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कहानी- कितने गुलाब? (Story- Kitne Gulab)

मां की तस्वीर के आगे गुलाब रखा, तो आंखों के कोर पर कुछ गरम-गरम उमड़ आया था. मां का गहरा दर्शन था कि तुम किसी को समर्पण करोगे, तो ज़रूरी नहीं बदले में वही व्यक्ति तुम्हें समर्पण करे, तुम्हें कहीं और से समर्पण मिलेगा.

 

“तूने आज तक कभी वैलेंटाइन डे पर कोई गुलाब नहीं ख़रीदा… कैसी है रे तू?” इतने गुलाब ख़रीदकर भी वर्तिका ख़ुद से बात करते हुए फूलों की दुकान से सीढ़ियां उतरते हुए मुस्कुरा रही थी. उसकी मुस्कुराहट होंठों को, गालों को छूने का प्रयास कर रही थी. शहर की दुकानों से वो हर समय गुलाब ख़रीदने की कवायद में रहती थी.
वर्तिका ने कभी सोचा भी न था कि कोई उसे यूं गुलाब ख़रीदते देखेगा तो क्या सोचेगा. अरे! इन फूलों की दुकान पर तो वो ज़माने से आती रही है. जब बाबा की साइकिल पर आती थी, तब टोकरी में दो पैर लटकाए बैठा करती थी. बाबा को फूलों का बेहद शौक़ था. फूलों में भी गुलाब उनको पसंद था.
“आज गुलाब आए हैं क्या?” बाबा उस फूलवाले से पूछते उस ज़माने में फूल दिल्ली से मंगवाए जाते थे. उस छोटे से रेगिस्तानी कस्बे में भला फूलों का और उस पर भी गुलाब के फूलों की नस्ल का भला क्या काम था.
फूलवाले की ‘हां’ कहने पर बाबा की बांछें खिल जातीं और बाबा पच्चीस पैसे का सिक्का उसकी हथेली पर रखकर फूल को अख़बार की पन्नी में लपेटकर साइकिल का पैडल मारकर चल देते. वो फूल कभी मुझे मिलता, तो कभी गली-मोहल्ले में किसी बीमार चाचा को या फिर किसी ऐसे पढ़नेवाले बच्चे को, जो अच्छे नंबरों से पास होता था. कभी-कभी वो गुलाब मेरी मां को भी मिलता था. शायद वो दिन या तो उनका जन्मदिन होता होगा या विवाह की वर्षगांठ, क्योंकि बीते वर्षों में बाबा मेरी मां को जन्मदिन और विवाह की वर्षगांठ पर गुलाब देते थे, जो मेरी स्मृतियों में आज भी ताज़ा है और धीरे-धीरे यह गुलाब मेरी मां की पसंद में भी शामिल हो गया था.
एक बार बाबा अपने मोहल्ले के नुक्कड़ पर गुलाब लेकर खड़े थे. मैं भी बाबा के साथ खड़ी थी. कुछ और लोग भी बाबा के साथ आकर खड़े हो गए.
मेरे पड़ोसी राजू भैया ने पूछा, “चाचा! ये गुलाब किसके लिए लेकर खड़े हो?” उसकी लालायित आंखें गुलाब पर टिकी थीं.
“अपने मोहल्ले के पानी की सप्लाई करनेवाले का आज रिटायरमेंट है. बरसों उसने हमें पानी सप्लाई किया. अभी वो इसी सड़क से घर जा रहा है अपने ऑफिस के लोगों के साथ.” मैं और मोहल्ले के बच्चे दंग थे. कॉलेज में कॉमर्स में पढ़नेवाले प्रभात दादा ने तो गद्गद् होकर कह ही दिया था, “चाचा, आपसे कितनी बातें सीखते हैं हम…!”
एक बार मोहल्ले के ही सुशील दा, व्यंकट भाई और इरशाद भाई दक्षिण भारत की यात्रा पर साइकिल पर निकले थे.
मोहल्लेवाले विदा करने खड़े थे और वर्तिका के बाबा वहीं अपने चिर-परिचित अंदाज़ में अपने हाथों में गुलाब लिए खड़े थे. सब मोहल्लेवाले मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे.
बाबा के ज़माने में कौन-सा वैलेंटाइन डे हुआ करता, पर बाबा की गुलाब ख़रीदने और भेंट करने की आदत का बीज वर्तिका में अंकुरित होना स्वाभाविक था. वर्तिका की शादी के बाद उसके जन्मदिन पर, मोहित के जन्मदिन पर, विवाह की वर्षगांठ पर और वर्तिका के बच्चों के जन्मदिन पर गुलाब देना शामिल हो गया था. गुलाब के फूल की एक ही डंडी हुआ करती थी. पर आज के वैलेंटाइन डे पर गुलाब की ख़पत, मीडिया का प्रचार-प्रसार हर वस्तु के बाज़ारीकरण ने गुलाबों के शोध पर यह फ़रमान जारी कर दिया था कि लाल गुलाब की एक डंडी प्रेमी-प्रेमिका के बीच होगी… दो गुलाब युगल प्यार का प्रतीक होंगी, तो तीन गुलाब स्थायी रिश्ते की गुहार का प्रतीक… स़फेद गुलाब पवित्र प्यार का प्रतीक… पीला गुलाब “मैं अब भी तुम्हें प्यार करता हूं” का प्रतीक… पर जो भी हो, बरसों से बाबा के गुलाब की ख़रीद में कोई फ़र्क़ नहीं आया. वही सुर्ख़ गुलाब, वही डंडी वर्तिका के बच्चों को परीक्षा देने जाते समय. परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद तक दिए जाते रहे.
“अरे वर्तिका! यह सब मीडिया की बनी बनाई बातें हैं. अब भला भावना को आप परिभाषा में क्या बांधेंगे. बाबा को इस बात में ख़ुशी मिलती है, तो मिले ना.” वर्तिका ख़ुद से बात करते हुए अपनी गर्दन झटक देती.
वर्तिका के बेटे वैभव के नौकरी के लिए जाते समय स्टेशन पर पहुंचने से पहले ही वैभव के कोच के सामने बाबा वही सुर्ख़ रंग के गुलाब लिए खड़े थे. ज़ोर से हंस दी थी वर्तिका. पुल से उतरते हुए वर्तिका की नज़र बाबा पर पड़ी, तो उसने वैभव को बोला, “लो नाना खड़े हैं गुलाब लेकर.”
पर बाबा नहीं जानते कि गुलाब ख़रीदने का वर्तिका का भी क्रम जारी है. अपनी सहेली का जन्मदिन हो या उनके बच्चों की परीक्षा, वर्तिका भी गुलाब भेंट करने से नहीं चूकती. वर्तिका भी तो मां के लिए उनके जन्मदिन पर गुलाब ही लाती थी और बाबा भी विवाह की वर्षगांठ पर दो गुलाब अक्सर ही मां को भेंट करते थे. अब गुलाब का स्वरूप बदला है. लंबी डंडी को पारदर्शी पन्नी से लपेटकर देता है फूलवाला.
इस वर्ष तो गुलाब ख़रीदने की हद ही हो गई. वर्तिका की बेटी स्वाति की कक्षा की सभी लड़कियां आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली गई हैं, तो कोई जयपुर और कोई चेन्नई, हैदराबाद भी. वर्तिका ने सबको गुलाब देकर विदा किया है. इस बात से बेफ़िक़्र कि एक गुलाब वैलेंटाइन के लिए भी होता है. भला ये भी कोई दर्शन हुआ- “हुंह…” वर्तिका अपने ही दर्शन को न्याय संगत ठहराते हुए अपनी गर्दन को झटक देती है.
इस बार फूल की दुकान पर गुलाब मांगा, तो उसने पूछा, “मंदिर में चढ़ाने हैं?” वर्तिका ‘हां हूं…’ कहती इससे पहले उसने बिखरी पंखुड़ीवाले गुलाब दिखाए.
उसने कहा, “नहीं! वो पारदर्शी पन्नी में लिपटा हुआ… लंबी डंडीवाला…” वर्तिका सोच रही थी कोई इस कदर गुलाब ख़रीदता देखेगा, तो क्या सोचेगा.
“मेरी बला से!” ख़ुद ही सवाल, ख़ुद ही जवाब और पैसे देकर मुड़ी, तो सामने ऑफिस का सहकर्मी वरुण दिखा.
“मैडम गुलाब?…” उसकी आंखों में अनोखा प्रश्‍न था या नहीं, उसने कोशिश भी नहीं की, पर उसकी खिसियानी हंसी निकलती उससे पहले वो जवाब दे उठी, “आज मां की बरसी है.” और कहकर दुकान की दो सीढ़ियां उतर आई.
मां को ऐसा लंबी डंडीवाला गुलाब ही तो पसंद था और बिखरी पंखुड़ीवाला गुलाब देना चाहता था- “हुंह!” वर्तिका ने एक बार और गर्दन झटकी.
मां की तस्वीर के आगे गुलाब रखा, तो आंखों के कोर पर कुछ गरम-गरम उमड़ आया था. मां का गहरा दर्शन था कि तुम किसी को समर्पण करोगे, तो ज़रूरी नहीं बदले में वही व्यक्ति तुम्हें समर्पण करे, तुम्हें कहीं और से समर्पण मिलेगा.
स्वाति का एमबीए इसी वर्ष पूरा हुआ है. उसका विवाह छह महीने पहले ही सुशांत से हुआ है. सुशांत शिकागो में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. उस दिन वर्तिका का जन्मदिन था. सुबह उठी, तो दरवाज़े पर लगी कलात्मक पीतल की घंटी की सुमधुर आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वो बाहर आई, तो एक व्यक्ति गुलाब लेकर खड़ा था.
‘वर्तिका आनंद’ गुलाबों के बुके पर उसे यह नाम दिखाई दिया.
“अरे, तुम आज घर पर…” वो आश्‍चर्यचकित थी उस फूलवाले दुकानदार को घर की ड्योढ़ी पर देखकर.
“हां! हमने ऑनलाइन फ्लावर सप्लाई करने का काम भी शुरू कर दिया है.” उसने फूल थामे व्यक्ति के हाथ से कार्ड थामा. ‘स्वाति फ्रॉम शिकागो.’
“ये गुलाब आपके लिए.” वो बोला. हैरत से देखा इतने गुलाब कि वो फूलोंवाला मुश्किल से अपनी दोनों बांहों का घेरा बनाकर गुलाब संभाले खड़ा था. वर्तिका ने शरीर की धमनियों और शिराओं में सुर्ख़ द्रव की उठा-पटक के बीच हस्ताक्षर किए और गुलाब संभाले अंदर आ गई. मोहित को
आवाज़ दी, “देखो! स्वाति ने गुलाब भेजे हैं जन्मदिन पर.”
वर्तिका का पूरा घर गुलाबों से भर गया है. वर्तिका और बाबा ने आज तक जितने गुलाब ज़िंदगीभर ख़रीदकर बांटे थे, वो समर्पित होकर उनके घर आ गए हैं. खिड़की का पर्दा सरकाया, तो सूरज की पहली किरण में मां का गहरा दर्शन दिखाई दे रहा था.
मोहित को पीछे खड़ा देख वर्तिका ने ग्लानि भरी आवाज़ में कहा, “मोहित, मैंने इतने गुलाब ख़रीदे हैं, पर वैलेंटाइन डे पर तुम्हारे लिए कभी गुलाब नहीं ख़रीदा.”
“ये सब अपने ही तो गुलाब हैं.” यह कहते हुए मोहित ने वर्तिका को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया.

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