नहीं आई. ख़ुद को असहाय, उपेक्षित पा रही है. संभव की संगत नहीं चाहती, पर वे अपनी भलमनसाहत में उसके समीप आना चाहते हैं. संयम की संगत चाहती है, पर वह पकड़ से छूटता जा रहा है. अब उसके व्यवहार में रोमांच नहीं कपट का आभास होता है. पहले दिन से ही मैथिली को पाने की योजना बना रहा था. योजना सफल हो, इसलिए भाभी… भाभी… कहकर उसकी ख़ुशामद करता रहा.
जानकी निराशा, ईर्ष्या, क्रोध, बौखलाहट से गुज़र रही थी. अम्मा का फोन बौखलाहट को पराकाष्ठा पर ले आया.
“जानकी, मैथिली ने सब समाचार बताया. तुमको लेकर वह बड़े संकोच में है, पर संयम उससे शादी करना चाहता है. हमारे तो भाग्य जाग गए. दोनों बहनें मिल-जुल कर रहोगी. बाबूजी इतवार को डॉक्टर साहब से बात करने आएंगे.”
जानकी बौखलाहट में ललकारने लगी, “अम्मा, तुमने मैथिली को जान-बूझकर पढ़ने के बहाने मेरे घर भेजा कि संयम पर मोहिनी डाले. संयम, मोहिनी की चाल में फंस गया. क्षीण बुद्धि डॉक्टर साहब को क्या कहूं? संयम उनके दिमाग़ में इतना घुस गया है कि उसकी ख़ुशी के अलावा इन्हें कुछ नहीं सूझता.”
“नहीं…”
“मैं बोलूंगी अम्मा. तुम्हें मैथिली का बड़ा ख़्याल है. मुझे धोखे में रखकर अधेड़, बदसूरत के साथ बांधा, तब मेरा ख़्याल नहीं आया था? जब ये दोनों भाई मुझे देखने आए थे, मैंने डॉक्टर साहब को चाचा, संयम को डॉक्टर साहब समझ लिया था. तुम जानती थी असलियत क्या है, लेकिन मुझे नहीं बताया. मेरे साथ कपट किया.”
“नहीं बेटी…”

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“मैं बोलूंगी अम्मा. मैं अब भी सदमे से उबर नहीं पाई हूं. अच्छी चाल चली तुम लोगों ने. मेरा दिमाग़ ख़राब है. इस विषय में मुझसे बात न करना.”
जानकी ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया. ठीक इसी क्षण स्वर उभरा, “भाभी…”
जानकी के कान बज रहे हैं या संयम कचहरी से लौट आया है?
बैठक में बैठी, तेज़ आवाज़ में अम्मा को ललकार रही जानकी को आभास नहीं था कि ज़रूरी फाइल लेने के लिए अचानक आ पहुंचा संयम उसकी कटुता सुनकर बैठक से लगे बाहरी खुले बरामदे में ठिठका खड़ा है. इसके आने की आहट नहीं मिली या दबी चाप से बैठक में दाख़िल हुआ है.
“संयम तुम? जल्दी आ गए.”
“फाइल भूल गया था.”
“पानी पियोगे?”
“हां.”
जानकी को राहत मिली कि संयम ने फोन पर की गई उसकी बातचीत नहीं सुनी. सुनता तो प्रतिक्रिया ज़रूर देता.
लेकिन जानकी महसूस करने लगी है कि संयम बहुत बदल गया है. कुटनी मैथिली करारी क्या गई, संयम की हंसी ले गई.”
“संयम, मैथिली की याद आ रही है?”
“उससे मेरा कोई वास्ता नहीं.”
“शादी नहीं करोगे?”
“नहीं.”
“क्यों?”

अम्मा से तुम जो बातें कर रही थीं, सुनकर शादी से मेरा विश्‍वास उठ गया. शादी के समय तुम्हारे मन में जो भी था, पर भइया के इतने अपनेपन को देखकर तुम्हारी धारणा में बदलाव नहीं आना चाहिए था? अधेड़, बदसूरत… भइया में इतने गुण हैं, पर तुम इस मामूली बात पर अटकी हो कि वे ख़ूबसूरत नहीं हैं? तुम तो बहुत ख़ूबसूरत हो, पर दिल साफ़ नहीं है, तो ख़ूबसूरती किस काम की? कपट तो हम लोगों के साथ हुआ है. सोचता था तुमने भइया का जीवन परिपूर्ण कर दिया है. उनकी भावनाओं को समझती हो. सब ढोंग. भैया हमेशा मुझसे कहते हैं कि मुझे फुर्सत नहीं मिलती, संयम तुम अपनी भाभी का ख़्याल रखा करो. मैंने तुम्हें इतना मान-सम्मान दिया, ख़्याल रखा… छी… छी…”

“संयम सुनो तो…”
“तुम सुनो. मिस मैच होगा सोचकर भइया शादी का मन नहीं बना रहे थे. मैं अड़ गया, मुझे तुम बहुत अच्छी लगी हो. अफ़सोस, मैं ग़लत था.”
“सुनो तो…”
“तुम सुनो. मैं मानता हूं कि भइया जैसे इंसान के लिए जो अच्छे विचार नहीं रखता, वह अच्छा नहीं हो सकता. भइया मेरे लिए क्या हैं, तुम नहीं समझोगी… मेरे लिए उनसे बढ़कर कुछ नहीं है. न तुम, न मैथिली.”
“संयम…”
“मैंने तुम्हारे भीतर का कालापन देख लिया, पर भइया को मत दिखाना. वे तुम पर विश्‍वास करते हैं. उन्हें तकलीफ़ होगी. उनके सामने मेरे साथ सहज व्यवहार करती रहना. मैं भी नाटक करता रहूंगा. नहीं करूंगा, तो भइया को कारण क्या बताऊंगा.”
संयम वहां से चला गया.
जानकी आत्मयंत्रणा से गुज़र रही है. संयम की आंखें सुलग रही थीं. शब्द लड़खड़ा रहे थे. कितना अपमानजनक है भाभी… भौजाई… रटनेवाले जिस देवर ने एक दिन दूसरा वर होने जैसी बात की थी. आज उसे भाभी कहने से भरपूर बच रहा था.

सुषमा मुनीन्द्र
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