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कहानी- कृष्णा की भावना (Short Story- Krishna Ki Bhawna)


“आप उधार नहीं लिया करें. यदि अगले महीने पांच सौ रुपए कपड़े वाले को न दे सके तो कपड़े वाला क्या सोचेगा?”
“कुछ नहीं सोचेगा.” अमर ने कहा, “नौकरी वालों को इसी तरह गुज़र-बसर करनी पड़ती है. क्या पति अपनी पत्नी को अच्छे कपड़े भी नहीं पहना सकता? स्त्री की शोभा कपड़ों में होती है.”
यह अत्यंत भावुक क्षण था.


“कृष्णा, जल्दी करो. पिक्चर निकल गई, तो सब मज़ा किरकिरा हो जाएगा.
देर मत करो, टैक्सीवाला बाहर इंतज़ार कर रहा है.”
“बस थोड़ी देर और रुक जाओ. चाभी नहीं मिल रही, पता नहीं कहां रख कर भूल गई.”
“कमबख़्त चाभी को भी इसी समय खोना था.” अमर झुंझलाकर बाहर निकल गया. कृष्णा भी मन-ही-मन खीझ रही थी. जब भी जल्दी होती, उसे न जाने क्या हो जाता था, परंतु पहले तो उसके स्नायुतंत्र इतने कमज़ोर नहीं थे. ये सब पिछले
कुछ महीनों से होने लगा था. जब से उसने घर की संपूर्ण ज़िम्मेदारियों का बोझ अपने सिर पर लिया था, तभी से वह असंतुलित-सी हो गई थी.
अचानक ही उसे मांजी की कमी का एहसास हुआ. वह उनके बारे में सोचने लगी. मांजी के व्यवहार को वह कितने ग़लत रूप में लेती थी, कदाचित उसने
उनके स्नेहमयी स्वरूप को अंकुश का प्रतिबिंब समझा था. कृष्णा का सिनेमा
देखने का उत्साह एकदम ठंडा पड़ गया. वह अपने आप में उलझ गई. उसके कानों में सिलाई मशीन की धड़-धड़ की आवाज़ गूंजने लगी. मांजी घंटों तक मशीन पर काम करती रहती थीं.
कृष्णा को सोचने पर मजबूर होना पड़ा, अवश्य मांजी किसी-न-किसी बात पर नाराज़ थीं. इससे पहले वे मामाजी के घर तीन-चार दिनों से अधिक कभी नहीं ठहरी थीं, किंतु इस बार उन्हें पूरा एक महीना गुज़र गया था, कोई चिट्ठी-पत्री भी नहीं भेजी उन्होंने.

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कृष्णा ने जब इस घर में दुलहन के रूप में प्रवेश किया था, तब उसे महसूस ही नहीं होता था कि वह इस घर की गृहलक्ष्मी है. जैसा कि लोगों से उसने सुन रखा था कि मायके और ससुराल में अंतर होता है. मायके में मां और ससुराल में सास, पर नहीं, उसके व्यावहारिक अनुभव में उपरोक्त कहावत तर्कसंगत नहीं थी. मांजी के व्यवहार ने उसे यह एहसास करने का अवसर ही नहीं दिया था कि वह सास है. उनका व्यवहार तो उसकी सगी मां से भी अधिक स्नेहमयी व गरिमायुक्त था.
कृष्णा को अब समझ में आ रहा था. मांजी के विनोदी स्वभाव को उसने सदैव ही विपरीप अर्थों में जोड़ा था. उनका मज़ाक वह कटाक्ष समझती थी. घर के प्रत्येक कार्य में उनका ही सिक्का ठुका रहता था. यही तो खटकता था उसे. इसी बात को लेकर कृष्णा ने अपने आपको कुंठित कर लिया था. वह अकर्मण्य हो गई थी. परिवार के किसी भी काम में वह रुचि नहीं लेती थी. बस चौबीसों घंटे उसका मस्तिष्क खिन्नता से भरा रहता था. मांजी की कोई भी बात उसे हथौड़े की चोट की तरह लगती.
उस दिन वह न जाने क्या निर्णय सोच कर बैठी थी मन में. शाम को अमर द़फ़्तर से लौटा था. महीने की पहली तारीख़ थी. उसकी जेब गरम थी. पूरा वेतन उसने मांजी के हाथ पर रखते हुए कहा था, “मां, कल दूध वाला हिसाब मांग रहा था ना, आज चुकता कर देना. रतन से भी कह देना कि वह आज ही घर की ज़रूरत का सामान ले आए.”
“रतन अपनी ससुराल गया है. सामान लेने तुम्हें ही जाना पड़ेगा. और हां, पिछले माह तुम दुकान से कुछ कपड़े लाए थे. उसके नौकर ने मुझे टोक दिया था, तुम आज ही उसके रुपए पहुंचा देना.”
“अच्छा मां.” कह कर वह सीधा कृष्णा के कमरे में चला गया. कृष्णा के कान जैसे दीवार से चिपके थे. अमर के क़दमों की आहट सुनकर वह झटपट फ़ोटो एलबम खोल कर बैठ गई और कृत्रिम व्यस्तता का नाटक करने लगी.
अमर ज़रा जल्दी में था. उसने ख़ुशी से झूमते हुए कृष्णा की कमर में चुटकी भर ली.
“रानी जी, इस रामायण को बंद करो और फटाफट खाना लगा दो, मुझे दोस्तों के साथ पिक्चर जाना है. बहुत जल्दी है.”
किंतु कृष्णा मन में कुछ और सोच कर बैठी थी. वह बोली, “घर में सब्ज़ी नहीं है. खाना बनाने में समय लग जाएगा. आज मैं भी आपके साथ पिक्चर देखने चलती हूं. खाना हम किसी होटल में खा लेंगे.”
“होटल में! दिमाग़ तो ठीक है तुम्हारा! मेरे दोस्तों के बीच बैठकर पिक्चर देखोगी?”
“तो क्या हुआ? क्या आपके दोस्त अपनी पत्नियों को सिनेमा नहीं दिखाते?”
“तो.”

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“आज मैं भी आपके साथ जाऊंगी. मांजी से इजाज़त मांगे लेती हूं.” अमर की बात सुनने से पहले ही कृष्णा दरवाज़े के बाहर निकल दी.
अमर ने उसका रास्ता रोक लिया, “कृष्णा, मां के पास मत जाओ. मैं तुम्हें दोस्तों
के साथ नहीं ले जा सकता. घर की मर्यादाओं का कुछ तो ख़याल करो.”
कृष्णा की आंखों में तलवार की धार-सी चमक उभर आई. वह तेज़ स्वर में बोली, “आप मुझे जानवरों की तरह कैद करना चाहते हैं. क्या मैं इंसान नहीं हूं? क्या मेरी भावनाएं नहीं कि मैं भी मनोरंजन करूं, घूमने जाऊं, खुली हवा में सांस ले सकूं?”
“तुम्हें मना किसने किया है? दिनभर खाली रहती हो, कहीं भी उठ-बैठ सकती हो, शकुंतला के साथ पिक्चर जा सकती हो.”
“बिना पैसों के न तो पिक्चर देखी जा सकती है और न ही बाज़ार घूमा जा सकता है. आपको मेरी ज़रूरतों की चिंता ही कहां है? आपको तो केवल अपने आप से मतलब है.”
“तुम्हारा मतलब क्या है?” अमर का चेहरा तमतमा गया.
“मेरा कोई मतलब नहीं है. स़िर्फ आपको बताना चाहती हूं कि इच्छाएं सभी की समान होती हैं. आप अपने वेतन के मालिक हैं, जब भी जिस तरह चाहा, उसी प्रकार ख़र्च किया. मेरी महत्वाकांक्षाएं तो अभावों के बीच घुट कर रह जाती हैं.” कृष्णा का गला भर्रा गया.
अमर के माथे पर बल पड़ गए. कृष्णा का चेहरा उसने हथेलियों के बीच ले लिया और बोला, “कृष्णा, शादी के बाद आज पहली बार मैंने तुम्हारे मुंह से इस तरह की बातें सुनी हैं. क्या बात है? क्या तुम्हें मेरे प्यार में कोई कमी नज़र आई? तुम सुखी नहीं हो इस घर में?”
कृष्णा ने जवाब नहीं दिया. सिसकती हुई वह अपने कमरे में बंद हो गई. अमर किंकर्त्तव्यविमूढ़ रह गया. उसे यक़ीन हो गया कि ज़रूर कृष्णा के मन में किसी ने ज़हर भरा है.
अमर को ख़ूब ध्यान था उसने कभी भी कृष्णा की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की कोशिश नहीं की थी. उसकी इच्छाओं का कभी भी दमन नहीं किया था. फिर उसके दिमाग़ में यह बात कैसे घर कर गई कि वह उपेक्षित है.
उस दिन अमर पिक्चर देखने ज़रूर गया था, पर उसका मन नहीं लगा था. रह-रह कर उसके मस्तिष्क में कृष्णा के शब्द विस्फोट की भांति गूंजते रहे थे. सिनेमा से लौटते समय एकाएक ही उसे विचार आया कि कृष्णा इसलिए तो परेशान नहीं है
कि वह पूरा वेतन मां को दे देता है. अपने वार्तालाप में कृष्णा ने उसके वेतन पर भी टिप्पणी की थी.

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दूसरे दिन अमर ने यह आभास भी नहीं होने दिया कि कल उनके बीच किसी भी प्रकार का विवाद भी हुआ था. उसने ख़ुद ही बात को सामान्य करने के लिए कहा, “कृष्णा, कल की पिक्चर बहुत अच्छी थी. आज तुम मां के साथ देख आना.”
“मेरा देखने का मूड नहीं है.” कृष्णा ने रूखा-सा उत्तर दिया.
“कल तुम ख़ुद ही चाह रही थी. आज मैं कह रहा हूं तो इंकार कर रही हो. समझ में नहीं आता कि तुम चाहती क्या हो?” अमर झल्ला गया.
“आप व्यर्थ ही परेशान हो रहे हैं. मेरा सचमुच मूड नहीं है. पिक्चर में पैसे बेकार चले जाएंगे. इन रुपयों से घर का कुछ सामान आ जाएगा.” कृष्णा ने जिस ढंग से कटाक्ष किया था, उस पर अमर तिलमिला गया था. पर उसने कहा कुछ नहीं, शांत ही रहा. बात आगे बढ़ा कर वह घर में वातावरण को अशांत करना नहीं चाहता था.
अमर द़फ़्तर चला जाता तो घर की व्यवस्था मांजी को ही संभालनी
पड़ती थी. कभी घर में तेल नहीं तो कभी लकड़ी. मांजी तत्काल बाज़ार जातीं
और आवश्यकताओं की पूर्ति करतीं.
यही कारण था कि अमर पूरी तनख़्वाह मांजी को थमा देता था. मांजी भी पूरा पैसा ताले में बंद नहीं रखती थीं. उनके घर में एक ही अलमारी थी. पूरा वेतन उनकी खुली अलमारी में रखा रहता था. मांजी ने कृष्णा से भी कह रखा था कि उसे पैसों की आवश्यकता पड़े तो अलमारी में से लेने के लिए उससे पूछने की आवश्यकता नहीं है. पर कृष्णा के मन में अलग ही धारणा थी. उसका सोचना था कि पैसों की ज़िम्मेदारी तो मांजी को सौंपी गई है. अलमारी में हाथ डालकर वह अपने स्वाभिमान को कलंकित करना नहीं चाहती थी.
कृष्णा के इस अव्यावहारिक स्वाभिमान की तरफ़ अमर का ख़याल ही नहीं गया था. वह तो उसके इस मौन को उसके व्यवहार का हिस्सा समझता था. किंतु शुरू में ऐसा भी नहीं था. जब कृष्णा नई-नई ब्याह कर इस घर में आई थी तब वह अक्सर प्रसन्न रहती थी.
कृष्णा को कहानियां कहने का शौक़ था.
अमर देर रात तक बिस्तर पर उसकी प्रतीक्षा करता रहता था और वह मांजी को कहानियां सुनाती रहती थी. मगर धीरे-धीरे यह प्रसन्नता गायब होती चली गई. उसका स्थान कठोर गंभीरता ने ले लिया. यह गंभीरता किस कुंठा से उत्पन्न हुई थी, इस बात को अमर बहुत देर से समझ सका था. अगले दिन मामाजी का पत्र आया था. वे बीमार थे और मांजी को तत्काल बुलाया था. अमर ने मां से कहा भी था कि वह एक दिन का अवकाश लेकर उन्हें मामाजी के यहां छोड़ आएगा, किंतु मांजी ने मना कर दिया, कहा, “बहू को अकेला छोड़ कर जाएगा? मैं तो चली जाऊंगी, स्टेशन के पास ही तो उनका घर है. तू मुझे गाड़ी में बैठा देना बस.”
अमर कुछ न कह सका. उसे कहां पता था कि मांजी ने उसके और कृष्णा के बीच उत्पन्न विवाद को सुन लिया था. उसी दिन से उन्होंने एक विचित्र-सी ख़ामोशी अख़्तियार कर ली थी. मामाजी का पत्र पाकर उनकी भाव-मुद्रा बदली थी. वे उसी दिन ट्रेन से चली गई थीं. तब से अब तक उनके बारे में आने की कोई सूचना नहीं मिली थी और न ही उन्होंने पत्र डाला था. वह तो एक दिन अमर ने ही द़फ़्तर से मामाजी के यहां फ़ोन किया था. मामाजी ने स्पष्ट कह दिया था कि उनकी बीमारी लंबी है, वे बहन को इतनी जल्दी नहीं भेज सकते.
मांजी की अनुपस्थिति में घर के सारे कार्य कृष्णा के सिर पर आ पड़े. मांजी के रहते उसे मुश्किल से खाना बनाना पड़ता था. खाना खाने के बाद उसका बाकी समय बिस्तर पर गुज़रता था. वह कुछ-न-कुछ पढ़ती ही रहती थी, परंतु अब तो काम की व्यस्तता से समय निकालना असंभव प्रतीत होता था.
अगले माह अमर ने पूरा वेतन कृष्णा की हथेली पर रखते हुए कहा था, “सामान की लिस्ट बना कर रतन को दे देना. तुम्हें अपना कुछ ख़रीदना हो तो शाम को मेरे साथ चलना.”
कृष्णा की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं था, शादी के बाद पहली बार उसने अपने हाथ पर छह हज़ार रुपए देखे थे. इन रुपयों पर उसका अपना अधिकार था. वह अपने अनुसार इन्हें ख़र्च करेगी. रुपयों को उसने कई बार गिना. हर बार उसे कम-ज़्यादा गिनती प्रतीत होती थी.
कृष्णा ने ज़रूरी सामान की लिस्ट बना ली. कुछ रुपए पिछले उधारवालों को भी देने थे. कुछ हिसाब जोड़ा तो ख़ुशी पहले की अपेक्षा कम होती गई थी. कुल हिसाब को चुकता करने के पश्‍चात् उसके हाथ में मुश्किल से तीन सौ रुपए बचते थे.
कृष्णा सोच में डूब गई. मात्र तीन सौ रुपए बचेंगे, इसमें पूरे महीने की सब्ज़ी के अलावा आकस्मिक काम भी पड़ जाते हैं. ऊपर से अमर उसे इच्छित वस्तुएं ख़रीदने के लिए बाज़ार ले जाने वाले थे. यदि आज ही इच्छित वस्तुएं ख़रीद ली गईं, तो पहाड़-सा महीना कैसे गुज़रेगा? पहली बार उसके दिमाग़ में यह बात आई. वह तो शुरू से ही न जाने क्या-क्या सोचे बैठी थी. पति के वेतन से वह सारी अभिलाषाओं की पूर्ति करेगी. बड़े ऊंचे सपने थे उसके.
यौवन की दहलीज़ पर क़दम रखते ही उसकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ गई थीं. अपने अभावों की पूर्ति उसने पति के घर से पूरी करने की कल्पना की थी, परंतु अब प्रतीत हो रहा था कि कल्पनाएं मात्र कल्पनाएं करने के लिए ही होती हैं.
कृष्णा ने अपने पिता और पति के साथ बिताए जीवन का तुलनात्मक अध्ययन किया तो पाया कि उसने पति के घर पर वह सब कुछ तो पाया ही था, जो व्यक्ति के जीवन की प्राथमिक आवश्यकता होती है. रोटी-कपड़ा-मकान और पति का प्यार. पर उसकी कल्पना की उड़ान तो बहुत ऊंची थी, उड़ान भर कर वह सात समंदर पार करना चाहती थी, पर उसे यह कहां पता था कि ऊंची उड़ान भरने वाले बाज बहुत कम ही पृथ्वी पर लौटते हैं. अब तो कृष्णा एक ही महीने में धरातल पर उतर आई थी.
आज अमर ने पिक्चर जाने का प्रोग्राम बना लिया था, किंतु कृष्णा घर के ताले की चाभी कहीं भूल गई थी. और जब चाभी मिली तब तक टैक्सीवाला जा चुका था. पिक्चर का समय भी निकल चुका था, इसलिए मेला घूमने की योजना बना ली.
दोनों पैदल ही घर से निकले. टैक्सी का ख़याल भी निकल गया. बाज़ार से गुज़रते हुए अमर ने कहा, “कृष्णा, अपना सामान तुम यहीं से ख़रीद लो. मेले की चीज़ें अधिक टिकाऊ नहीं होतीं.”
“क्या मिलता है इस बाज़ार में?”
“कपड़ों की दुकानें हैं. तुम्हारे लिए साड़ी देख लेते हैं.”
कृष्णा संकोची मुद्रा में साड़ी देखते हुए बोली, “केवल तीन सौ रुपए हैं.”
“स़िर्फ तीन सौ रुपए, इतने रुपए तो मेले में ही ख़र्च हो जाएंगे. तुम्हें सात-आठ सौ रुपए तो लाने चाहिए थे.”
“सात-आठ सौ रुपए के कपड़े ख़रीद लेंगे तो महीने का ख़र्च कैसे चलेगा?” कृष्णा ने पहली बार समझदारी की बात की.
“ख़र्चा तो चलता ही रहता है. इसका अर्थ यह तो नहीं कि कपड़े ही न ख़रीदे जाएं. तुम मेरे साथ आओ, मैं बताता हूं कि महीना कैसे चलता है?”
अमर उसे दुकान पर ले गया. कृष्णा ने सवा दो सौ रुपए वाली दो साड़ियां पसंद की. अमर ने पांच सौ रुपए उधार खाते में लिखवा दिए.
मेला पहुंचने पर कृष्णा ने कहा- “आप उधार नहीं लिया करें. यदि अगले महीने पांच सौ रुपए कपड़े वाले को न दे सके तो कपड़े वाला क्या सोचेगा?”
“कुछ नहीं सोचेगा.” अमर ने कहा, “नौकरी वालों को इसी तरह गुज़र-बसर करनी पड़ती है. क्या पति अपनी पत्नी को अच्छे कपड़े भी नहीं पहना सकता? स्त्री की शोभा कपड़ों में होती है.”
यह अत्यंत भावुक क्षण था.
कृष्णा की आंखों में आंसू भर आए. वह भरे कंठ से बोली, “घर की व्यवस्था कितनी कठिन होती है, यह मैं देर से समझ सकी. पहले मैं सोचती थी कि आप लोग अपने पैसों को अपनी तरह से ख़र्च करते हैं.
मैं ग़लत थी, पर अज्ञानतावश तो कोई भी ग़लती कर सकता है. क्या आप
मुझे क्षमा…” अमर ने आगे कुछ कहने से पहले कृष्णा के होंठों पर अपनी
उंगली रख दी. “बस, अब कुछ मत कहो.” कृष्णा के आंसू गाल के नीचे लुढ़क गए और वह मुस्कुरा दी.
झूले में झूलते हुए अमर ने रिस्टवॉच की ओर देखते हुए कहा, “कृष्णा, अभी समय है, लास्ट-शो मिल जाएगा.”
“फिर ख़र्चा…” कृष्णा ने अमर की ओर तिरछी नज़र से देखा.
“जी हां, मनोरंजन भी जीवन का एक आवश्यक अंग होता है. इसे भी ख़र्चे की लिस्ट में लिख लेना.”
दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कुरा दिए. कृष्णा के चेहरे पर नया अनुभव और कुछ नया पाने की ख़ुशी उभर आई. अमर सोचने लगा, मां का कथन ग़लत नहीं था. पत्नी को घर की सभी ज़िम्मेदारियां सौंप देनी चाहिए, तभी उसके व्यक्तित्व और अनुभवों में निखार आता है.
आज कृष्णा व अमर दोनों ने ही ज़िंदगी के सच को जाना.
कृष्णा के जीवन में आज भावनाओं के ज्वर की उच्चतम सीमा थी.

– अयोध्यानाथ जोशी

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