कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडव विजयी हुए और युधिष्ठिर राजा बन गए. श्रीकृष्ण ने उन्हें यज्ञ करने की सलाह दी, ताकि युद्ध में अपने सगे-संबंधियों की हत्या के पाप का प्रायश्चित हो सके. अतः भव्य यज्ञ का आयोजन हुआ. अनगिनत पकवान बने. सबने जी भर के खाया.
ज़रूरतमंदों को दिल खोलकर दान दिया गया.
सब ओर यज्ञ की वाह वाही होने लगी. ऋषि मुनि सब ने प्रशंसा की. इससे युधिष्ठिर को अहंकार हो आया.
सब ने देखा कि एक नेवला जिसका आधा शरीर सोने का और आधा सामान्य था, इधर-उधर घूम रहा है और जहां भी वह बचा हुआ भोजन देखता है, उस पर अपना शरीर रगड़ने लगता है.
बात समझ नहीं आ रही थी, तो श्रीकृष्ण ने एक ऋषि से कहा कि इस नेवले को थोड़ी देर के लिए वाणी दे दो, ताकि वह उससे बचे हुए भोजन पर लोट लगाने का कारण जान सकें. ऋषि ने नेवले पर मंत्र वाला पानी छिड़का, जिससे वह बोलने लगा.
नेवले से पूछने पर उसने कहा, “महाराज युधिष्ठिर को इस यज्ञ से कुछ भी पुण्य प्राप्त नहीं हुआ है.” कारण पूछने पर उसने बताया, “असली यज्ञ तो उस ब्राह्मण परिवार का था, जहां से मैं आ रहा हूं और जहां मेरा आधा शरीर सोने का हो गया है. परन्तु महाराज युधिष्ठिर का यह यज्ञ पाखंड है, दिखावा है. इसमें राजा को कोई पुण्य नहीं मिला है.”
महाराज युधिष्ठिर के कारण पूछने पर नेवले ने बताया, “एक गरीब ब्राह्मण था. उनके घर में चार प्राणी थे. पति-पत्नी और बेटा-बहू. उनके घर मुश्किल से भोजन का जुगाड़ हो पाता था. कभी वह भी न हो पाता, तो वह खेतों में अनाज के गिरे दाने चुन लाते और वही पकाकर, मिल-बांट कर खा लेते.
एक दिन वह यही भोजन करने बैठे ही थे कि एक अतिथि आ गया, जिसे ज़ोर की भूख लगी थी. ब्राह्मण ने अपना हिस्साअतिथि के आगे रख दिया. पर अतिथि बहुत भूखा था और इतने कम भोजन से उसका पेट नहीं भरा, तो गृहस्वामिनी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथि को खिला दिया. अतिथि तब भी भूखा रहा. अब पुत्र ने और उसके बाद बहू ने भी अपने हिस्से का भोजन अतिथि को खिला दिया. तब जाकर उस का पेट भरा.
गृहस्वामिनी ने थाली धोई, तो नाली की राह थाली की जूठन बाहर आ गई. संयोगवश मैं उधर से निकल रहा था और उस जूठन में गिर पड़ा. उस जूठन के स्पर्श मात्र से मेरा आधा शरीर सोने का हो गया, जो देखने में विचित्र लगता है.
आपके यज्ञ की सुन मैं यहां इसी उद्देश्य से आया था. आपका भोज तो धर्म भोज होगा ही. उस में लोट लगाने से मेरा बाकी शरीर भी सोने का हो जाए. परन्तु मैं ग़लत था. अनेक बार लोट लगाने पर भी मेरा शरीर सोने का नहीं हुआ.”
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कोई भी धार्मिक काम तब तक सफल नहीं माना जाता, जब तक उसमें सच्ची श्रद्धा, समर्पण और निष्ठा का भाव न हो. जब आप ईश्वर का दिया ही उसे समर्पित कर रहे हो, तो फिर उसमें अहंकार कैसा?
– उषा वधवा
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