एक राजा था. वह ईश्वर का सच्चा भक्त था और नियमपूर्वक पाठ पूजा किया करता था. वह सरल और स्नेही स्वभाव का था एवं अपनी प्रजा से बहुत नेह रखता था.
राज्य में सुख-शांति थी.
ईश्वर ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये और कहा, “कहो वत्स, क्या चाहते हो?”
“मेरे पास सब कुछ है प्रभु! कहीं कोई कमी नहीं. मैं अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह चाहता हूं. मैंने तो आपके साक्षात दर्शन कर लिए, मैं चाहता हूँ कि मेरी प्रजा भी आपके दर्शन कर ले.”
ईश्वर मुस्कुराए और कहा, “यह नहीं, कुछ अपने लिए मांगो वत्स.”
राजा गिड़गिड़ाया, “यह तो आपको करना ही होगा प्रभु.” राजा के ज़िद करने पर ईश्वर मान गए और कहा, “ठीक है. कल सुबह मैं उस सामनेवाले पहाड़ पर आऊंगा. जो भी मेरे दर्शन करने का इच्छुक हो कल सुबह सात बजे वहां पहुंच जाए.”
राजा ने मंत्री से कहकर राज्य भर में ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो भी ईश्वर के साक्षात्कार दर्शन करना चाहता हो, वह उस पहाड़ी पर हमारे साथ आए.
सुबह-सुबह एक बड़ा सा काफ़िला पर्वत पर चढ़ने लगा. आगे-आगे राजा और रानी, पीछे लोगों की भीड़.
कुछ आगे बढ़े, तो तांबे के सिक्कों का पहाड़ दिखाई दिया. लगभग आधे लोगों को लालच आ गया और वह उन सिक्कों की ओर भागे. राजा देखकर निराश हुआ, पर कर ही क्या सकता था.
थोड़ा ही और चले होंगे कि चांदी के सिक्कों का पहाड़ दिखाई दिया. तांबे के सिक्के उन्हें ललचा नहीं पाए थे, पर चांदी का पहाड़ देख वे उस तरफ़ लपके.
राजा ने निराश होकर उनकी तरफ़ देखा पर फिर आगे बढ़ गया.
एक बार फिर राह में पहाड़ दिखाई देने लगा. इस बार ख़ालिस सोने के सिक्कों का. बची हुई भीड़ सोना पाने का लोभ न छोड़ सकी और सब उसी तरफ़ भागी.
राजा ने मुड़ कर देखा. अब उसके साथ केवल रानी चल रही थी. राजा इससे ही संतुष्ट हो गया और आगे बढ़ने लगा कि इतने में हीरों का पहाड़ दिखाई देने लगा. रानी ने एक बार राजा की तरफ़ देखा और फिर हीरों के पहाड़ की तरफ़ बढ़ गई.
चोटी पर पहुंचने पर राजा ने देखा कि ईश्वर स्वयं वहां खड़े मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं. राजा को देखकर बोले, “कहां है तुम्हारी प्रजा?”
राजा को ख़ामोश खड़ा देख ईश्वर ने कहा, “हे राजन! मुझ तक वही पहुंचता है, जो इन भौतिक साधनों से अपनी दूरी बना मुझे याद करता है.
मैंने मनुष्य को दो आंखें, तो दुनिया देखने के लिए दी हैं. मैं उसे तभी दिखाई देता हूं, जब वह इन भौतिक वस्तुओं से मुंह मोड़ मेरी शरण में आता है.”
– उषा वधवा
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